ब्राह्मणवाद और संत कबीर: क्या कबीर ब्राह्मणवाद के विरोधी थे ? Kabir Brahmanvad Ke Viruddh The

ब्राह्मणवाद और संत कबीर: क्या कबीर ब्राह्मणवाद के विरोधी थे ? Kabir Brahmanvad Ke Viruddh The

ब्राह्मणवाद और संत कबीर: क्या कबीर ब्राह्मणवाद के विरोधी थे ? कबीर भक्तिकाव्य की निर्गुण भक्तिधारा में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। कबीर दलितों की आवाज थे, उन्हें राह दिखाने वाले थे, उनके शोषण पर उन्होंने पंडितों और मौलवियों को आड़े हाथों लिया। कबीर ने सदा ही ब्राह्मणवाद का विरोध किया और समाज के वंचितों और दलितों के लिए आवाज उठायी, उल्लेखनीय है की उन्होंने "ब्राह्मण" का विरोध नहीं किया। उनकी लेखनी में पीड़ा है क्यों की उन्होंने उस पीड़ा को स्वयं सहन किया है, वो उन उपदेशकों की तरह से नहीं थे जो स्वंय भोग विलास में लिप्त थे और बड़े बड़े उपदेश देते थे। उन्होंने पंडितवाद का विरोध तो किया लेकिन वे उसके प्रति हिंशक नहीं थे बल्कि करुणा से भरे थे और वो सुधार चाहते थे। 
 
ब्राह्मणवाद और संत कबीर: क्या कबीर ब्राह्मणवाद के विरोधी थे ? Kabir Brahmanvad Ke Viruddh The

पंडितों ने अपने श्रेष्ठता समाज पर थोप रखी थी, जबकि उनका आचरण निम्न था। धर्म से उनका विरोध था क्यों की धर्म में दिखावा और पाखंड का समावेश हो चुका था। वे हिन्दू और मुस्लिम धर्म में समय के साथ आ चुकी कुरीतियों, पाखंड बाह्यचार, और कर्मकांड को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने मुल्लाओं को समझाया और पंडितों को भी। आचरण की शुद्धता पर बल देते हुए कहा "सो हिन्दू सो मुसलमान, जाको दुरुस्त रहे ईमान"कबीरदास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। उनका मत था कि ईश्वर समस्त संसार में व्याप्त है। उन्होंने ब्रह्म के लिए राम, हरि आदि शब्दों का प्रयोग किया परन्तु वे सब ब्रह्म के ही पर्यायवाची हैं। उनका मार्ग ज्ञान मार्ग था। इसमें गुरु का महत्त्व सर्वोपरि है। कबीर स्वच्छंद विचारक थे। उन्होंने समाज में व्याप्त समस्त रूढ़ियों और आडम्बरों का विरोध किया।

अस्पृश्यता को उन्होंने भोगा थे इसीलिए उनके विचार बिलकुल सटीक बैठते हैं। हिन्दू धर्म के गढ़ कशी में रहकर पाखंडियों की धज्जियां उड़ाते रहे। ब्राह्मण से बढ़कर उस दलित और अस्पृश्य को श्रेष्ठ बताया जो सदाचरण करता हो और नेक राह पर चलता हो। ब्राह्मणवाद विरोध करते हुए उन्होंने लिखा की यदि जन्म से ही ब्राह्मण श्रेष्ठ है तो वह किसी अन्य राह से क्यों नहीं आया, सबका मार्ग एक है, सब समान हैं। यदि कर्म श्रेष्ठ हैं तो व्यक्ति अन्य से ऊँचा हो सकता है लेकिन किसी कुल में जन्म लेने मात्र से कोई महान नहीं बन जाता है। उन्होंने पोंगा पंडितवाद पर प्रहार करते हुए कहा -

जो तू बाम्हन, बाम्हनी जाया।
आन बाट द्धै क्यों नहिं आया।।

ऊंचे कुल का जनमिया, करनी ऊंची न होइ।
सुबरन कलश सुरा भरा, साधू निंदे सोइ।।


मध्य कालीन भक्ति युग के समय जातिवाद और धर्मों के बीच संघर्ष होता रहता था। कबीर ने सबसे श्रेष्ठ मानवता वाद को रखा वो संघर्ष नहीं चाहते थे। शोषक और शोषित का भेद मिटाना चाहते थे। सब जीव एक हैं और उनका उद्देश्य भी एक ही है। जीवन की उत्पत्ति का आधार के बताकर वे उच्च जातियों और दलित समूहों के समीप लाना चाहते थे।

एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।
एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।


कोई भी वंचित और दलित जो ईश्वर की भक्ति करता हो, सदाचारी हो वो श्रेष्ठ है। सही मायने में कबीर समाज में फैले झाड़ झंखाड़ को ही साफ़ करते रहे। जन्मजात श्रेष्ठता को चुनौती देते हुए उनके विचार हैं की यदि तुम ब्राह्मण हो और हम शूद्र तो क्या तुम्हारे खून में दूध और हमारे खून में लोहा भरा है ? साफ़ है की तुम हमारे ही सामान हो। श्रेष्ठ वही है जिसने ज्ञान को आचरण में उतारा है।

तुम कत् बाम्हन हमकत सूद
हम कत् लोहू तुम कत् दूध


ब्रह्म को विचारने की आवश्यकता है उसे आचरण में उतरना आवश्यक है। जाती प्रथा के कारन समाज में असंतोष था और टकराव था। समाज के कुछ लोगो को अश्प्रश्य, अछूत और इंसान होने से भी नकारा जा रहा था।

कह कबीर जे ब्रह्म विचारे
सो ब्राह्मा कहियतु है हमारे


परंपरा, विरासत और जन्म के आधार पर किसी को श्रेष्ठ मानना उचित हैं। उस समय ब्राह्मणों ने स्वयं को जन्म के आधार पर श्रेष्ठ घोषित कर रखा था। सामंतवाद अपने चरम पर था।

वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक।
छाया तिलक बनाय कर दराधिया लोक अनेक।। 
 
श्रष्टि की उत्पत्ति एक बूँद से हुयी है। ब्राह्मण हो या शूद्र सबका मालिक एक है, तो फिर भेदभाव कैसा ? लोगों को जातिगत आधार पर बांटना मूर्खता है। सब सामान हैं कौन भला और कौन मंदा ? कबीर ने जाती के आधार पर उन लोगों पर कटाक्ष किया जो जन्म के अद्धर पर कुलीन और श्रेष्ठ थे और पूजा पाठ और मंदिरों पर कब्जा जमाये हुए थे। ऐसे लोगों ने क्षत्रियों से सांठ गाँठ करके बलपूर्वक दलितों को समाज की मुख्य द्वारा से वंचित रखा। इन्ही बुराइयों का अंत करने के लिए कबीर ने सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष किया।

एक बूँद तैं सृष्टि रची है कौन ब्राहमण कौन सूदा
एक नूर तैं सब जग कीआ कौन भले को मंदो


ब्राह्मणों ने दलितों के लिए एक सीमा खींच रखी थी और समाज से उन्हें अलग थलग पटक रखा था। वो एक ऐसा समय था जब छुआछूत अपने चरम पर थी। पवित्र ग्रंथों तक सिर्फ उच्च जाती के लोगों की पहुंच थी। कबीर ब्राह्मण को जन्म के आधार पर श्रेष्ठ मानने को तैयार नहीं थे और वो ब्राह्मण से सम्पूर्ण जगत के गुरु की पदवी छीनना चाहते थे। ब्राह्मण चार वेद तो पढ़ लेता है लेकिन उनका ज्ञान स्वयं के आचरण में नहीं उतरता है। ऐसे ब्राह्मण की सत्ता को चुनौती देकर उन्हें गुरु मानने से साफ़ इंकार करते हैं।

ब्राह्मण गुरु जगत का, साधु का गुरु नाहिं।
उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिउ वेदा माँहि
 
कबीर ने उसे गुरु कहा जो शूद्र को भी ब्रह्म बना दे। वह गुरु श्रेष्ठ नहीं जो उच्च जाती में जन्मा हो, जिसके खूब सारे अनुयायी हों, जिसके गेरुए वस्त्र धारण कर रखे हों बल्कि गुरु वह है जिसे तत्व ज्ञान है, चाहे वह पंडित हो या मौलवी। दलित समाज का शोषण ही उनकी वाणी को विद्रोही बनाता है।


जा गुरु ते भ्रम ना मिटै, भ्रांति न जीव की जाय।
गुरु तो ऐसा चाहिए, देई ब्रह्म बनाय।।
 
ब्राह्मणों पर प्रहार करते हुए कबीर कहते हैं की बिना ज्ञान के ब्राह्मण अंधे के सामान है और उसकी नावं का कोई लक्ष्य नहीं है।

कबिरा ब्राह्मण की कथा, सो चारों की नाव।
सब अंधा मिलि बैठहीं, भावै तहाँ ले जाव

दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय।
मुई खाल की सांस सो, लोह भसम हो जाय।।


तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
 
जो सच्चा ज्ञान दे उसकी जाती नहीं पूछनी चाहिए। ज्ञान की प्राप्ति तो किसी को भी हो सकती है, चाहे वो किसी भी जाती का ना हो। सच्चे गुरु को नहीं पहचानने वाले अंधे हैं।

जाती न पूछो साधू की, पूछ लिजीये ज्ञान।
मोल करो तलवार की, पडा रहेन दो म्यान।।
 
कबीर ने सदा ही वंचित और दलित के लिए संघर्ष किया। हरिजन, शूद्र कौन हैं, किसने उनका नामकरण किया ? इसी विषमता को मिटाने के लिए कबीर ने लिखा

हरिजन आवत देखकर, मूढो सुखी गयो।
भक्ति भाव समझो नहीं, मूरख भटकी गयो।।


हम वासी उस देश के, जहाँ जात वर्ण कुल नाय।
ये जी शब्द मिलावा हो रहा, और देह मिलावा नाय।।
 
कबीर ने कभी भी "ब्राह्मण" से नफ़रत नहीं की। कबीर का हृदय तो संत का था। वो विरोधी थे "ब्राह्मणवाद" के।  जब ईश्वर की कोई जाती पाती नहीं तो फिर उसके बन्दों की कैसी जाती ?

जाती नहीं जगदीश की,हरिजन की कहाँ होय।
जात पात के बीच में,डुब मरो मत कोई।।


सबकी उत्पत्ति का स्रोत्र एक है, मालिक एक है। समाज में ये दुविधा किसने फैलाई ? झूठे और पाखंडियों ने। कबीर इन्ही के विरोधी थे। कबीर ने ईश्वर के समक्ष सबकी सामान "समानता" का पक्ष लिया और सभी को ब्रह्म का अंश कहा। किसी को अधिकार नहीं की वो सिर्फ जन्म के आधार पर किसी जाती के लोगों को मुख्य धारा में आने से रोक दे। उन्होंने समझौता के रस्ते को छोड़कर विद्रोह का रास्ता अपनाया।

सब जन्मे एक बीज से,सबकी मिट्टी एक।
मन में दुविधा पड गयी,हो गये रूप अनेक।।

उचे कुल के कारण तू,दुनिया भूल रहा है।
जब तन मिट्टी हो जायेगा,तब कुल का होगा क्या।।

कामी क्रोधी लालची,इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई सुरमा,जात वरन कुल कोय।।

हरिजन से रूठना,संसारी से हेत।
ते नर कदे न निपजे,जो कालर का खेत।


लोग दिखावा करते हैं। माला फेरते हैं, तिलक लगाते हैं, और गेरुआ धारण करते हैं, इसके बजाय उन्हें अपने अंदर झाकना होगा। ये पोंगा पंडितों पर एक तरह से प्रहार था जो दिखावा करते थे ईश्वर साधना का।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥

सब आया एकही पाट से,उतरा एकही घाट।
बीच में दुविधा पड गयी तो हो गये बारो बाट।।

नीचे नीचे सब तीरे, ज्यों त्यों बहुत अधीन
जाती के अभिमान करे,बुडे सकल उच कुलीन


कबीर का ब्राह्मण व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह
  • संत कबीर के वर्ण- व्यवस्था के विरुद्ध प्रहार का महत्व निम्नलिखित है:
  • यह एक सामाजिक न्याय की लड़ाई थी। कबीर ने वर्ण- व्यवस्था को एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था के रूप में देखा, जिसमें मनुष्य को उसके जन्म के आधार पर श्रेष्ठ या नीच माना जाता था। उन्होंने इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाकर समाज में एक नई जागृति पैदा की।
  • यह एक धार्मिक सुधार की लड़ाई थी। कबीर ने वर्ण- व्यवस्था को धार्मिक मान्यताओं से जोड़कर देखा। उन्होंने इस व्यवस्था को अंधविश्वास और पाखंड के रूप में देखा। उन्होंने इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाकर लोगों को धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त करने का प्रयास किया।
  • यह एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता की लड़ाई थी। कबीर ने वर्ण- व्यवस्था को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए एक बाधा के रूप में देखा। उन्होंने इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाकर लोगों को अपने जीवन को अपनी इच्छानुसार जीने का अधिकार दिलाने का प्रयास किया।
कबीर की भक्ति परंपरा ने वर्ण- व्यवस्था के खिलाफ एक मजबूत प्रतिरोध का सूत्रपात किया। उनके विचारों ने समाज में एक नई चेतना पैदा की और लोगों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया।

कबीर की कुछ कविताएँ, जो वर्ण- व्यवस्था के विरुद्ध प्रहार करती हैं, निम्नलिखित हैं:
  • "जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान।।"
  • "हरिजन सई न जाति, भक्त से समान कोई जाति नहीं।"
  • "कबीरा सोई साधु है, जो मन को मारे। बाह्य वेश देखकर, मत कहो साधु तिहारे।।"
  • "पाखंडी ब्राह्मणों, तुमने काशी बिगाड़ी। वेद पढ़कर पाखंड किया, शास्त्रों को गाई।"
  • कबीर के विचारों और कार्यों ने भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने में योगदान दिया। उन्होंने वर्ण- व्यवस्था के आधार पर मनुष्यों के बीच भेदभाव को समाप्त करने के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया।
आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करके उन्होंने पाखंडियों और छद्मवेश धारण किये सामाजिक शोषकों की दुकानदारियां बंद कर दी। उनके अंदर एक अलौकिक साहस था जिसके कारन उन्होंने सामंत वादियों, पंडितों और मुल्ला मौलवियों से मोर्चा खोला। कबीदास की रचनाओं को उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र तथा शिष्यों ने ‘बीजक’ के नाम से संग्रहीत किया। इस बीजक के तीन भाग हैं– (1) सबद (2) साखी (3) रमैनी। बाद में इनकी रचनाओं को ‘कबीर ग्रंथावली’ के नाम से संग्रहीत किया गया। कबीर की भाषा में ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी और अरबी फ़ारसी के शब्दों का मेल देखा जा सकता है। उनकी शैली उपदेशात्मक शैली है

आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं
Next Post Previous Post
No Comment
Add Comment
comment url