कबीर के विचार : नारी के संदर्भ में कबीर के विचार Kabir Ke Naari Ke Bare Me Vichar
नारी के संदर्भ में कबीर के विचार : शास्त्रों का सार है " यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफला:" जहाँ नारी का सम्मान होता है वहां देवता रहते हैं और जहाँ पर नारी का अपमान होता है वहां तमाम तरीके से पूजा पाठ के बाद भी देवता निवास नहीं करते हैं। लेकिन निराशा का विषय है की जो कबीर समाज में व्याप्त धार्मिक कर्मकांड, हिन्दू मुस्लिम वैमनष्य, पोंगा पंडितवाद, भेदभाव और कुरीतियों का विरोध करते हुए एक समाज सुधारक की भूमिका में नजर आते हैं वो स्त्री के बारे में निष्पक्ष दृष्टिकोण नहीं रख पाए। शायद इसका कारन उस समय के समाज के हालात रहे होंगे जो पुरुष प्रधान था। मध्यकालीन कवियों ने नारी को दोयम दर्जे में रख कर उसका अस्तित्व पुरुष की सहभागी, सहचारिणी सहगामिनी तक ही सीमित कर रखा था। नारी को कभी भी स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में चित्रित नहीं किया गया।
कबीर के विचार हर युग और काल में प्रासंगिक रहे हैं। वर्तमान समय के विश्लेषण से ज्ञात होता है की छह सौ साल बाद भी कबीर के विचार प्रासंगिक हैं। भले ही साम्प्रदायिकता, धार्मिक कर्मकांड, और समाज में व्याप्त भेदभाव हो, कबीर के विचार प्रासंगिक हैं। मुझे लगता है की जहाँ भी कबीर के नारी सम्बन्धी विचार तात्कालिक पुरुष प्रधान समाज की देन है और कबीर का नारी मूल्यांकन निष्पक्ष नहीं है।
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नारी के प्रति कबीर के विचार मूलतः दो बातों पर आधारित हैं। कबीर के अनुसार दो तरह की नारियां होती हैं। एक नारी तो साधना में बाधा नहीं पहुँचाती है और पतिव्रता होती है और दूसरी नारी जो साधना में अवरोध पैदा करती है उसे कबीर ने तिरस्कृत किया है, जिससे ज्ञात होता है की मूलतः कबीर नारी विरोधी नहीं थे। कबीर का मानना था की उपासना और ध्यान में नारी का त्याग आवश्यक है। कबीर ने ना तो हर जगह नारी की स्तुति की है और ना ही हर जगह भर्त्सना ही। कबीर के नारी संबधी विचारों में एक बात और निकल कर आती है वो है, पुरुष प्रधान समाज का अहम्। ये अहम् ही है जो नारी को मायावी, पुरुषों को जाल में फांसने वाली और ठगिनी ठहराती है। ऐसा प्रतीत होता है की कबीर जैसे प्रगतिशील, कर्मकांड और पाखंड विरोधी, दलित चेतना सबंधित क्रांतिकारी विचारक ने भी स्त्री के मूल्यांकन में चूक की है।
स्त्री के मात्र कामिनी कहना उसके शरीर की व्याख्या हो सकती है लेकिन स्त्री भी एक स्वंतंत्र व्यक्तित्व होता है, जिसे मध्यकालीन कवियों ने नजरअंदाज किया है। धर्म के साथ नारी का क्या विरोध है, समझ से परे है लेकिन ये तो सत्य है की जो भी व्यक्ति धर्म से जुड़ा है वो थोड़ा बहुत नारी के विरोध में तो होता ही है। क्या नारी सिर्फ पुरुष की सेवा के लिए है ? क्या उसे हरदम घर में घुट कर रहना चाहिए ? ये कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर पुरुष प्रधान भक्तिकालीन कवियों ने मूल्यांकन में चूक की है। ये भोगवादी दृष्टिकोण ही है जहाँ नारी को सर्पिणी घोषित किया गया हैं। भारतीय समाज के पितृप्रधान होने के कारन ही कबीर के विचारों में नारी विरोध के तत्व दिखाई देते हैं।
कबीर के नारी सबंधी दोहे/विचार Kabir Ke Nari Sambandhi Vichar/Dohe
चूँकि कबीर स्वंय स्त्री नहीं थे और ना ही उन्होंने स्त्री की पीड़ा को महसूस किया था इसलिए नारी के प्रति उनका स्वर नारी उत्थान के प्रति मुखर नहीं था। कुल मिलाकर मुझे ये लगता है की कबीर का नारी मूल्याङ्कन एक पक्षीय रहा है और यही कारन हैं की कबीर ने नारी को नरक का कुण्ड, काली नागिन, कूप समान, माया की आग, विषफल, जगत की जूठन, खूँखार सिंहनी, आदि उपमाएँ दे डाली हैं।
कुछ दोहे जो नारी के विषय में कबीर के विचार प्रदर्शित करते हैं व्याख्या सहित निम्न हैं :-
पतिबरता मैली भली, काली कुचिल कुरुप
पतिबरता के रुप पर बारौं कोटि स्वरुप।
ऐसी नारी जो अपने पति के प्रति समर्पित हो, पतिव्रता हो वो भले ही मैली कुचैली हो, कुरूप हो श्रेष्ठ है, ऐसी पतिव्रता नारी को कबीर नमन करते हैं। यहाँ कबीर ने नारी जो पक्ष रखा है वो नारी अश्मिता के पक्ष में है। नारी के रूप पर ना जाकर उसके गुणों की तारीफ की है जो की एक पुरुष या नारी के मूल्याङ्कन का आधार है।
नारी निन्दा ना करो, नारी रतन की खान
नारी से नर होत है, ध्रुब प्रहलाद समान।
नारी से नर होत है, ध्रुब प्रहलाद समान।
कबीर ने नारी का पक्ष रखते हुए कहा है की नारी की निंदा नहीं की जानी चाहिए, नारी से ही रत्न पैदा होते हैं, ध्रुव और प्रह्लाद जैसे नर भी नारी ने ही पैदा किये हैं।
नारी नरक ना जानिये, सब सौतन की खान
जामे हरिजन उपजै, सोयी रतन की खान।
जामे हरिजन उपजै, सोयी रतन की खान।
उपरोक्त दोहे में कबीर का कहना है की नारी को नरक मत समझो। नारी से ही सभी संत पैदा हुए हैं। भगवत पुरुषों की उत्पत्ति नारी से हुयी है इसलिए वो रत्नो की खान है।
कलि मंह कनक कामिनि, ये दौ बार फंद
इनते जो ना बंधा बहि, तिनका हूॅ मै बंद।
इनते जो ना बंधा बहि, तिनका हूॅ मै बंद।
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कलयुग में नारी और धन व्यक्ति को अपने फंदे में बाँध लेते हैं। माया और स्त्री को यहाँ एक समान बताया गया है जहाँ दोनों ही व्यक्ति को अपने फंदे में फंसा लेते हैं। जो व्यक्ति इन दोनों फंदों से बच जाता हैं उसके हृदय में ईश्वर वाश करते हैं। यहाँ नारी को मायावी बताया है और उस नारी के बारे में कहा गया है जो साधना में बाधा डालती हो।
नागिन के तो दोये फन, नारी के फन बीस
जाका डसा ना फिर जीये, मरि है बिसबा बीस।
जाका डसा ना फिर जीये, मरि है बिसबा बीस।
नागिन के दो पहन होते हैं लेकिन नारी के बीस फन होते हैं, नारी का डसा हुआ कोई भी जीवित नहीं बचता है। बीस के बीस लोग मर जाते हैं।
चलो चलो सब कोये कहै, पहुचै बिरला कोये
ऐक कनक औरु कामिनि, दुरगम घाटी दोये।
ऐक कनक औरु कामिनि, दुरगम घाटी दोये।
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सब लोग ईश्वर की प्राप्ति हेतु चलो चलो कहते हैं, मुक्ति की और अग्रसर होते हैं, लेकिन माया और नारी इसमें बाधा हैं। माया और नारी दो ऐसी दुर्गम घाटियां हैं जिनको पार करके ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। नारी और माया के साथ इस्वर की प्राप्ति संभव नहीं हैं।
छोटी मोटी कामिनि, सब ही बिष की बेल
बैरी मारे दाव से, येह मारै हंसि खेल।
बैरी मारे दाव से, येह मारै हंसि खेल।
नारी चाहे कमजोर हो या फिर बलवान दोनों ही विष की बेल हैं। दुश्मन दाव से मारता है जबकि नारी हंस खेल कर ही व्यक्ति को समाप्त कर देती है।
कामिनि काली नागिनि, तीनो लोक मंझार
राम सनेही उबरै, विषयी खाये झार।
राम सनेही उबरै, विषयी खाये झार।
स्त्री काली नागिनी की तरह से होती है जो तीनो लोकों में रहती हैं। राम भक्त ही इससे बच सकते हैं और लोगों को ये विष से मार देती हैं।
कपास बिनुथा कापड़ा, कादे सुरंग ना पाये
कबीर त्यागो ज्ञान करि, कनक कामिनि दोये।
कबीर त्यागो ज्ञान करि, कनक कामिनि दोये।
गंदे कपास से कपडे को रंगा नहीं जा सकता है, ईश्वर की प्राप्ति के लिए माया और स्त्री का त्याग आवशयक है।
कबीर मन मिरतक भया, इंद्री अपने हाथ
तो भी कबहु ना किजिये, कनक कामिनि साथ।
तो भी कबहु ना किजिये, कनक कामिनि साथ।
यदि किसी का मन उसके वश में है, इन्द्रियों पर उसका नियंत्रण है तभ भी उसको माया और स्त्री का साथ नहीं करना चाहिए। माया और स्त्री किसी को भी अपने वश में करके ईश्वर की भक्ति मार्ग से विचलित कर सकते हैं।
कबीर नारी की प्रीति से, केटे गये गरंत
केटे और जाहिंगे, नरक हसंत हसंत।
नारी के संग से अनेक लोग नरक में पहुंच चुके हैं और नारी संगती करने वाले कई और लोग भी हँसते हँसते नरक के भागी होंगे।
पर नारी पैनी छुरी, मति कौई करो प्रसंग
रावन के दश शीश गये, पर नारी के संग।
रावन के दश शीश गये, पर नारी के संग।
पर नारी का संग नहीं करना चाहिए। पर नारी पैनी छुरी की तरह से होती है, पर नारी के संग करने से रावण के दस सर भी चले गए, रावण का अंत हो गया।
परनारी पैनी छुरी, बिरला बंचै कोये
ना वह पेट संचारिये, जो सोना की होये।
ना वह पेट संचारिये, जो सोना की होये।
पर नारी पैनी छुरी की तरह से होती है, उसके वार से कोई विरला ही बच पाता है। पर नारी को हृदय में स्थान नहीं देना चाहिए क्योंकि वह कभी भी घात कर सकती है। वो कितनी भी सुन्दर या सोने की ही क्यों ना हो उससे दूर ही रहना चाहिए।
नारी निरखि ना देखिये, निरखि ना कीजिये दौर
देखत ही ते बिस चढ़ै, मन आये कछु और।
देखत ही ते बिस चढ़ै, मन आये कछु और।
नारी को गौर से कभी मत देखो और ना ही उसके पीछे दौड़ो, उसका संग मत करो, क्यों की नारी को देखते ही मन में अनेकों प्रकार के विषय विकार आने लगते हैं और व्यक्ति अपने मार्ग से विचलित हो जाता है।
कामिनि सुन्दर सर्पिनी, जो छेरै तिहि खाये
जो हरि चरनन राखिया, तिनके निकट ना जाये।
जो हरि चरनन राखिया, तिनके निकट ना जाये।
नारी के सुन्दर सर्पिणी की तरह से होती है, उसे छेड़ने, उसका संग करने से, वह काट खाती है। इस व्यक्ति ने अपना स्थान हरी चरण में रखा है उसके निकट वो सर्पिणी नजदीक नहीं जाती है।
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नारी काली उजली, नेक बिमासी जोये
सभी डरे फंद मे, नीच लिये सब कोये।
सभी डरे फंद मे, नीच लिये सब कोये।
नारी कैसी भी हो कालीया सुन्दर वो हमेशा वासना के फंदे में पुरुष को बाँध देती है। समझदार व्यक्ति वासना के इस फंदे से दूर रहता है और नीच पुरुष हमेशा नारी को साथ रखता है।