कबीर के दोहे दोहावली कबीर दोहे

कबीर के दोहे दोहावली कबीर दास के दोहे

 

राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥

कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥

कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥

लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥

बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥

यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥

अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥

इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥

अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥

जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥

कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥
 


राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप।
बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप॥

अर्थ: जो व्यक्ति अपने प्रिय राम को छोड़कर अन्य किसी का जाप करता है, वह उस वेश्या के पुत्र के समान है जिसे अपने पिता का पता नहीं होता।

कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव।
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिसने प्रेम का अनुभव नहीं किया, वह ऐसे है जैसे सूने घर में अतिथि, जो जैसे आया था, वैसे ही चला जाता है।

कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ।
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि राम को प्रसन्न करने के लिए उनके अमृतमय गुणों का गायन करो। जैसे फूटा हुआ नग (रत्न) नहीं जुड़ता, वैसे ही टूटा हुआ मन भी नहीं जुड़ता।

लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार॥

अर्थ: मार्ग लंबा है, मंजिल दूर है, रास्ता कठिन है और बाधाएँ अनेक हैं। हे संतों, बताओ, इस दुर्लभ हरि के दर्शन कैसे प्राप्त हों?

बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ॥

अर्थ: विरह रूपी सर्प शरीर में बसता है, कोई मंत्र काम नहीं करता। राम के वियोगी जीवित नहीं रहते, यदि जीवित रहते हैं तो पागल हो जाते हैं।

यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं।
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं॥

अर्थ: इस शरीर को जलाकर राख कर दूँ, उस राख से स्याही बनाऊँ, राम का नाम लिखूँ। लेखनी करूँ करंक (हड्डी) की, और लिख-लिखकर राम को भेजूँ।

अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां।
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां॥

अर्थ: चिंता कभी नहीं भागती, हमेशा बनी रहती है। या तो हरि के आने पर भागेगी, या हरि के पास जाने पर।

इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं।
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं॥

अर्थ: इस शरीर का दीपक बनाऊँ, जीव को बाती बनाऊँ। रक्त को तेल की तरह सींचूँ, ताकि कब राम का मुख देख सकूँ।

अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि॥

अर्थ: आँखों में राह देखते-देखते धुंधलापन आ गया, जीभ पर राम को पुकारते-पुकारते छाले पड़ गए।

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त॥

अर्थ: सभी नस-नाड़ियाँ इस शरीर में रबाब (संगीत वाद्य) की तरह हैं, जो विरह में नित्य बजती हैं। इसे कोई और नहीं सुन सकता, केवल साईं (ईश्वर) का चित्त ही सुन सकता है।

जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ।
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ॥

अर्थ: यदि रोऊँ तो बल घटता है, हँसू तो राम नाराज होते हैं। इसलिए मन में ही बिसूरना (विचार करना) चाहिए, जैसे घुन लकड़ी को अंदर ही अंदर खाता है।

कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त।
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि हँसी को दूर करो, और रोने में चित्त लगाओ। बिना रोए (विरह वेदना के) प्रेमी प्रियतम (ईश्वर) को कैसे पाया जा सकता है?

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Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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