कबीर के दोहे जानिये सरल हिंदी अर्थ के साथ
संत कबीर दास 15वीं शताब्दी के एक महान भारतीय कवि और संत थे, जिन्होंने अपने दोहों के माध्यम से समाज को गहन जीवन दर्शन और नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी। उनकी रचनाएँ सरल भाषा में होते हुए भी गहरी अर्थवत्ता रखती हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर के दोहे मानवता, प्रेम, भक्ति और सामाजिक समरसता का संदेश देते हैं, जो जीवन में सही मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। उनकी शिक्षाएँ हमें आत्मचिंतन, सच्चाई और ईश्वर के प्रति समर्पण की प्रेरणा देती हैं।
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो सम्हार ॥
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय॥अर्थ: भक्ति एक गेंद के समान है, जिसे कोई भी खेल सकता है। कबीर कहते हैं कि इसमें राजा और रंक (गरीब) में कोई भेद नहीं है; जो चाहे, भक्ति कर सकता है।
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार॥अर्थ: अपने मन (घट) का पर्दा हटाकर, ईश्वर का साक्षात्कार करो। वह बालकों से प्रेम करने वाला है और अंत समय में सच्चा साथी बनकर आता है।
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार॥अर्थ: हे ईश्वर, तुम ही अंतर्यामी और आत्मा के आधार हो। यदि तुम हमारा हाथ छोड़ दोगे, तो हमें पार कौन लगाएगा?
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो सम्हार॥अर्थ: मैं जन्म से ही पापी हूँ, सिर से पाँव तक दोषों से भरा हूँ। हे दु:खहरण दाता, कृपया मेरी रक्षा करो।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय॥अर्थ: प्रेम न तो खेतों में उगता है, न ही बाजार में बिकता है। राजा या प्रजा, जो भी इसे पाना चाहे, उसे अपना सिर (अहंकार) देकर ही प्राप्त कर सकता है।
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय॥अर्थ: जो प्रेम का प्याला पीना चाहता है, उसे अपने सिर (अहंकार) की बलि देनी होगी। लोभी व्यक्ति अपना सिर नहीं दे सकता, वह केवल प्रेम का नाम लेता है।
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग॥अर्थ: मन को सुमिरन (स्मरण) में ऐसे लगाओ, जैसे हिरण मधुर संगीत में मग्न रहता है। कबीर कहते हैं, ऐसा करने से ईश्वर का स्मरण मृत्यु के समय भी नहीं छूटेगा।
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल॥अर्थ: मन में ईश्वर का स्मरण करते हुए, मौन रहो। बाहरी इंद्रियों को बंद करके, आंतरिक ज्ञान के द्वार खोलो।
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार॥अर्थ: सत्यनाम दूध के समान है, संसारिक व्यवहार पानी के समान। सच्चा साधु हंस के समान है, जो दूध और पानी को अलग कर सकता है।
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग॥अर्थ: जैसे तिल में तेल और चकमक पत्थर में आग होती है, वैसे ही ईश्वर तेरे भीतर है। यदि जाग सके तो जाग, उसे अपने अंदर ही पा।
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं॥अर्थ: जिस ईश्वर को संसार में खोजता है, वह तेरे मन (घट) में ही है। भ्रम का पर्दा होने के कारण तू उसे देख नहीं पाता।
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास॥अर्थ: जैसे ही हृदय में ईश्वर का नाम बसता है, पाप नष्ट हो जाते हैं। यह ऐसे है जैसे आग की चिंगारी पुरानी घास को जलाकर राख कर देती है।
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ॥
कलियुग में समय बिगड़ गया है, सज्जन लोग मिलना कठिन हो गया है। लालची और धूर्त लोग सम्मान पा रहे हैं।
सच्चे संतों की कद्र नहीं रही।
कलि का स्वामी लोभिया, मनसा घरी बधाई।
दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई॥
कलियुग का स्वामी लोभी है, मन में इच्छाओं का अंबार है। वह ब्याज पर पैसा देता है और हिसाब-किताब में लगा रहता है। धन संचय ही उसका मुख्य उद्देश्य है।
कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की, उतर या चाहे पार॥
कबीर कहते हैं, मैंने संसार को कई बार समझाया है। जो भेड़ की पूंछ पकड़कर नदी पार करना चाहता है, वह डूब जाएगा। अर्थात, अज्ञानता से मुक्ति संभव नहीं।
तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ।
रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ॥
लोग तीर्थ यात्रा करते-करते मर गए, केवल पानी में स्नान करते रहे। राम का सच्चा जाप नहीं किया, इसलिए मृत्यु उन्हें घसीट ले गई।
बाहरी आडंबर से मोक्ष नहीं मिलता।
चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि।
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं॥
तोते ने चतुराई की बातें सीखी हैं, फिर भी पिंजरे में बंद है। दूसरों को उपदेश देता है, पर स्वयं नहीं समझता।
अर्थात, ज्ञान बिना आचरण के व्यर्थ है।
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम॥
कबीर कहते हैं, मन अभिमान से भरा है, सोचता है मैं सब कर सकता हूँ। करोड़ों कर्मों का बोझ सिर पर लादे चलता है, पर भ्रम को नहीं देखता।
अहंकार में डूबा मन सत्य से दूर रहता है।
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