कबीर के दोहे जानिये सरल भावार्थ सहित

कबीर के दोहे जानिये सरल भावार्थ सहित

 
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर । तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥
आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥
 
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर॥

जब तक सूर्य नहीं उगता, तब तक तारे चमकते हैं। उसी प्रकार, जब तक आत्मा में ज्ञान का प्रकाश नहीं होता, तब तक जीव कर्मों के बंधन में बंधा रहता है।

आस पराई राखत, खाया घर का खेत।
औरन को उपदेशता, मुख में पड़त रेत॥

जो व्यक्ति दूसरों की आशा रखता है और अपने संसाधनों का उपभोग करता है, वह दूसरों को उपदेश देता है, लेकिन स्वयं के मुख में रेत भर लेता है। अर्थात, वह स्वयं अपने उपदेशों का पालन नहीं करता।

सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार॥

सोना, सज्जन और साधुजन यदि सौ बार भी टूट जाएं, तो भी वे पुनः जुड़ सकते हैं। लेकिन दुष्ट व्यक्ति कुम्हार के घड़े के समान होता है, जो एक ही धक्के में दरार खा जाता है और फिर नहीं जुड़ता।
 
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरुगुन लिखा न जाय॥

यदि मैं पूरी पृथ्वी को कागज बना लूँ, सभी वनों को लेखनी (कलम) और सातों समुद्रों को स्याही, तब भी गुरु के गुणों का लेखन संभव नहीं है। गुरु की महिमा अनंत है।

बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव॥

दूध धन्य है, जिससे घी प्राप्त होता है। उसी प्रकार, कबीर की साखी (उपदेश) घी के समान सारगर्भित है, जो चारों वेदों का सार प्रस्तुत करती है।

आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय॥

यदि समुद्र में आग लग जाए, तो उसका धुआँ प्रकट नहीं होता। उसी प्रकार, जिस व्यक्ति के हृदय में प्रेम या भक्ति की आग लगी हो, उसकी तीव्रता वही जान सकता है, अन्य लोग नहीं।

साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय।
आगे-पीछे हरि खड़े, जब भोगे तब देय॥

साधु (संत) अपने लिए संचय नहीं करता; वह उतना ही ग्रहण करता है, जितना उदर में समा सके। उसके आगे-पीछे हरि (ईश्वर) सदैव उपस्थित रहते हैं, और जब भी आवश्यकता होती है, वे प्रदान करते हैं।

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार॥

हृदय का परदा हटाकर, प्रभु का साक्षात्कार करो। वह प्रभु बाल सखा के समान स्नेही है और अंत समय में सच्चा साथी बनकर आता है।

कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय॥

कबीर कहते हैं, केवल सृजनहार (ईश्वर) ही जागृत है, अन्य कोई नहीं। जिनके मन में विषय-वासना का विष भरा है, वे दास (भक्त) बनकर ईश्वर की भक्ति करें, तभी मुक्ति संभव है।

ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय।
सौरन कलश सुरा भरी, साधु निन्दा सोय॥

यदि कोई उच्च कुल में जन्म ले, परंतु उसके कर्म ऊँचे न हों, तो वह व्यर्थ है। जैसे स्वर्ण कलश में मदिरा भरी हो, तो साधु (सज्जन) उसकी निंदा ही करेंगे।

इन दोहों के माध्यम से कबीरदास जी ने गुरु की महिमा, भक्ति, सच्चे ज्ञान, और सद्गुणों के महत्व को सरल भाषा में समझाया है।
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