कबीर के दोहे सरल हिंदी भावार्थ सहित
कबीर के दोहे सरल हिंदी भावार्थ सहित
कबीरदास जी के दोहे सरल भाषा में गहरी जीवन शिक्षाएँ प्रदान करते हैं। उनकी रचनाएँ मानवता, प्रेम, और नैतिक मूल्यों पर जोर देती हैं। कबीर के दोहों में जीवन की सच्चाइयों को सरल शब्दों में प्रस्तुत किया गया है, जो आज भी प्रासंगिक हैं। उनकी वाणी समाज को सही मार्ग दिखाने में सहायक है।
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥
जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥
जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥
जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥
जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥
जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥
जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव॥
जब तक भक्ति में स्वार्थ जुड़ा है, तब तक सेवा निष्फल है। कबीर कहते हैं, नि:स्वार्थ भक्ति से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल हैं, बाँकू है तिरशूल॥
यदि कोई तुम्हारे लिए कांटे बोता है, तो तुम उसके लिए फूल बोओ। तुम्हें फूल मिलेंगे, जबकि उसे अपने कर्मों का फल तिरशूल के रूप में मिलेगा।
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान॥
जिस हृदय में प्रेम नहीं है, वह मृत समान है। जैसे लोहार की धौंकनी सांस लेती है, पर उसमें जीवन नहीं होता।
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि॥
जैसे आंखों में पुतली होती है, वैसे ही ईश्वर हमारे भीतर हैं। मूर्ख लोग इसे नहीं जानते और बाहर खोजते हैं।
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥
साधु की जाति मत पूछो, उसका ज्ञान जानो। तलवार का मूल्यांकन करो, म्यान का नहीं।
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास॥
यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो सभी इच्छाओं का त्याग करो। मुक्त व्यक्ति की तरह बनो, सब कुछ तुम्हारे पास होगा।
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग॥
जैसे तिल में तेल और चकमक में आग होती है, वैसे ही ईश्वर तुम्हारे भीतर हैं। यदि जाग सको तो जागो।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥
माला फेरते युग बीत गए, पर मन नहीं बदला। हाथ की माला छोड़कर, मन की माला फेरो।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥
जब मैं दूसरों में बुराई खोजने चला, तो कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने दिल को टटोला, तो मुझसे बुरा कोई नहीं।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय॥
साधु ऐसा होना चाहिए, जो सूप की तरह सार को रखे और निरर्थक को उड़ा दे।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव॥
जब तक भक्ति में स्वार्थ जुड़ा है, तब तक सेवा निष्फल है। कबीर कहते हैं, नि:स्वार्थ भक्ति से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल हैं, बाँकू है तिरशूल॥
यदि कोई तुम्हारे लिए कांटे बोता है, तो तुम उसके लिए फूल बोओ। तुम्हें फूल मिलेंगे, जबकि उसे अपने कर्मों का फल तिरशूल के रूप में मिलेगा।
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान॥
जिस हृदय में प्रेम नहीं है, वह मृत समान है। जैसे लोहार की धौंकनी सांस लेती है, पर उसमें जीवन नहीं होता।
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि॥
जैसे आंखों में पुतली होती है, वैसे ही ईश्वर हमारे भीतर हैं। मूर्ख लोग इसे नहीं जानते और बाहर खोजते हैं।
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥
साधु की जाति मत पूछो, उसका ज्ञान जानो। तलवार का मूल्यांकन करो, म्यान का नहीं।
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास॥
यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो सभी इच्छाओं का त्याग करो। मुक्त व्यक्ति की तरह बनो, सब कुछ तुम्हारे पास होगा।
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग॥
जैसे तिल में तेल और चकमक में आग होती है, वैसे ही ईश्वर तुम्हारे भीतर हैं। यदि जाग सको तो जागो।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥
माला फेरते युग बीत गए, पर मन नहीं बदला। हाथ की माला छोड़कर, मन की माला फेरो।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥
जब मैं दूसरों में बुराई खोजने चला, तो कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने दिल को टटोला, तो मुझसे बुरा कोई नहीं।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय॥
साधु ऐसा होना चाहिए, जो सूप की तरह सार को रखे और निरर्थक को उड़ा दे।
