मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई॥
जाके सिर है मोरपखा मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥
छांड़ि दई कुलकी कानि कहा करिहै कोई॥
संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई॥
चुनरीके किये टूक ओढ़ लीन्हीं लोई।
मोती मूंगे उतार बनमाला पोई॥
अंसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम-बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणंद फल होई॥
दूध की मथनियां बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई॥
भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही॥
जाके सिर है मोरपखा मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥
छांड़ि दई कुलकी कानि कहा करिहै कोई॥
संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई॥
चुनरीके किये टूक ओढ़ लीन्हीं लोई।
मोती मूंगे उतार बनमाला पोई॥
अंसुवन जल सींचि-सींचि प्रेम-बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणंद फल होई॥
दूध की मथनियां बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई॥
भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही॥
मीराबाई के इस भजन में उनकी श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति और समर्पण का भाव प्रकट होता है। वे अपने आराध्य गिरधर गोपाल (श्रीकृष्ण) को ही अपना सर्वस्व मानती हैं और संसार के अन्य सभी संबंधों को त्याग चुकी हैं। उनकी भक्ति इतनी गहन है कि उन्होंने सामाजिक बंधनों और लोकलाज की परवाह किए बिना, संतों की संगति में रहकर अपने प्रेम को प्रगाढ़ किया है।
अर्थ:
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
मेरे लिए तो केवल गिरधर गोपाल (श्रीकृष्ण) ही सब कुछ हैं; उनके अलावा मेरा कोई नहीं है।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।
जिसके सिर पर मोर मुकुट है (श्रीकृष्ण), वही मेरे पति हैं।
तात मात भ्रात बंधु, आपणो न कोई।
पिता, माता, भाई, बंधु—इनमें से अब मेरा कोई नहीं है।
छाड़ देइ कुल की कानि, कहा करिहै कोई।
मैंने कुल की मर्यादा छोड़ दी है; अब कोई क्या करेगा?
संतन ढिग बैठ-बैठ, लोक लाज खोई।
संतों के साथ बैठते-बैठते, मैंने लोकलाज (सामाजिक मान-अपमान) की चिंता छोड़ दी है।
अंसुवन जल सींच-सींच, प्रेम बेल बोई।
अपने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर, मैंने प्रेम की बेल बोई है।
अब तो बेल फैल गई, आनंद फल होई।
अब वह बेल फैल गई है और उस पर आनंद के फल लग गए हैं।
चुनरी के किये टूक, ओढ़ लीन्हीं लोई।
मैंने अपनी चुनरी के टुकड़े करके, साधारण वस्त्र धारण कर लिए हैं।
मोती मूंगे उतार, बनमाला पोई।
मोती और मूंगे के आभूषण उतारकर, वनमाला (फूलों की माला) पहन ली है।
दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब मोही।
दासी मीरा अपने प्रिय गिरधर से प्रार्थना करती है: अब मुझे तार दो (उद्धार करो)।
इस भजन में मीराबाई ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम, समर्पण और सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर भक्ति की पराकाष्ठा को व्यक्त किया है। उनकी यह भक्ति हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम और समर्पण किसी भी बाधा को पार कर सकता है और आत्मिक आनंद की प्राप्ति करा सकता है।
अर्थ:
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
मेरे लिए तो केवल गिरधर गोपाल (श्रीकृष्ण) ही सब कुछ हैं; उनके अलावा मेरा कोई नहीं है।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।
जिसके सिर पर मोर मुकुट है (श्रीकृष्ण), वही मेरे पति हैं।
तात मात भ्रात बंधु, आपणो न कोई।
पिता, माता, भाई, बंधु—इनमें से अब मेरा कोई नहीं है।
छाड़ देइ कुल की कानि, कहा करिहै कोई।
मैंने कुल की मर्यादा छोड़ दी है; अब कोई क्या करेगा?
संतन ढिग बैठ-बैठ, लोक लाज खोई।
संतों के साथ बैठते-बैठते, मैंने लोकलाज (सामाजिक मान-अपमान) की चिंता छोड़ दी है।
अंसुवन जल सींच-सींच, प्रेम बेल बोई।
अपने आँसुओं के जल से सींच-सींचकर, मैंने प्रेम की बेल बोई है।
अब तो बेल फैल गई, आनंद फल होई।
अब वह बेल फैल गई है और उस पर आनंद के फल लग गए हैं।
चुनरी के किये टूक, ओढ़ लीन्हीं लोई।
मैंने अपनी चुनरी के टुकड़े करके, साधारण वस्त्र धारण कर लिए हैं।
मोती मूंगे उतार, बनमाला पोई।
मोती और मूंगे के आभूषण उतारकर, वनमाला (फूलों की माला) पहन ली है।
दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब मोही।
दासी मीरा अपने प्रिय गिरधर से प्रार्थना करती है: अब मुझे तार दो (उद्धार करो)।
इस भजन में मीराबाई ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम, समर्पण और सामाजिक बंधनों से मुक्त होकर भक्ति की पराकाष्ठा को व्यक्त किया है। उनकी यह भक्ति हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम और समर्पण किसी भी बाधा को पार कर सकता है और आत्मिक आनंद की प्राप्ति करा सकता है।
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