ये कबीर का साहस ही था की तात्कालिक धर्म की धुरी काशी में हिन्दुओं के पाखंड और पोंगा पंडितवाद को ललकारते हुए उन्होंने कहा "साधौ, पांडे निपुन कसाई" . कबीर ने बड़ी ही सहजता से हर उस प्रचलित मान्यता और पाखंड का विरोध किया जो मानवता विरोधी थी। अस्वीकार का साहस तो मानो हरदम कबीर की जबान पर था। कारण स्पष्ट है, बचपन से ही कबीर दास को जीवन के जहर का घूँट पीने को मिला। उन्होंने भेदभाव देखा , झेला और वे स्वंय इसके शिकार भी बने। उन्होंने जातीय भेदभाव देखा, कर्मकांड और पाखंड देखा और उन्होंने तय कर लिया की इन्हे ही समाप्त करना है और उन्होंने अपना स्वर मुखर किया। शाश्त्र सम्मत मार्ग को छोड़ कर उन्होंने मानवतावादी रास्ता चुना। "वेद कुरान सब झूठ है, हमने इसमें पोल देखा। अनुभव की बात कहे कबीर। घट का परदा खोल देखा" । कबीर का मानना था की ऐसे शाश्त्र किस काम के जिनको पढ़ने के बावजूद भी लोगों से बैरभाव हो, भेदभाव हो ?
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय |
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ||
Pothee Padhi Padhi Jag Mua, Pandit Bhaya Na Koy |
Dhaee Aakhar Prem Ka, Padhe So Pandit Hoy ||
पंडित तो वही है जिसका हृदय प्रेम से भरा हो। धर्म तो मानव से मानव का प्रेम सिखाता है। ऐसा धर्म किस काम का जो समाज को ही बाँट दे। वस्तुतः कबीर के समय जातिगत और जाती विशेष में मात्र जन्म लेने से ही व्यक्ति श्रेठ माना जाता था जिसका कबीर ने खंडन किया। कबीर के अनुसार यदि आचरण अच्छा हो, मानवीय मूल्य हों तो कोई भी जात का व्यक्ति श्रेष्ठ हो सकता है उसे किसी जाती विशेष में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं है। कबीर के इन क्रांतिकारी विचारों ने आम जन मानस को झकझोर के रख दिया। उन्हें सत्य का ज्ञान होने लगा और लोग कबीर को संत मानकर उनके विचारों का अनुसरण करने लगे। कबीर ने सभी को समान बताया और कहा की सबका ईश्वर एक है, उत्पत्ति का माध्यम एक है, एक त्वचा एक हाड मॉस एक रुधिर एक गुदा। ...
एकै त्वचा हाड़ मूल मूत्रा, एक रुधिर एक गूदा।
एक बूंद से सृष्टि रची है, को ब्राह्मण को शुद्रा।।
साधौ, पांडे निपुन कसाई।
चरण – बकरी मारि भेड़ी को धावै, दिल मे दरद न आई।
करि असनान तिलक दै बैठे, विधि सो देवि पुजाई।
आतम मारि पलक मेूं बिनसे, रुधिर की नदी बहाई।।
अति पुनित ऊंचे कुल कहिये, करम करावै नीचा।
इनसे दिच्छा सब कोई मांगे, हंसि आवे मोहि भाई।।
पाप-कपट की कथा सुनावै, करम करावै नीचा।
बुड़त दो परस्पर दीखे, गहे बांहि जम खींचा।।
गाय वधै सो तुरुक कहावै, यह क्या इनसे छोटे।
कहै कबीर सुणो भाई साधो, कलि में ब्राह्मण खोटे।
Ekai Tvacha Haad Mool Mootra, Ek Rudhir Ek Gooda.
Ek Boond Se Srshti Rachee Hai, Ko Braahman Ko Shudra..
Saadhau, Paande Nipun Kasaee.
Charan – Bakaree Maari Bhedee Ko Dhaavai, Dil Me Darad Na Aaee.
Kari Asanaan Tilak Dai Baithe, Vidhi So Devi Pujaee.
Aatam Maari Palak Meoon Binase, Rudhir Kee Nadee Bahaee..
Ati Punit Oonche Kul Kahiye, Karam Karaavai Neecha.
Inase Dichchha Sab Koee Maange, Hansi Aave Mohi Bhaee..
Paap-kapat Kee Katha Sunaavai, Karam Karaavai Neecha.
Budat Do Paraspar Deekhe, Gahe Baanhi Jam Kheencha..
Gaay Vadhai So Turuk Kahaavai, Yah Kya Inase Chhote.
Kahai Kabeer Suno Bhaee Saadho, Kali Mein Braahman Khote.
हिन्दू धर्म के कर्मकांड का विरोध करते हुए कबीर ने कहा की तिलक लगाकर संतों के वेश धारण करने का कोई फायदा नहीं। वैष्णव जाती में जन्म लेने से श्रेष्ठता सिद्ध नहीं हो जाती। अगर विवेक नहीं है तो सब व्यर्थ है।
वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक।
छाया तिलक बनाय कर दराधिया लोक अनेक।।
मुसलमानों को भी कबीर ने आड़े हाथों लिया। कबीर ने हर उस पाखंड का विरोध किया जो मानवतावाद के विरोध में थी। "काजी काज करहु तुम कैसा, घर- घर जब हकरा बहु बैठा। बकरी मुरगी किंह फरमाया, किसके कहे तुम छुरी चलाया।" काजी तुम घर पर किसके हुक्म से छुरी चलाते हो ? तात्कालिक बर्बर मुस्लिम शासन के समय ऐसी साफगोई निर्भीकता की हद है। कबीर को दरअसल डर लगता ही नहीं था। कारण स्पष्ट है जिसकी माँ ने उसे लोक लिहाज और इज्जत के मारे मरने के लिए छोड़ दिया हो, जिसने दलित होने का दंश झेला हो, उच्च नीच के कारन लोगों से घृणा मिली हो उसके व्यक्तित्व में फक्कड़पन और विद्रोह आना स्वाभाविक है। कबीर व्यावहारिक थे और आम जन की पीड़ा को समझते थे। उन्होंने लिखा की दिन में तो रोजे रखते हो और रात को गाय काट कर खाते हो ये कहाँ की भक्ति है ? " दिन को रोजा रहत है, रात हनत हो गाय, मेहि खून, वह वंदगी, क्योंकर खुशी खुदाय " लोग निरुत्तर हो जाते थे क्यों की कबीर के तर्क अकाट्य थे। कबीर वो कहते थे जो देखते थे अनुभव करते थे "मै कहता हूँ आखिन देखी तु कागज की लेखि रे "
कंकड़ पत्थर जोड़ के, मस्जिद लए बनाय
ता चढ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय
कहु रे मुल्ला बाँग निवाजा। एक मसीति दसौं दरवाजा।
मनु करि मका किबला करि देही। बोलन हाऊ परम गुरु एही।
विसिमिल तामसु भरमु कंदूरी। भखि लै पंचै होइ सबूरी।।
कहाँ से लाये कबीर इतना साहस, तक़रीबन छः सौ साल पहले जब आज के मुकाबले किसी के भी धर्म, मान्यताओं को ललकारना कोई सरल बात नहीं थी ? आज अगर कबीर होते तो निश्चित ही किसी जेल में होते। कल्पना कीजिये कैसे उन्होंने धर्म के ठेकेदारों से लोहा लिया होगा। निश्चय ही बहुत ही साहस के बात है और एक घर परिवार की चिंता करने वाले आम आदमी के बस की बात तो कतई नहीं है। एक किस्सा है जब मुल्ला मौलवियों और धर्म के ठेकेदारों को इस बात का पता चला की एक जुलाहा उनके धर्म पर उंगली उठा रहा है तो उन्होंने इसकी शिकायत तात्कालिक शासक सिकंदर लोधी से की। हिन्दू धर्म के पंडितों ने भी अपनी व्यथा व्यक्त की "कबीर तीरथ, देवी देवताओं की निंदा करता है।
निंदे तीरथ,
निंदे वेदू (वेद),
निंदे नवग्रह,
निंदे सूरज,चंदू (चाँद),
निंदे सारद(सरस्वती),
निंदे गणपती राया।
निंदे माला,
निंदे तिलक,
निंदे जनेऊ।
निंदे ग्यारस,
निंदे होम,
निंदे श्राध्य।
निंदे बामण(ब्राह्मण) जग आराध्य।
निंदे सकल धरम(धर्म) की आशा,
निंदे शटदर्शन और बारह माँसा।
ये सब झुठा कहे कबीरा
कबीर, मांस अहारी मानई, प्रत्यक्ष राक्षस जानि
ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि
कबीर, मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत
ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत
कबीर, मांस मांस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय
जो कोई यह खात है, ते नर नरकहिं जाय
कबीर, जीव हनै हिंसा करै, प्रगट पाप सिर होय
निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्त गया नहिंकोय
कबीर, तिलभर मछली खायके, कोटि गऊ दै दान
काशी करौत ले मरै, तौ भी नरक निदान
कबीर, बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल
जो बकरीको खात है, तिनका कौन हवाल
कबीर, अंडा किन बिसमिल किया, घुन किन किया हलाल
मछली किन जबह करी, सब खानेका ख्याल
कबीर, मुला तुझै करीम का, कब आया फरमान
घट फोरा घर घर दिया, साहब का नीसान
कबीर, काजी का बेटा मुआ, उरमैं सालै पीर
वह साहब सबका पिता, भला न मानै बीर।
कबीर, पीर सबनको एकसी, मूरख जानैं नाहिं
अपना गला कटायकै, भिश्त बसै क्यों नाहिं
कबीर, जोरी करि जबह करै, मुखसों कहै हलाल
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल
कबीर, जोर कीयां जुलूम है, मागै ज्वाब खुदाय
खालिक दर खूनी खडा, मार मुही मुँह खाय
कबीर, गला काटि कलमा भरै, कीया कहै हलाल
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल
कबीर, गला गुसाकों काटिये, मियां कहरकौ मार
जो पांचू बिस्मिल करै, तब पावै दीदार
कबीर, कबिरा सोई पीर हैं, जो जानै पर पीर
जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर
कबीर, कहता हूं कहि जात हूं, कहा जो मान हमार
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटै तुम्हार
कबीर, हिन्दू के दाया नहीं, मिहर तुरकके नाहिं
कहै कबीर दोनूं गया, लख चैरासी मांहि
कबीर, मुसलमान मारै करद सों, हिंदू मारे तरवार
कह कबीर दोनूं मिलि, जावैं यमके द्वार।
कबीर, पानी पथ्वी के हते, धूंआं सुनि के जीव
हुक्के में हिंसा घनी, क्योंकर पावै पीव
कबीर, छाजन भोजन हक्क है, और दोजख देइ
आपन दोजख जात है, और दोजख देइ
जब सिकंदर लोधी ने कबीर को अपने दरबार में बुलाया तो कबीर समय पर नहीं पहुंचे। बुलाया सुबह और पहुंचे शाम को। बादशाह के दरबार में जाने के लिए कबीर ने तुलसी की माला, चन्दन का टीका और पगड़ी बाँध कर रवाना हुए। कहते हैं हजारों लोग भी उनके पीछे हो लिए। कबीर ने लोधी का अभिनन्दन करने से मना कर दिया। असंख्य यातनाये सही। लेकिन अपनी बात पर कायम रहे "मेरा मालिक तो राम है " यहाँ उल्लेखनीय है की राम शब्द का प्रयोग निर्गुण राम के लिए किया गया है। लोधी ने कबीर पर खूब जुल्म ढाये लेकिन वो अपने मंसूबो में कामयाब ना हो सका। कहते हैं कबीर ने अपने तकों से सिकंदर को निरुत्तर कर दिया और आखिर कबीर को छोड़ना पड़ा।
कबीर ने रामानंद के बारे में सुना और उन्हें अपना गुरु बनाने की ठान ली कबीर जब रामानंद से मिलने गए तो रामानंद ने कबीर को अपने सानिध्य में लेने से मना कर दिया और कहा की तुम तो जुलाहे हो और जुलाहे का ही काम करो। कबीर ने रामानंद से एक सवाल किया "क्या राम मेरा नहीं है ? ... राम तो सबका है " कबीर ने रामानंद को अपना गुरु बनाना तय कर लिया था और तड़के सुबह पचगंगा घाट की सीढ़ियों में लेट गए। अँधेरे के कारन रामानंद की खड़ाऊ सोये हुए कबीर को लग गयी। रामानंद ने कबीर की तीर्व इच्छा को देखते हुए कबीर को अपना शिष्य बना लिया और कहा की राम तो सबका है।
कबीर ने प्रचलित मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए निर्गुण भक्ति की और लोगों को अग्रसर किया और सन्देश दिया की ईश्वर सबका है, उसे किसी एजेंट या मध्यस्त की आवश्यकता हैं। कबीर ने कहा की जिस पत्थर की मूर्ति की तुम पूजा करते हो उससे तो भली पत्थर की चाकी है जो उपयोगी तो है। परंपरागत हिंदु वर्ग को इस प्रकार चुनौती देना कबीर की निर्भीकता का प्रमाण है।
पाथर पूजै हरी मिलै, तो मैं पूजूँ पहार ।
ताते तो चक्की भली, पीसि खाय संसार
कबीर लोक चिंतक, समाज सुधारक, संत और युग पुरुष थे और स्वर पूर्णतयः विद्रोही। उनका मूल उद्देश्य कोई पंत चलाना नहीं था वे तो इसके विरोध में थे। "सिहों के लेहँड़ नहीं, हंसों की नहीं पाँत । लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलैं जमात" शेर कभी झुण्ड में नहीं चलता है हंस किसी कतार में नहीं उड़ते हैं रत्न और लाल की बोरियां नहीं होती और साधु वही है जो किसी जमात में नहीं चलता। वस्तुतः कबीर तो साधारण मनुष्य को सामाजिक बेड़ियों से मुक्त करवाना चाहते थे। वे उसके मन को जगाना चाहते थे और उसे भोगविलास और आडम्बरों से मुक्त करके समाज में उसके हक़ के लिए संघर्ष के लिए जगाना चाहते थे। संकीर्णता, मत-मतांतर , असत्य , बाहृयाचार, धार्मिक-कट्टरता, धार्मिक संघर्ष को समाप्त कर दलित वर्ग को समान स्तर पर लाना चाहते थे। कबीर शास्त्र सम्मत धर्म की जगह "मानवतावादी" धर्म की पैरवी करते हैं। उनकी लेखनी में मानों आग थी लेकिन हिंसक नहीं थी। उन्होंने कभी भी हिंसा को धर्म नहीं बताया।
कबीर सब को अपना मानते है। उन्हें किसी व्यक्ति, जाती, सम्प्रदाय से विरोध नहीं थे बल्कि उनमे व्याप्त भेदभाव, पाखंड, भोग विलास और कुरीतियों से उनका विरोध था। वे चाहते थे की सबको सम्मान मिले और मानव होने का स्थान। कबीर का विद्रोह धर्म की खीज नहीं अपितु सामाजिक स्तर पर अन्याय, उत्पीडना का स्वरुप है और इसीलिए आम जन को जोड़ता है। कबीर ने स्वंय को कभी गुरु के रूप में स्थापित नहीं किया और चाहा की विशाल दलित वर्ग को उसका सम्मान मिले। उन्होंने साफ़ कर दिया की बाह्याचार से कोई फायदा होने वाला नहीं है, आत्मा को ईश्वर की भक्ति में लगाना पड़ेगा "मन न रँगाये, रँगाये जोगी कपड़ा"
धार्मिक पाखंड और आडम्बर को हटाने के लिए कबीर ने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को आड़े हाथों लिया। उन्होंने देखा की धर्म के नाम पर मार काट मची है। लोग एक दूसरे के धर्म से घृणा करते हैं जबकि धर्म का उद्देश्य को समता और सबका कल्याण होना चाहिए।
जो खुदाय मसजीद बसतु है, औ मुलुक केहि केरा।
तीरथ-मूरत राम निवासी, बाहर करे को हेरा।
पूरब दिसा कही को बासा, पश्छिम अलह मुकामा।
दिल में खोज दिलहि में खोजौ, इहैं करीमा - रामा।
धर्म के नाम पर सांप्रदायिक संघर्ष को देखकर कबीर ने कहा की हिन्दू कहता है की राम उसका है और मुसलमान कहता है की रहमान उसका है। आपस में दोनों लड़ रहे हैं लेकिन मर्म किसी ने नहीं जाना की ईश्वर तो सबका है उसकी नजर में सब समान हैं।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
कबीर ने स्वर्ग नरक की अवधारणा को ना मानते हुए विचार रखा की संसार कर्म प्रधान है। जो भी है यहीं है ऊपर आकाश में कुछ नहीं। इसलिए जब कबीर का अंतिम समय था तो कबीर ने कहा मुझे काशी में नहीं मरना है। अगर मेरे कर्म ही खराब हैं तो मुझे काशी स्वर्ग नहीं दिला सकती है। और अगर मेरे कर्म अच्छे हैं तो में यदि मगहर में मरता हु तब भी मुझे स्वर्ग मिल ही जायेगा। दरअसल उस समय ये मान्यता थी की काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में नर्क मिलता है और अगले जन्म में व्यक्ति गधा बनता है। कबीर का पूरा जीवन धार्मिक आडम्बरों को तोड़ने में बीता। दलितों के लिए उन्होंने संघर्ष किया। जीवन के अंतिम समय को भी कबीर ने एक उदहारण की तरह से पेश किया और लोगों को शिक्षा दी की कशी में मरने मात्र से स्वर्ग मिलना तय नहीं है।
क्या काशी क्या मगहर ऊसर, जो पैं हृदय राम बसै मोरा।
जो काशी तन तजै कबीरा, तो रामहिं कहु कौन निहोरा?
मसि कागद छूवो नहीं, कलम गत्यो नहीं हाथ।
चारिउ युग का महातम, कबीर मुखहि जनई बात।
तात्कालिक बर्बर मुस्लिम शाशन को ललकारते हुए कबीर ने कहा की एक दिन सबको मृत्यु को स्वीकारना होगा, कोई राजा हो रानी हो या फिर आम जन। कबीर का संकेत था की एक रोज सभी को मृत्यु के बिछौने पर सोना है फिर अनीति क्यों ? भेदभाव क्यों, मानवता ही श्रेष्ठ धर्म है। तात्कालिक राजा किसी यम से कम नहीं थे और उनके कारन प्रजा को कष्टों का सामना करना पड़ रहा था।
इक दिन ऐसा होइगा, सब लोग परै बिछोई।
राजा रानी छत्रपति, सावधान किन होई।।
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढि चले, एक बघें जंजीर
राजा देश बड़ौ परपंची, रैयत रहत उजारी,
इतते उत, उतते इत रहु, यम की सौढ़ सवारी,
घर के खसम बधिक वे राजा,
परजा क्या छोंकौ, विचारा।
(कबीर के समय राजधानी परिवर्तन से आम जन त्रस्त था इस पर कबीर ने राज को यम कहा )
समाज सेत्रस्त हाशिये पर आ चुके लोगों के लिए उनके हृदय में सदा स्थान था। यही कारण था की जहाँ कबीर होते वहां लोग उनकी बात सुनने के लिए पहुंच जाते। वो लोगों को सावधान करते हुए कहते कहते हैं की दुर्बल को नहीं सताना चाहिए। लोहे की धौकनी का चमड़ा निर्जीव होते हुए भी लोहे को भस्म कर सकता है।
“दुर्बल को ना सताइये, वां की मोटी हाय
बिना साँस की चाम से, लोह भसम होई जाय ”
तिनका कभू न निन्दिये , पांव तले जो होय |
कबहुँ उड़ आंख परे , पीर घनेरी होय ||
जीवन का कोई भी पहलू कबीर ने अछूता नहीं छोड़ा। जहॉं कुछ गलत देखा वहाँ अपना स्वर मुखर किया। मनुष्य को मनुष्य समझने के लिए लोगों को मजबूर करना ही कबीर का कार्य है। यही कारण है की कबीर को मध्यकालीन संत कवियों में सर्वोच्च क्रन्तिकारी संत का दर्जा प्राप्त है। यह भी सत्य है की कबीर के लेखनी जितनी पैनी थी उनका मन उतना ही शांत और करुणा से भरा था जिसमे समाज के सताये लोगों के लिए जगह थी। उनके विचारों में बदले की भावना और हिंशा का कोई स्थान नहीं था। वे चाहते थे की लोग सद्ऱाह पर आये और ईश्वर का सुमिरन करें , नेक काम करे और पाखंडों से दूर रहे। जातिवाद, पुरोहितवाद, छुआछूत, बाह्याचार, सामंतवाद, व्यक्तिगत आचरण की शुद्धता, दलित चेतना जैसे विषयों पर कबीर ने बेबाक बोला। उनके तर्क अकाट्य थे क्यों की वो हर बात प्रमाण के साथ रखते थे।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर |
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर ||
"समझौते का रास्ता छोड़कर विद्रोह का रास्ता अपनाते हुए निर्गुण भक्ति की जो धारा भक्ति-आन्दोलन की स्रोतस्वनी से फूटी कबीर उसकी सबसे ऊँची लहर के साथ सामने आए। समझौता उनकी प्रकृति में नहीं था। विद्रोह और क्रांति की ज्वाला उनकी रग-रग में व्याप्त थी सिर पर कफन बाँधकर, अपना घर फूंककर वे अलख जगाने निकले थे। उन्हें समझौता परस्तों की नहीं, अपना घर फूंककर साथ चलने वालों की जरूरत थी वे लुकाठी लिए सरे बाजार गहुार लगा रहे थे।"
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