कबीर द्वारा धार्मिक आडंबरों का तार्किक विरोध कबीर के दोहे

कबीर द्वारा धार्मिक आडंबरों का तार्किक विरोध Kabir Ke Dharmik Aadambar Ka Virodh

मध्यकालीन भक्तिकाल में संत कबीर दास जी का नाम उनके महान मानवतावादी विचारधारा और सामाजिक दलित चेतना के लिए लिया जाता है। कबीर दास जी की वाणी से दलित और वंचित लोगों में आत्मविश्वास के साथ जीने की प्राणवायु का संचार हुआ। वर्ण व्यवस्था के अनैतिक नियमों, उंच नीच और भेदभाव से जर्जर हो चुके समाज को नया जीवन मिला कबीर साहेब के विचारों से। 
 
 
कबीर द्वारा धार्मिक आडंबरों का तार्किक विरोध Kabir Ke Dharmik Aadambar Ka Virodh

तात्कालिक समाज में असंख्य कमियों ने घर कर लिया था। आमजन हर तरफ से शोषित और पीड़ित था। हिन्दू धर्म में जातिगत आधार पर भेदभाव था। दलितों के मंदिरों में प्रवेश पर रोक थी। समाज में उन्हें सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता है। कर्मकांड और धार्मिक आडम्बरों से उनकी कमर टूट चुकी थी। इसके अलावा सामंत वादी शक्तियों का शोषण भी था। सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक आधार पर उनका शोषण किया जा रहा था। विदेशी क्रूर शासकों के द्वारा किया जाने वाला शोषण अलग था। इन परिस्थियों के मध्य संत कबीर साहेब की वाणी ने समस्त अत्याचारों और पाखंडों का विरोध कर समाज में नव प्राण वायु फूंकने का कार्य किया।

धार्मिक आधार पर कबीर साहेब के द्वारा प्रचलित आडम्बर और पाखंडों का प्रखर विरोध किया। कबीर ने समस्त श्रष्टि को ब्रह्म के द्वारा पैदा होना बताया और लोगों को बताया की वो उसी ब्रह्म का अंश है।

गर्भ बास महि कुल नहिं जाती।
ब्रह्म बिंद ते सब उतपाती॥


सबका स्वामी एक ही है चाहे वो हिन्दू हों या फिर मुस्लिम। धार्मिक आधार पर भेदभाव और साप्रदायिक तनाव का कोई ओचित्य नहीं है। जातिगत आधार परश्रेष्ठता को कबीर साहेब ने नकार दिया और बताया की व्यक्ति कर्म के आधार पर श्रेष्ठ हो सकता है चाहे वो किसी भी जाती का क्यों न हो लेकिन किसी जाती विशेष में जन्म लेने मात्र से कोई महान नहीं बन सकता है। कबीर साहेब ने ब्राह्मणों को कहा की तुम दंभ भरते हो की तुम अन्य लोगों से श्रेष्ठ हो तो बताओं की तुम्हारा जन्म भी उसी तरह से कैसे हुआ है जैसे किसी साधारण व्यक्ति का होता है। 

जौ तू ब्राह्मण ब्राह्मणी जाया।
तौ आन बाट काहे नहीं आया॥

यदि तुम ब्राहमण हो तो बताओं की क्या तुम्हारे खून में दूध बहता है और हमारे खून में लोह। सभी ब्रह्म की संतान हैं और सभी के शरीर में रुधिर ही प्रवाहित हो रहा है। वर्तमान सन्दर्भ में देखे तो आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो भेदभाव में यकीन रखते हैं। उन्हें देखिये जब उनके किसी परिजन को किसी कारण रक्त की आवश्यकता पड़ती है तो क्या वे यह देख कर रक्त लेते हैं की ये किस जाती या समाज विशेष के लोगों का है ? नहीं, हकीकत तो ये है की सही वक़्त पर रक्त मिल जाए यही एक बड़ी बात है। यदि सभी जीव एक ब्रह्म की संतान नहीं होते तो जाहिर सी बात है उनका रक्त भी अलग अलग होता।

तुम कत ब्राह्मण हम कत शूद।
हम कत लोहू तुम कत दूध॥


समस्त संसार में जीवन का आधार एक है। एक ही परम ज्योति है जो सबका स्वामी है। इश्वर के समक्ष सब समान हैं। जातीय और वर्ण आधार पर भेदभाव को कबीर अनैतिक और अमानवीय मानते हैं। सभी ब्रह्म के अंश है इसलिए सभी सामान हैं। सभी को इश्वर की पूजा और आराधना का अधिकार है।

एकै पवन एक ही पानी एक ज्योति संसारा ।
एक ही खाक घड़े सब भांडे, एक ही सिरजन हारा ।।


पोंगा पंडितवाद पर प्रहार करते हुए कबीर साहेब कहते हैं की पंडित होने से, माला जपने से कोई लाभ नहीं होगा जब तक मन में इश्वर के प्रति समर्पण नहीं है। आचरण की शुद्धता आध्यात्मिक ज्ञान के लिए आवश्यक है. पंडित होने और माला जपने का कोई लाभ होने वाला नहीं है जब तक मन साफ़ नहीं है हरी तो जैसे था वैसे ही रह गया है अर्थात उसकी पूजा पाठ का ईश्वर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।

पंडित होय के आसन मारे, लंबी माला जपता है,
अंतर तेरे कपट कतरनी, सो सो भी साहब लगता है,
ऊँचा निचा महल बनाया, गहरी नेव जमाता है,
कहत कबीर सुनो भाई साधो हरि जैसे को तैसा है।


बाह्याचार के विरोध करते हुए कबीर साहब की वाणी है की तिलक लाने, माला जपने और गेरुआ धारण करने से कोई लाभ होने वाला नहीं है। भेड़ के हर बार बाल काटे जाते हैं लेकिन उसे कभी स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती है। तात्कालिक समय में धर्म के नाम पर पाखंडों का बोल बाला था उसी पर कबीर साहेब प्रहार करते हुए कहते हैं -

मूंड मुड़ाए हरि मिले, सब कोइ लेय मुड़ाय।
बार बार के मूंडते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय।।
 
पंडित और पुजारियों ने धर्म को अपनी कमाई का जरिया बना लिया था। आम जन का तरह तरह के कर्मकांड और धार्मिक अनुष्ठान, क्रियाकलापों के नाम पर आर्थिक शोषण किया जाता था। सामंतवादी शक्तियों का ब्राह्मण और पुजारियों से गठजोड़ था

ताकि उन्हें धर्म के नाम पर डराया जो सके। मंदिर में चढ़ावे अन्य आडमंबरों का विरोध करते हुए कबीर साहेब की वाणी है की ईश्वर की मूर्ति को अर्पित की जाने वाले भोग, और अन्य वस्तुओं को पुजारी अपने घर ले जाता है, मूर्ति को तो कुछ भी हाथ नहीं लगता है। कबीर आम जन को सन्देश देना चाहते थे की ईश्वर को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है।

लाडू लावन लापसी ,पूजा चढ़े अपार
पूजी पुजारी ले गया,मूरत के मुह छार
 
मूर्ति पूजा पर कबीर का विश्वाश नहीं था। उनका मानना था की ईश्वर मूर्ति में ही विराजमान है ये मिथ्या धरना है। ईश्वर इस श्रष्टि के कण कण में निवास करता है। व्यक्ति सच्चे दिल से उसका ध्यान कहीं पर भी कर सकता है। उसके लिए किसी मंदिर और पुजारी की आवश्यकता नहीं होती है। ईश्वर निराकार है उसे तीर्थ और मंदिर की आवश्यकता नहीं है। कबीर ने वस्तुतः धर्म के नाम पर चल रहे कारोबार पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने निराकार ईश्वर की अवधारणा को लोगों के समक्ष रखा और लोगों ने इस पर अमल भी किया क्यों की एक और तो दलित और वंचित लोगों का मंदिर में प्रवेश निषेध था और दूसरी तरफ मुस्लिम आक्रांता मूर्तियों को तहस नहश करने में लगे थे। मूर्तिपूजा पर कबीर साहेब ने बताया की यदि पत्थर पूजने से ईश्वर की प्राप्ति होती हो तो मैं पहाड़ को पुजू। लेकिन पत्थर की मूर्ति से भली तो चाकी है जिससे ये संसार पीस कर खा रहा है। कबीर साहेब ने बताया की ईश्वर मूर्ति तक सिमित नहीं है।

पाथर पूजे हरि मिले तो मै पूजू पहाड़
ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार
 
स्वार्थपरक पूजा पर कबीर साहेब ने बताया की लोग अपने स्वार्थ से माटी का नाग बनाकर पूजते हैं लेकिन वही नाग जब जिन्दा घर में निकल आता है तो उसे लाठी से धमकाया जाता है। अपने स्वार्थ और डर के वशीभूत नाग देवता की पूजा करते हैं जिसका कोई मान्य अर्थ नहीं निकलता है।

माटी का एक नाग बनाके, पुजे लोग लुगाया
जिंदा नाग जब घर मे निकले, ले लाठी धमकाया
 
कबीर साहेब ने धर्म के नाम पर दान प्रथा का भी विरोध किया। ईश्वर के नाम पर आम जन को डरा धमका कर कुछ भी कार्य करवा लिया जाता था। तात्कालिक समाज की हकीकत थी की पंडित पुरोहित और धर्म के ठेकेदार आम जन को ईश्वर के नाम पर कुछ भी करने को विवश कर देते थे। आम जन की धर्मान्धता इन लोगों के सहज कमाई का माध्यम बन गया था।

कलि का ब्राहमिन मसखरा ताहि ना दीजय दान
कुटुम्ब सहित नरकै चला, साथ लिया यजमान। 
 
वर्तमान समय में भी इश्वर के नाम पर दान का काला धंधा चल रहा है। आवश्यकता है की कबीर के विचारों को समझा जाय और व्यर्थ के प्रपंच में ना पड़ते हुए इश्वर का सुमिरन किया जाय। सार है की इश्वर मन में है, उसे किसी एजेंट की आवश्यकता नहीं है। पूजा पाठ और आराधना का कोई मूल्य नहीं है जब तक आचरण सुद्ध ना हो। 

आपको कबीर साहेब के ये दोहे अर्थ सहित अधिक पसंद आयेंगे -

कबीर दास, मध्यकालीन भारत के एक महान संत और कवि थे। वे निर्गुण भक्ति के प्रवर्तक थे, और उनके काव्य में आध्यात्मिक और यथार्थपरक दोनों तत्वों का समावेश है।

कबीर दास ने ईश्वर को एक निराकार और सर्वव्यापी सत्ता के रूप में देखा। उन्होंने किसी भी प्रकार के बाह्य आडंबरों और कर्मकांडों को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग नहीं माना। उनके अनुसार, ईश्वर को पाने के लिए केवल प्रेम और भक्ति ही आवश्यक है।

कबीर दास के आध्यात्मिक विचारों को उनके दोहों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस दोहे में, कबीर दास पत्थर की पूजा करने वालों पर व्यंग्य करते हैं। वे कहते हैं कि अगर पत्थर की पूजा करने से ईश्वर मिलता है, तो मैं पत्थर ही पूजूंगा। क्योंकि पत्थर तो चाकी से भी अच्छा है, क्योंकि चाकी से तो आटा बनाया जा सकता है, जिससे संसार का भरण-पोषण हो सकता है। कबीर जी ने अपने दोहों में समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों पर कड़ा प्रहार किया है। उन्होंने मूर्ति पूजा, जातिवाद, भेदभाव, हिंसा आदि का विरोध किया है।

उन्होंने मूर्ति पूजा को व्यर्थ बताया है। उनका मानना था कि ईश्वर को मंदिर या मस्जिद में नहीं खोजना चाहिए, बल्कि उसे अपने मन में खोजना चाहिए। उन्होंने कहा है कि अगर पत्थर की पूजा करने से ईश्वर मिल जाए तो मैं पहाड़ की पूजा करूँगा। लेकिन इससे तो अपने घर की चक्की ही अच्छी है, जो सारा संसार का अन्न पीसती है।

उन्होंने जातिवाद और भेदभाव का भी विरोध किया है। उन्होंने कहा है कि सब मनुष्य समान हैं, उनमें कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा है कि जिसने मानवता की सेवा की, वही सच्चा भक्त है। उन्होंने हिंसा का भी विरोध किया है। उन्होंने कहा है कि सभी जीवों में भगवान का वास है, इसलिए हमें किसी भी जीव को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। उन्होंने कहा है कि बकरी घास खाती है ताकि काठी खाए, लेकिन जो इंसान बकरी खाता है, उसका क्या हाल होगा? कबीर जी के दोहे आज भी प्रासंगिक हैं। आज भी समाज में कई कुरीतियाँ और अंधविश्वास मौजूद हैं। कबीर जी के दोहे हमें इन कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्त होने के लिए प्रेरित करते हैं।

कबीर दास ने समाज में व्याप्त अन्याय, भेदभाव और पाखंड पर भी कड़ा प्रहार किया। उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से लोगों को जागरूक किया। कबीर दास गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व देते हैं। वे कहते हैं कि अगर गुरु और भगवान दोनों खड़े हों, तो मैं पहले गुरु के चरण छूऊंगा, क्योंकि गुरु ने मुझे भगवान का रास्ता दिखाया है।

कबीर दास का काव्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि उनके समय में था। उनके काव्य में निहित आध्यात्मिक और यथार्थपरक विचार आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं।

कबीर दास के काव्य की विशेषताएं
सरल भाषा और शैली: कबीर दास ने अपनी रचनाओं में सरल भाषा और शैली का प्रयोग किया है। उनके दोहे आम आदमी की समझ में आते हैं।
प्रतीकों का प्रयोग: कबीर दास ने अपने दोहों में प्रतीकों का प्रयोग किया है। इससे उनकी रचनाओं में एक गहरी अर्थवत्ता आ गई है।
आध्यात्मिक और यथार्थपरक विचार: कबीर दास के काव्य में आध्यात्मिक और यथार्थपरक दोनों तत्वों का समावेश है।

कबीर दास ने भारतीय साहित्य और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके काव्य ने समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने लोगों को आध्यात्मिकता के साथ-साथ सामाजिक अन्याय और भेदभाव के खिलाफ भी जागरूक किया।

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