कबीर की धार्मिक विचारधारा कबीर के प्रेरक विचार Kabir Ke Prerak Vichaar Hindi

कबीर की धार्मिक विचारधारा कबीर के प्रेरक विचार Kabir Ke Prerak Vichaar Hindi कबीर की धार्मिक विचारधारा : ईश्वर के समक्ष सबकी समानता

कबीर महान मानवतावादी विचारधारा के महान संत रहे हैं जिनका प्रत्येक शब्द सारमय है। कबीर ने किसी शास्त्र का अनुवाद नहीं किया अपितु जो देखा, सहा उसे सरल और सहज शब्दों में लोगों तक प्रसारित किया। जहाँ भी उन्हें आडम्बर, दिखावा, मिथ्याचार दिखा उसे तार्किक विचारों के माध्यम से समाज के उत्थान के लिए उनका खंडन किया। कबीर की बातें लोगों को अपने निकट लगती थी क्यों की उनकी वाणी में कही स्वंय के पांडित्य प्रदर्शन और दिखावे का कोई स्थान नहीं था। 
 
उनके हृदय में दलित लोगों के लिए विशेष स्थान था और वे चाहते थे की सबको सम्मान और मानव होने का अधिकार मिले। इश्वर के सबंध में कबीर की स्पष्ट मान्यता थी की पूजा और आराधना आत्मिक और मन से हो। दिखावा और आडम्बर में उनका विश्वास नहीं था। मध्यकाल के समय में कबीर समाज का एक ऐसा मोडल प्रस्तुत करते हैं जिसमे सभी जन समान हो, जातीय भेदभाव ना हो और कर्मकांड, पाखंड मुक्त सहज और सरल हो। कुरीतियों और बाह्याचार को कबीर ने सरल भाषा में समझाया और दैनिक जन जीवन से सबंधित उदाहरणों के माध्यम से लोगों को समझाया। शास्त्रीय भाषा के स्थान पर कबीर ने आम बोल चाल की भाषा को उपयोग में लिया जो सर्व ग्राह्य थी।

कबीर की धार्मिक विचारधारा कबीर के प्रेरक विचार Kabir Ke Prerak Vichaar Hindi

भक्ति काल के समय कबीर आदर्श समाज के लिए एक ऐसी नीव रखते हैं जो भेदभाव, उंच नीच और शोषण से मुक्त है। नैतिक आधार पर वर्ण व्यवस्था को कबीर मानने से स्पस्ट मना कर देते हैं। वे कहते है की सभी ब्रह्म के अंश है तो भेदभाव किस आधार पर। जातीय आधार पर और जन्म के आधार पर कोई श्रेष्ठ नहीं हो सकता है। 
 
कर्म के आधार पर कोई महान हो सकता है किसी जाती विशेष में जन्म लेकर नहीं। कबीर साहेब की वाणी मानवता के ऊपर आधारित थी जो लोगों के दिल में जगह कर लेती है और वे उसका अनुसरण करने लगे। धार्मिकता को लेकर जो सामंतवाद और पंडितवाद के गठजोड़ पर वार करते हुए कबीर साहेब उन्ही के बनाये नियमों से उन पर वार करते हुए कहते हैं की एक और तो तुम कहते हो की श्रष्टि के मालिक एक है, वो विविध नहीं हो सकता है तो उसके बनाए जीव जंतुओं और मनुष्यों में भेद कैसा। इश्वर की पूजा करने का अधिकार सबको है। कबीर साहेब के मानवतावादी चिंतन और उनके संदेशों के माध्यम से लोगों में धीरे धीरे सत्य अहिंसा, दया प्रेम, मानवता, दया, शांति, क्षमा आई मानवीय गुणों का विकास होने लगा। 
 
 कबीर का धर्म मानवता था। उन्होंने लोगों को समझाया की दुसरे के धर्म का भी सम्मान होना चाहिए, धार्मिक आधार पर संघर्ष उचित नहीं है। कबीर के समय धर्म के आधार पर लोगों में संघर्ष था। कबीर साहेब ने बताया की धर्म मनुष्य को इश्वर से जोड़ने का माध्यम है। जब सभी मनुष्य इश्वर की संतान है तो धर्म और जातीय आधार पर भेदभाव उचित नहीं है। तक्त्कालिक समाज धर्म के आधार पर बंट गया था और हिन्दू और मुस्लिम धर्म के अन्दर भी जातीय संघर्ष था। आम जन इसके बीच पिस रहा था। एक और उन्हें सामंतवादी शक्तियां लूट रही थी और दूसरी तरफ धार्मिक शक्तियां। 
 
हिन्दू धर्म को जातिगत भेदभाव, उंच नीच अस्पर्श्यता ने बिगाड़ कर रखा था। पोंगा पंडितवाद के कारण हिन्दू धर्म में भटकाव उत्पन्न हो रहा था। कुछ स्वार्थी तत्व स्वंय के लाभ के लिए धर्म को अपना हथियार बना रहे थे। वेद पुराण, तीर्थ, कर्मकांड और व्यर्थ के आयोजनों का धर्म के आधार पर बेजा इस्तेमाल किया जा रहा था।
 
 कबीर ने समाज की हालत देखकर सर्वप्रथम आमजन में यह सन्देश प्रसारित किया की सभी जन एक हैं और एक ही परमसत्ता की संतान हैं। सभी जीव ब्रह्म की ही संतान हैं। छुआछूत, अस्पर्श्यता, उंच नीच सभी इंसानों के द्वारा ही बनाए गए हैं। कोई जन्म के आधार पर श्रेष्ठ नहीं हो सकता उसका आचरण महत्वपूर्ण हैं। इश्वर के सुमिरन का अधिकार सभी को है। इश्वर की नजर में सब समान हैं। मंदिरों में दलित समाज के जाने पर प्रतिबन्ध था। कबीर ने इसका भी तार्किक रूप से एक रास्ता निकाला। कबीर ने अपनी वाणी में अदभुद बात है जो सभी के लिए नयी थी और तार्किक रूप से अकाट्य भी। कबीर साहेब ने कहा की इश्वर को किसी मंदिर विशेष और तीर्थ या स्थान विशेष में रहने की आवश्यकता नहीं है। वो जगत का स्वामी है और इस श्रष्टि के कण कण में में उसका वाश है। 
 
सभी जीव उसकी ही संतान हैं। उसकी नजर में कोई बड़ा और छोटा नहीं अपितु सभी समान है। इश्वर को तीर्थ या मंदिर में ढूंढने के बजाय अपने हृदय में सद्कर्म और सदाचरण करके उसे महसूस करो। उसकी कोई आकृति नहीं वो तो फूल की खुशबू के समान है।
 
मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे ,
मैं तो तेरे पास में।
ना मैं तीरथ में, ना मैं मुरत में,
ना एकांत निवास में ।
ना मंदिर में , ना मस्जिद में,
ना काबे , ना कैलाश में।।
ना मैं जप में, ना मैं तप में,
ना बरत ना उपवास में ।।।
ना मैं क्रिया करम में,
ना मैं जोग सन्यास में।।
खोजी हो तो तुरंत मिल जाऊ,
इक पल की तलाश में ।।
कहत कबीर सुनो भई साधू,
मैं तो तेरे पास में बन्दे…
मैं तो तेरे पास में
कबीर साहेब ने कहा की जिस प्रकार फूल में खुशबू समायी रहती है उसी तरह इस जगत में ईश्वर कण कण में व्याप्त है। 
 
पुहुप मध्य ज्यों बाश है,ब्यापि रहा जग माहि
संतो महि पाइये, और कहीं कछु नाहि।
धर्म के नाम पर कर्मकांड और उंच नीच से परेशान आम जन के लिए कबीर साहेब की वाणी संजीवनी के समान थी। एक और सामंतवाद और दूसरी तरफ धार्मिक थेकेदारों, जिनका गठजोड़ सामंत वादी शक्तियों से था , से त्रस्त आम जन अब इश्वर के समक्ष अपनी फरियाद लगा सकते थे। मनोवैज्ञानिक रूप से यह आम जन के लिए एक क्रन्तिकारी कदम था जिसने दलित समाज के लोगों में नयी चेतना पैदा कर दी। कबीर साहेब ने धर्म के गूढ़ सिधान्तों को शास्त्रों से निकाल कर आम जन तक बड़ी ही सहज भाषा में रखा। कबीर साहेब ने आम जन को समझाया की धर्म लोगों के लिए हैं, धर्म सबका है। धर्म का आधार मानवतावाद है। जो धर्म मानवता का पालन नहीं करता है वो धर्म नहीं हो सकता है। धर्म लोगों के कल्याण के लिए ही बना है।

कबीर की धार्मिक विचारधारा कबीर के प्रेरक विचार Kabir Ke Prerak Vichaar Hindi

कबीर साहेब का संघर्ष आम जन के लिए था। वे लोगों को धार्मिकआडम्बर और कर्मकांड से मुक्ति दिलाना चाहते थे। समाज समानता लाने में कबीर साहेब कामयाब भी रहे। बाह्य आडम्बर के स्थान पर कबीर साहेब ने लोगों को वास्तविक धर्म से साक्षात्कार करवाया। पाप कैसे काटेंगे इस विषय पर कबीर साहेब ने विस्तार से लोगों को समझाया। पाप किसी कर्मकांड से नहीं बल्कि सदाचरण और इश्वर की भक्ति से कट सकते हैं। इसके साथ ही कबीर साहेब ने सच्ची भक्ति को महत्त्व दिया। दिखावे की आराधना को उन्होंने नकार दिया। उन्होंने बताया की तिलक लगाने और माला फेरने से कोई लाभ होने वाला नै है। मन से इश्वर का सुमिरन किया जाना चाहिए साथ ही व्यक्ति का आचरण भी शुद्ध होना चाहिए।
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1 Comments
  • Unknown
    Unknown 12/27/2021

    कबीर दास ने सच्चे सतगुरु की क्या पहचान बताई है।हम कैसे पहचाने

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