कबीर के दोहे हिंदी मीनिंग Kabir Ke Dohe with Hindi Meaning
मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ।
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ।
कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Meaning
सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार।
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार।
संतजन और सज्जन व्यक्ति सोने के समान होते हैं जो सौ बार टूटकर भी फिर जुड़ जाते हैं। दुर्जन व्यक्ति कुम्हार के घड़े के समान होते हैं जो एक धक्के से ही टूट जाते हैं और दुबारा नहीं जुड़ते हैं। भाव है की दुर्जन व्यक्ति मन के काले होते हैं, मन में मेल रखते हैं, छोटी सी बातों की गाँठ बाँध लेते हैं। वे मौके की तलाश में रहते हैं और मौका मिलते ही अपना वास्तविक रूप दिखा देते हैं। दुर्जन से एक बार का बैर सदा के लिए बैर ही होता है और सज्जन व्यक्ति मन का साफ़ होने के कारन उस बात को भुला देता है और पुनः दोस्त बनाया जा सकता है। संजन का स्वभाव सरल और दुष्टजन का स्वभाव मलिन होता है।
साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय।
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय।
कबीर के दोहे हिंदी मीनिंग Kabir Ke Dohe with Hindi Meaning
साधू या संतजन परमार्थी होते हैं, ऐसा मानिये जैसे धन की प्राप्ति होती है वैसे ही ख़ुशी प्रदान करता है। संतजन लोगों के विषय विकार को दूर कर देता हैं। भाव है की संतजन कल्याणकारी और मंगलकारी होते हैं। उनके साथ संगत करने से विषय विकार दूर होते हैं। विषय विकार की जननी होती है माया। माया भ्रम पैदा करती है और व्यक्ति को दिशाभ्रमित कर देती है। माया के जाल को सद्गुरु ही काट सकता है। सद्गुरु व्यक्ति को इश्वर भक्ति की और अग्रसर करता है जिससे उसका अहम् शांत होता है और चित्त निर्मल। चित्त के निर्मल होने पर और अहम् के समाप्त होने पर जीवन के उद्देश्य का भान होता है। यह एक अलग विषय है की कबीर साहेब ने सच्चे साधुओं की पहचान भी बताई है जिससे पाखंडी साधुओं से बचा जा सके।वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर।
कबीर साहेब केवाणी है की वृक्ष कभी स्वंय का फल ग्रहण नहीं करता है और नदी स्वंय के जल को संचित नहीं करता है। उसी भांति साधुजन स्वंय के हित के स्थान पर जन कल्याण के कार्य हेतु साधू रूप ग्रहण करते हैं। परमार्थ के लिए उनका हर कार्य होता है। साधू समाज को राह दिखाते हैं और व्यक्ति और समाज के विकारों को सम्मुख लाकर उनमे सुधार हेतु आग्रह करते हैं। निज हित सभी करते हैं लेकिन साधू का स्वभाव और गुण पर हित का होना चाहिए।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।
सुख माया जनित नहीं हो सकता है। मायाजनित सुख वस्तुतः झूठा होता है लेकिन उसे सुख मानकर व्यक्ति मन ही मन प्रशन्न होता है। जबकि वास्तविकता यह है की सब काल का ग्रास हो जाना है, कुछ तो काल के मुह में है और कुछ उसकी गोदी में पड़ा हुआ है। भाव है की ये संसार नश्वर है, क्षणिक है, समाप्त हो जाना है। जीवन सदा के लिए नहीं है। जब सब कुछ काल का ग्रास बन जाना है तो जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए। इश्वर की भक्ति करना, हरदम उसे याद करना ही इस जीवन का सार है।
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर।
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर।
कबीर साहेब ने सभी समस्याओं की जड़ माया को माना है। माया ही मनुष्य का मन विचलित करती है। माया और तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती है। माया सदा से ही विद्यमान है और रहेगी। माया ने समस्त जीवों को अपना शिकार बनाया है। आशा और तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती है और नाही कभी संतुष्ट ही होती है। सद्गुरु इस माया के भ्रम को समाप्त कर करता है। जीव स्वंय कभी अपना मुल्यांकन नहीं कर सकता है। गुरु के सानिध्य में ही उसका जीवन सफल होता है। दूसरा भाव है की माया और तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती हैं इसलिए इनके जाल से गुरु के सानिध्य में रहकर बचना सीखना चाहिए। अन्यथा तो जीवन का कोई महत्त्व नहीं रहता है और जीव अवागमन के फेर में ही लगा रहता है।
माला फेरत जुग भया , मिटा ना मन का फेर।
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर।
भक्ति के विषय पर कबीर साहेब के विचार हैं की बाह्य भक्ति से कोई लाभ नहीं होने वाला है। हाथों में माला के मनको को फेरने के बजाय मन के मनके से इश्वर को याद करना चाहिए और इसी का लाभ मिलने वाला है। तात्कालिक सन्दर्भ में कबीर ने देखा की धर्म में आडम्बर और दिखावा ही रह गया था। गेरुआ धारण करना, तिलक लगाना, माला फेरना, केश रखना आदि बाह्याचार से लोग भक्ति करने का दिखावा करने में लगे थे। कबीर साहेब ने बताया की बाह्याचार के स्थान पर मन से भक्ति की जानी चाहिए। मन से इश्वर सुमिरन का तात्पर्य है की व्यवहार में सदाचार हो, दया हो, सभी के लिए एकरूपता हो यही भक्ति है।
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