मैं नहिं माखन खायो मैया मोरी, मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो।
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुवन मोहिं पठायो, चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो।
मैं बालक बहिंयन को छोटो, छींको किहि बिधि पायो, ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो।
तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतिआयो, जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो।
यह लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो, सूरदास तब बिहँसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो।
मैं नहिं माखन खायो मैया मोरी, मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो। मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो, भोर भयो गैयन के पाछे, मधुवन मोहिं पठायो । चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो ॥ मैं बालक बहिंयन को छोटो, छींको किहि बिधि पायो । ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो ॥ तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतिआयो । जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो ॥ यह लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो । 'सूरदास' तब बिहँसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो ॥ - सूरदास
मैं नहिं माखन खायो मैया मोरी, मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो।
भगवान श्री कृष्ण अपने बचपन के दौरान शरारती और चंचल स्वभाव के थे। उनके बचपन की सबसे प्रसिद्ध हरकतों में से एक उनके पड़ोसियों के घरों से मक्खन या माखन चुराना था, गोपियों को छेड़ना आदि, जो उनके सहज बाल स्वभाव का परिचय देते हैं। जब ग्वाले अपने काम में व्यस्त थे, तब श्री कृष्ण उनके घरों में घुस जाते और माखन चुरा लेते। इसने उन्हें "माखन चोर" या "मक्खन चोर" का उपनाम दिया।