कबिरा कलह अरु कल्पना सतसंगति से जाय हिंदी मीनिंग कबीर के दोहे

कबिरा कलह अरु कल्पना सतसंगति से जाय-हिंदी मीनिंग Kabira Kalah Aru Kalpna Satsangati Se Jay-Hindi Meaning कबीर दोहे व्याख्या हिंदी में

कबिरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।
दुःख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ।।
Kabira Kalah Aru Kalpana, Satasangati Se Jaay .
Duhkh Baase Bhaaga Phirai, Sukh Mein Rahai Samaay . 
 
कबिरा कलह अरु कल्पना सतसंगति से जाय हिंदी मीनिंग Kabira Kalah Aru Kalpna Satsangati Se Jay Hindi Meaning

दोहे की हिंदी मीनिंग: सत्संगत और साधु जन के समीप रहने से कलह और कल्पना रूपी दुःख दूर भागते हैं और व्यक्ति को असीम सुख की प्राप्ति होती है। मनुष्य के तन को विषय विकार, क्रोध, लालच और माया ने अपना घर बना रखा है जो की उसके घर के अंदर 'कलह' का कारन बनते हैं। जब सत्संगति होती है तो इन्द्रीओं की जकड / पकड़ ढीली पड़ने लगती है। जीवन का उद्देश्य दिखाई देने लगता है और एक रोज व्यक्ति अपने तन में विषय विकारों और माया के घर को जला देता है, तब कहीं जाकर हृदय से प्रकाश दिखाई देता है  जिसमे सुख ही सुख हैं। 

जब घटि मोह समाईया, सबै भया अंधियार
निरमोह ज्ञान बिचारि के, साधू उतरै पार। 
Jab Ghati Moh Samaeeya, Sabai Bhaya Andhiyaar
Niramoh Gyaan Bichaari Ke, Saadhoo Utarai Paar. 

जब तक इस घट में मोह है, माया है तब तक चरों तरफ अन्धकार ही  रहता है। साधू की शरण और संगत से यह अन्धकार दूर होता है।
आशा तजि माया तजी मोह तजी और मन
हरख,शोक निंदा तजइ कहै कबीर संत जान। 
Aasha Taji Maaya Tajee Moh Tajee Aur Man
Harakh,shok Ninda Taji Kahai Kabeer Sant Jaan. 

आशा और माया का त्याग, मन और मोह का त्याग, सुख दुःख का त्याग, नींद और दुःख का त्याग, जो भी कर देता है वही सच्चा संत होता है। मूल रूप से यही दुखों के कारन होते हैं। जहा आशा है वही दुःख शुरू हो जाता है। जहा हेत है / ये मेरा है और मेरे अनुसार ही चलना चाहिए-ये भी दुःख का ही कारण बनता है। जहा लगाव है वही दुःख है। इन्हें मारना बड़ा ही मुश्किल होता है और जो इनको मार दे वही सच्चा संत होता है।

अब कहु राम नाम अविनासी, हरि छोडि जियरा कतहुँ न जासी ।
जहाँ जाहु तहँ होहु पतंगा, अब जनि जरहु समुझि विष संगा ।
राम नाम लौ लायसु लीन्हा, भृंगी कीट समुझि मन दीना ।
भौ अस गरुवा दुष की भारी, करु जिव जतन सु देखु विचारी ।
मन के बात है लहरि विकारा, तब नहिं सूझै वार न पारा ।
इच्छा के भवसागरे, वोहित राम अधार ।
कहि कबीर हरि सरण गहु, गौबछ खुर बिस्तार ।

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