हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी
कबीरा कुआँ एक है, और पनिहारी अनेक
बर्तन सब के न्यारे हैं, और पानी सब में एक
आ पंछी जल पियें, नदीये खूटे न नीर
धर्म किए नहीं धन खूटे, कह गया दास कबीर
जितना हेत हराम से, उतना हरि से होए
सीधा जाए स्वर्ग में, उसका पल्लू न पकड़े कोए
जिंया था पुछन अन्न खे, तिंय जे पुछन अल्लाह
त रिडी रसन राह संझे ही सय्यद चें
अल्लाह औराहूं छड्डे पंध पराऊं प्या
बिना नाले सुपरी अईंयां के ब्या
वाकेंदिया सादिक बधो संधरा
हैदरियम क़लंदरम मस्तम,
बंदा-ए-मुरतज़ा-ए-अली-हस्तम
पेश्वा-ए-तमाम रिंदानुम,
के सगे-कुए-शेर-ए-यज़दानम
हमन हैं इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या
जो बिछुड़े हैं प्यारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते
हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या
मंझा मुहिंजे रूह जे वने साजन विसरी
ता कर लगे लू थर बाबीयो थी बरां
न पल बिछुड़े पिया से, न हम बिछुड़े प्यारे से
इन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेक़रारी क्या
चलती चक्की देख के खड़ा कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में, साबत रहा न कोय
जनधर पींएदे जेडियूं, थ्यो केड़ो कीस करन
के पीस जी पा-माल थ्या, के घुमरण मंझ गरन
साबुत सेई रहन, जे काबू रह्या कीर से
कबीरा इश्क़ का माता, दुई को दूर कर दिल से
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या
बर्तन सब के न्यारे हैं, और पानी सब में एक
आ पंछी जल पियें, नदीये खूटे न नीर
धर्म किए नहीं धन खूटे, कह गया दास कबीर
जितना हेत हराम से, उतना हरि से होए
सीधा जाए स्वर्ग में, उसका पल्लू न पकड़े कोए
जिंया था पुछन अन्न खे, तिंय जे पुछन अल्लाह
त रिडी रसन राह संझे ही सय्यद चें
अल्लाह औराहूं छड्डे पंध पराऊं प्या
बिना नाले सुपरी अईंयां के ब्या
वाकेंदिया सादिक बधो संधरा
हैदरियम क़लंदरम मस्तम,
बंदा-ए-मुरतज़ा-ए-अली-हस्तम
पेश्वा-ए-तमाम रिंदानुम,
के सगे-कुए-शेर-ए-यज़दानम
हमन हैं इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहें आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या
जो बिछुड़े हैं प्यारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते
हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या
मंझा मुहिंजे रूह जे वने साजन विसरी
ता कर लगे लू थर बाबीयो थी बरां
न पल बिछुड़े पिया से, न हम बिछुड़े प्यारे से
इन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेक़रारी क्या
चलती चक्की देख के खड़ा कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में, साबत रहा न कोय
जनधर पींएदे जेडियूं, थ्यो केड़ो कीस करन
के पीस जी पा-माल थ्या, के घुमरण मंझ गरन
साबुत सेई रहन, जे काबू रह्या कीर से
कबीरा इश्क़ का माता, दुई को दूर कर दिल से
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या
'Haman Hain Ishq Mastaana' by Shafi Muhammad Faqir
संत कबीरदास जी के इन पदों में गहन आध्यात्मिक संदेश निहित है, जो हमें जीवन की सच्चाईयों से अवगत कराते हैं। आइए, प्रत्येक पंक्ति के अर्थ को सरल भाषा में समझें:
"कबीरा कुआँ एक है, और पनिहारी अनेक।
बर्तन सब के न्यारे हैं, और पानी सब में एक।"
यहाँ कबीरदास जी कहते हैं कि कुआँ एक है, लेकिन उससे पानी भरने वाली पनिहारियाँ अनेक हैं। सभी के बर्तन अलग-अलग हैं, परंतु उनमें भरा पानी एक ही है। यह उपमा दर्शाती है कि ईश्वर एक है, लेकिन उसे पाने के मार्ग और साधक अनेक हैं। भले ही हमारी उपासनाएँ और धार्मिक प्रथाएँ भिन्न हों, परंतु सबका लक्ष्य एक ही परमात्मा है।
"आ पंछी जल पियें, नदीये खूटे न नीर।
धर्म किए नहीं धन खूटे, कह गया दास कबीर।"
कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे पंछी आकर नदी का जल पीते हैं, लेकिन नदी का जल समाप्त नहीं होता, वैसे ही धर्म के कार्य करने से धन की कमी नहीं होती। धर्म-कर्म करने से धन घटता नहीं, बल्कि आत्मिक संतोष और पुण्य की वृद्धि होती है।
"जितना हेत हराम से, उतना हरि से होए।
सीधा जाए स्वर्ग में, उसका पल्लू न पकड़े कोए।"
यहाँ कबीरदास जी समझाते हैं कि यदि मनुष्य जितना प्रेम अधर्म या पाप कर्मों से करता है, उतना ही प्रेम यदि भगवान से करे, तो वह सीधे स्वर्ग को प्राप्त करता है। ऐसे व्यक्ति को किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता नहीं होती; वह स्वयं ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर लेता है।
इन पंक्तियों के माध्यम से कबीरदास जी हमें सिखाते हैं कि ईश्वर एक हैं, चाहे उपासना के तरीके भिन्न हों। धर्म-कर्म करने से धन की कमी नहीं होती, बल्कि आत्मिक समृद्धि मिलती है। और यदि हम अपने प्रेम और समर्पण को अधर्म से हटाकर भगवान की ओर केंद्रित करें, तो मोक्ष की प्राप्ति संभव है।
"कबीरा कुआँ एक है, और पनिहारी अनेक।
बर्तन सब के न्यारे हैं, और पानी सब में एक।"
यहाँ कबीरदास जी कहते हैं कि कुआँ एक है, लेकिन उससे पानी भरने वाली पनिहारियाँ अनेक हैं। सभी के बर्तन अलग-अलग हैं, परंतु उनमें भरा पानी एक ही है। यह उपमा दर्शाती है कि ईश्वर एक है, लेकिन उसे पाने के मार्ग और साधक अनेक हैं। भले ही हमारी उपासनाएँ और धार्मिक प्रथाएँ भिन्न हों, परंतु सबका लक्ष्य एक ही परमात्मा है।
"आ पंछी जल पियें, नदीये खूटे न नीर।
धर्म किए नहीं धन खूटे, कह गया दास कबीर।"
कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे पंछी आकर नदी का जल पीते हैं, लेकिन नदी का जल समाप्त नहीं होता, वैसे ही धर्म के कार्य करने से धन की कमी नहीं होती। धर्म-कर्म करने से धन घटता नहीं, बल्कि आत्मिक संतोष और पुण्य की वृद्धि होती है।
"जितना हेत हराम से, उतना हरि से होए।
सीधा जाए स्वर्ग में, उसका पल्लू न पकड़े कोए।"
यहाँ कबीरदास जी समझाते हैं कि यदि मनुष्य जितना प्रेम अधर्म या पाप कर्मों से करता है, उतना ही प्रेम यदि भगवान से करे, तो वह सीधे स्वर्ग को प्राप्त करता है। ऐसे व्यक्ति को किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता नहीं होती; वह स्वयं ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर लेता है।
इन पंक्तियों के माध्यम से कबीरदास जी हमें सिखाते हैं कि ईश्वर एक हैं, चाहे उपासना के तरीके भिन्न हों। धर्म-कर्म करने से धन की कमी नहीं होती, बल्कि आत्मिक समृद्धि मिलती है। और यदि हम अपने प्रेम और समर्पण को अधर्म से हटाकर भगवान की ओर केंद्रित करें, तो मोक्ष की प्राप्ति संभव है।
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