दैनिक जीवन में गीता Geeta Bhajan Gita in Daily Life
मुझसे परे कुछ भीं नहीं, संसार का विस्तार है।
जिस भांति माला में मणी, मुझमें गुंथा संसार है ।।१।।
जो देखता मुझमें सभी को, और मुझको सब कहीं।
मैं दूर उस नर से नहीं, वह दूर मुझसे है नहीं ।।२।।
युक्तात्म समदर्शी पुरुष, सर्वत्र ही देखे सदा।
मै प्राणियों में और प्राणी मात्र मुझमें सर्वदा ।।३।।
सर्वत्र उसके पाणि पद, सिर नेत्र मुख सब और ही।
सब और उसके कान है, सर्वत्र फैला है वही ।।४।।
मै जन्मदाता हूं सभी मुझसे प्रवर्तित तात है।
यह ज्ञान ज्ञानी भक्त भजते भाव से दिन रात है ।।५।।
जिस भांति जो भजते मुझे, उस भांति दू फल-भोग भी।
सब ओर से ही वर्तते, मम मार्ग में मानव सभी ।।६।।
जो जो कि जिस जिस रूप की, पूजा करे नर नित्य ही।
उस भक्त की करता उसी में, मै अचल श्रद्धा वही ।।७।।
उस देवता को पूजता फिर, वह वही श्रद्धा लिए।
निज इष्ट-फल पाता सकल, निर्माण जो मैंने किये ।।८।।
मै सर्वजीवों के ह्रदय में अन्तरात्मा पार्थ! हूं।
सब प्राणियों का आदि एवं मध्य अन्त यथार्थ हूं ।।९।।
द्रष्टा व अनुमन्ता सदा भर्ता प्रभोक्ता शिव महा।
इस देह में परमात्मा उस पर-पुरुष को है कहा ।।१०।।
अविनाशि, नश्वर सर्वभूतों में रहे सम नित्य ही।
इस भांति ईश्वर को पुरुष जो देखता देखे वही ।।११।।
जग का पिता माता पितामह विश्व-पोषण हार हूं।
रुक्साम यजु श्रुति जानने के योग्य शुचि ओंकार हूं ।।१२।।
जाने मुझे तप यज्ञ भोक्ता लोक स्वामी नित्य ही।
सब प्राणियों का मित्र जाने शांति पाता है वही ।।१३।।
हे पार्थ! जब जब धर्म घटता और बढ़ता पाप ही।
तब तब प्रकट मै रूप अपना नित्य करता आप ही ।।१४।।
सज्जन जनोंका त्राणकरने दुष्ट-जन-संहार-हित।
युग-युग प्रकट होता स्वयं मैं, धर्म के उद्धार हित ।।१५।।
भजता मुझे जो जन सदैव अनन्य मन से प्रीति से।
नित युक्त योगी वह मुझे पाता सरल-सी रीति से ।।१६।।
जो जन मुझे भजते सदैव अनन्य-भावापन्न हो।
उनका स्वयं मैं ही चलाता योग-क्षेम प्रसन्न हो ।।१७।।
अर्पण करे जो फूल फल, जल पत्र मुझको भक्ति से।
लेता प्रयत-चित भक्त की वह भेंट मैं अनुरक्ति से ।।१८।।
इस लोक में परलोक में वह नष्ट होता है नहीं।
कल्याणकारी-कर्म करने में नहीं दुर्गति कहीं ।।१९।।
तज धर्म सारे एक मेरी ही शरण को प्राप्त हो।
मैं मुक्त पापों से करूँगा तू न चिन्ता-व्याप्त हो ।।२०।।
आरम्भ इसमें है अमिट यह विध्न बाधा से परे।
इस धर्म का पालन तनिक भी सर्व संकट को हरे ।।६०।।
जो मत्परायण इस अमृत - मय धर्म में अनुरक्त हैं।
वे नित्य श्रध्धावान् जन मेरे परम प्रिय भक्त हैं ।।६१।।
ॐ तत्सतदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्मविद्यां
योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे श्रीमद्भगवद्गीता सारंश:।।
हरि: ॐ तत् सत् । हरि: ॐ तत् सत् । हरि: ॐ तत् सत् ।
श्री कृष्णार्पणम् अस्तु ।।
जिस भांति माला में मणी, मुझमें गुंथा संसार है ।।१।।
जो देखता मुझमें सभी को, और मुझको सब कहीं।
मैं दूर उस नर से नहीं, वह दूर मुझसे है नहीं ।।२।।
युक्तात्म समदर्शी पुरुष, सर्वत्र ही देखे सदा।
मै प्राणियों में और प्राणी मात्र मुझमें सर्वदा ।।३।।
सर्वत्र उसके पाणि पद, सिर नेत्र मुख सब और ही।
सब और उसके कान है, सर्वत्र फैला है वही ।।४।।
मै जन्मदाता हूं सभी मुझसे प्रवर्तित तात है।
यह ज्ञान ज्ञानी भक्त भजते भाव से दिन रात है ।।५।।
जिस भांति जो भजते मुझे, उस भांति दू फल-भोग भी।
सब ओर से ही वर्तते, मम मार्ग में मानव सभी ।।६।।
जो जो कि जिस जिस रूप की, पूजा करे नर नित्य ही।
उस भक्त की करता उसी में, मै अचल श्रद्धा वही ।।७।।
उस देवता को पूजता फिर, वह वही श्रद्धा लिए।
निज इष्ट-फल पाता सकल, निर्माण जो मैंने किये ।।८।।
मै सर्वजीवों के ह्रदय में अन्तरात्मा पार्थ! हूं।
सब प्राणियों का आदि एवं मध्य अन्त यथार्थ हूं ।।९।।
द्रष्टा व अनुमन्ता सदा भर्ता प्रभोक्ता शिव महा।
इस देह में परमात्मा उस पर-पुरुष को है कहा ।।१०।।
अविनाशि, नश्वर सर्वभूतों में रहे सम नित्य ही।
इस भांति ईश्वर को पुरुष जो देखता देखे वही ।।११।।
जग का पिता माता पितामह विश्व-पोषण हार हूं।
रुक्साम यजु श्रुति जानने के योग्य शुचि ओंकार हूं ।।१२।।
जाने मुझे तप यज्ञ भोक्ता लोक स्वामी नित्य ही।
सब प्राणियों का मित्र जाने शांति पाता है वही ।।१३।।
हे पार्थ! जब जब धर्म घटता और बढ़ता पाप ही।
तब तब प्रकट मै रूप अपना नित्य करता आप ही ।।१४।।
सज्जन जनोंका त्राणकरने दुष्ट-जन-संहार-हित।
युग-युग प्रकट होता स्वयं मैं, धर्म के उद्धार हित ।।१५।।
भजता मुझे जो जन सदैव अनन्य मन से प्रीति से।
नित युक्त योगी वह मुझे पाता सरल-सी रीति से ।।१६।।
जो जन मुझे भजते सदैव अनन्य-भावापन्न हो।
उनका स्वयं मैं ही चलाता योग-क्षेम प्रसन्न हो ।।१७।।
अर्पण करे जो फूल फल, जल पत्र मुझको भक्ति से।
लेता प्रयत-चित भक्त की वह भेंट मैं अनुरक्ति से ।।१८।।
इस लोक में परलोक में वह नष्ट होता है नहीं।
कल्याणकारी-कर्म करने में नहीं दुर्गति कहीं ।।१९।।
तज धर्म सारे एक मेरी ही शरण को प्राप्त हो।
मैं मुक्त पापों से करूँगा तू न चिन्ता-व्याप्त हो ।।२०।।
आरम्भ इसमें है अमिट यह विध्न बाधा से परे।
इस धर्म का पालन तनिक भी सर्व संकट को हरे ।।६०।।
जो मत्परायण इस अमृत - मय धर्म में अनुरक्त हैं।
वे नित्य श्रध्धावान् जन मेरे परम प्रिय भक्त हैं ।।६१।।
ॐ तत्सतदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्मविद्यां
योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे श्रीमद्भगवद्गीता सारंश:।।
हरि: ॐ तत् सत् । हरि: ॐ तत् सत् । हरि: ॐ तत् सत् ।
श्री कृष्णार्पणम् अस्तु ।।
- तेरे अंदरो मैल ना जावे Tere Andaro Mail Na Jaave
- सांसो का क्या भरोसा रुक जाए चलते चलते Sanso Ka Kya Bharosa
- सानू दुनिया ने दिता ठुकरा Sanu Duniyan Ne Dita Thukra
- गुरुजी मेरा अवगुण भरा शरीर बतादो कैसे तारोगे Guruji Mera Avgun Bhara Sharir
- सरकार तुम्हारे चरणों में एक दीन भिखारी आया है Sarkar Tumhare Charano Me
- जय जय पितर जी महाराज Jay Jay Pitar Ji Maharaj Pitar Aarti
Author - Saroj Jangir
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