बालम आवो हमारे गेह रे कबीर पद मीनिंग
बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।
दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।
है कोई ऐसा पर-उपकारी, पिवासों कहै सुनाय रे।
अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे।।
Baalam, Aavo Hamaare Geh Re.
Tum Bin Dukhiya Deh Re.
Sab Koee Kahai Tumhaaree Naaree, Mokon Lagat Laaj Re.
Dil Se Nahin Lagaaya, Tab Lag Kaisa Saneh Re.
Ann Na Bhaavai Neend Na Aavai, Grh-ban Dharai Na Dheer Re.
Kaamin Ko Hai Baalam Pyaara, Jyon Pyaase Ko Neer Re.
Hai Koee Aisa Par-upakaaree, Pivaason Kahai Sunaay Re.
Ab To Behaal Kabeer Bhayo Hai, Bin Dekhe Jiv Jaay Re. बालम आवो हमारे गेह रे-शब्दार्थ
बालम, प्रेमी / पूर्ण परमात्मा।यहाँ पर पूर्ण परमात्मा को बालम कहा गया है. lover, sweetheart
आवो हमारे गेह रे-आप मेरे घर पर आवो. o, dear, come on
तुम बिन-आपके (हरी) बिना.
दुखिया देह रे-मेरी आत्मा और देह दुखी है. a destitute or starved person, miserable
सब कोई कहै-हर कोई यही कहता है. All, Every, Total
तुम्हारी नारी-मैं आपकी नारी हूँ/मैं आपको समर्पित हूँ.
मोकों लगत लाज रे-मुझे इससे लाज आती है/शर्म आती है. honour, bashfulness, mod-esty, sense of decency
दिल से नहीं लगाया-आपने मुझे अपने हृदय में स्थान नहीं दिया है.
तब लग कैसा सनेह रे-जब आपने हृदय से नहीं लगाया तो इसे कैसे स्नेह कहा जा सकता है.
अन्न न भावै नींद न आवै-मुझे अन्न नहीं भाता है. मेरी भूख प्यास नहीं रही है.
गृह-बन धरै न धीर रे-अब मुझे धीरज नहीं है, धैर्य नहीं है.
कामिन को है बालम प्यारा-मैं कामिनी हूँ और मुझे आपसे ही प्रेम है.
ज्यों प्यासे को नीर रे-जैसे प्यासे व्यक्ति को जल की आवश्यकता होती है.
है कोई ऐसा पर-उपकारी- ऐसा कौन है परोपकारी.
पिवासों कहै सुनाय रे-जो प्रिय से मेरी वेदना को कह सके.
अब तो बेहाल कबीर भयो है-अब मेरा हाल बेहाल हो गया है.
बिन देखे जिव जाय रे-आपको देखे बिना मेरे प्राण निकलने को हैं.
कबीर के इस पद (बालम आओ हमारे गेह रे) का हिंदी मीनिंग हिंदी शब्दार्थ के साथ दिया गया है।
बालम : प्रेमी / पूर्ण परमात्मा।
गेह रे : घर।
दुखिया देह : तुम्हारे बिना मैं दुखी हूँ। /जीवात्मा परमात्मा के दर्शन के बगैर अधूरी है।
मोकों लगत लाज रे : मुझे शर्म आती है क्योंकि तुम मेरे पास नहीं हो।
कैसा सनेह रे : यदि मुझसे दिल नहीं लगाया है, तुम मेरे पास नहीं हो तो स्नेह झूठा ही है। / यदि जीव पूर्ण परमात्मा को प्राप्त नहीं करता है तो उसकी भक्ति अधूरी ही है।
कामिन : प्रेमिका
पिवासों : प्रिय से।
कबीर साहेब निर्गुण भक्ति धारा को मानने वाले हैं लेकिन यहाँ पर प्रेम को साकार बताया है। सांसारिक सबंधों का उदाहरण देकर निराकार प्रेम को प्रतीकात्मक रूप से परिभाषित किया गया है। ईश्वर को पति मानकर उसे अपने पास बुलाने से भाव यही है की आत्मा परमात्मा के दर्शन की प्यासी है। ईश्वर के दर्शन के लिए मन व्याकुल है और नैन प्यासे हैं। इस दुखिया को दर्शन दो मेरे स्वामी। इस पद में स्त्री को आधार बना कर बिरह को दर्शाया गया है। यहाँ पर बिरह से भाव ईश्वर की प्राप्ति और जतन से सबंधित है। जैसे कोई अपने अविनाशी प्रिय की याद में तड़पता है वैसे ही यह जीव अपने मालिक की प्राप्ति के लिए व्याकुल है। अपने प्रिय से जुदा हो चुकी स्त्री कहती है की सभी लोग मुझे तुम्हारी नारी कहते हैं, इससे मुझे लाज आती है क्योंकि तुम तो मुझसे दूर हो।
यदि सच्चा दिल नहीं लगाया है तो प्रेम कैसा स्नेह कैसा ? भाव है की यदि अपने मालिक के प्रति सच्चा समर्पण नहीं है तो इसे प्रेम नहीं कहा जा सकता है। बिरह के कारन उसे अन्न भी अच्छा नहीं लगता है। ना उसका चित्त कहीं पर लगता है। वह रुदन कर रही है, दुखी है और उसके नयन दर्शन के प्यासे हैं। जैसे प्यासे व्यक्ति को पानी की जरूरत होती है वैसे ही उसे अपने प्रिय के दर्शन की प्यास है। कोई उस प्रिय से कह दे की बिना उसे देखे प्राण निकलने को हैं।
यहाँ साहेब की वाणी है की भक्ति की यह चरम स्थिति है जहाँ पर अपने मालिक के प्रति सच्चा और पूर्ण समर्पण है। बिना अपने मालिक को देखे उसे सांसारिक जगत का कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। यह व्याकुलता है जीव के, आत्मा के परमात्मा में समां जाने की। इस पद में रहसयवाद का भी चित्रण होता है। इस पद में सधुकड़ि भाषा का उपयोग किया गया है।
मैं अपने साहब संग चली।
हाय में नारियल मुख में बीड़ा,
मोतियन माँग भरी।
लिल्ली घोड़ी जरद बछेड़ी,
तापै चढ़ि के चली।
नदी किनारे सतगुरु भेंटे,
तुरंत जनम सुधरी ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो,
दोउ कुल तारि चली ।
कबीर साहेब 15 वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत हैं, जिनके लेखन, कुछ विद्वानों के अनुसार, हिंदू धर्म के भक्ति आंदोलन से प्रभावित थे। कबीर साहेब का ईश्वर के प्रति निर्गुण दृष्टिकोण रहा है, वे ईश्वर को मालिक मानते हैं और सम्पूर्ण जगत का स्वामी भी। उसे किसी आकार में ढ़ालने के वे विरोधी रहे हैं क्योंकि इससे धार्मिक आडंबरों को बढ़ावा मिलता है। हालाँकि "भक्ति" शब्द का उल्लेख श्रीमद्भगवद् गीता में कई बार किया गया है और भगवद गीता हजारों वर्षों से कबीर से पहले का है। कबीर साहेब ने धर्म के स्थान पर मानवता को प्राथमिकता दी और बताया की की कोई भी धर्म मानवता से बड़ा नहीं हो सकता है। गुरु की पहचान और गुरु की महिमा का साहेब ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। हालाँकि कबीर साहेब अनपढ़ थे "मसि कागज छुयो नहीं" से भाव यही है की कबीर साहेब ने अपनी वाणी को लिपिबद्ध नहीं किया। हिंदी में अवधी, ब्रज और भोजपुरी को मिलाकर अपनी कविताएँ लिखी थीं, इसीलिए मिली जुली भाषा होने के कारन इनकी भाषा को सधुकड़ी भाषा कहा जाता है । समाज के हासिये पर जा चुके लोगों का कबीर साहेब को पूर्ण समर्थन था लेकिन धर्म के ठेकेदार और सामंतवादी शक्तियाँ सदा ही उनको दबाने में लगी रहती थी। हालांकि कबीर साहेब उनके झगड़ों में कभी शामिल नहीं हुए।
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