खुलि खेलो संसार में बाँधि सके न कोय हिंदी मीनिंग Khuli Khelo Sansar Me Meaning
खुलि खेलो संसार में बाँधि सके न कोय हिंदी मीनिंग Khuli Khelo Sansar Me Meaning : Kabir Ke Dohe
खुलि खेलो संसार में, बाँधि सके न कोय,
घाट घटाती क्या करे सिर पर पोट न कोय.
Or
खुलि खेलो संसार में बांधि न सक्कै कोय,
घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय.
Khuli Khelo Sansar Me, Bandhi Na Sake Koy,
Ghat Jagati Kya Kare, Sir Par Pot Na Hoy.
घाट घटाती क्या करे सिर पर पोट न कोय.
Or
खुलि खेलो संसार में बांधि न सक्कै कोय,
घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय.
Khuli Khelo Sansar Me, Bandhi Na Sake Koy,
Ghat Jagati Kya Kare, Sir Par Pot Na Hoy.
कबीर साहेब के इस दोहे का अर्थ है की इस जगत में कुछ प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को स्वंय को नियंत्रित में रखना बहुत महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति आत्म-वश में रहकर स्वयं को मोह और विषयों से दूर रखता है, वह जीवन में सच्ची खुशियाँ और आनंद का अनुभव करता है। यदि संसार में उन्मुक्त रूप से जीवन का आनंद लेना है तो अपने सर से माया, लालच और तृष्णा की गठरी को फ़ेंक दो। जब तुम्हारे सर पर लालच और माया की गठरी नहीं होगी तो घाट घटाती ( चुंगी लेने वाला ) तुम्हारा क्या कर सकेगा क्योंकि तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं।
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि ।
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग ।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास ।
कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान ।
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय ।
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।
कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय ।
तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास ।
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग ।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास ।
कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान ।
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय ।
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।
कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय ।
तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास ।
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥