महाकवि रामधारी सिंह दिनकर जानिये प्रसिद्ध कविताएं
रामधारी सिंह दिनकर हिंदी साहित्य के ऐसे महान कवि और लेखक थे, जिनकी लेखनी में सूर्य की तरह तेज़ और ऊर्जा थी। उनकी कविताएँ न केवल उनके समय के लिए प्रेरणा बनीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी नई दिशा और जोश देती रहीं। दिनकर जी ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रप्रेम, सामाजिक न्याय और विद्रोह की भावनाओं को इतनी सजीवता से पिरोया कि वे आज भी लोगों के दिलों में गहराई तक बसती हैं। उनकी लेखनी ने हिंदी साहित्य को एक नई ऊंचाई पर पहुँचाया। आइये दिनकर जी की कविताओं के बारे में जान लेते हैं।
कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी,
चिटकाई जिनमें चिंगारी।
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे।
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ,
उगल रही सौ लपट दिशाएँ।
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा।
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
जला अस्थियाँ बारी-बारी,
चिटकाई जिनमें चिंगारी।
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे।
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ,
उगल रही सौ लपट दिशाएँ।
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा।
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
कृष्ण की चेतावनी
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आए कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आए,
पांडव का संदेशा लाए।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रखो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खाएंगे,
परिजन पर असि न उठाएंगे!’
दुर्योधन वह भी दे न सका,
आशीर्वाद समाज का ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुष्य पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अंदर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चंद्र,
शत कोटि सरित, सर, सिंधु मंद्र।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दंडधर लोकपाल।
जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।
‘अंबर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जब भी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनंत गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा,
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुष्यों के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जन्मते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
"देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?"
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिए, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"
धुँधली हुई दिशाएँ
धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज़ रो रहा है?
दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे;
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ,
चढ़ती जवानियों का शृंगार माँगता हूँ।
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तम-वेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ,
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ।
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल-पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है।
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ, ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेरा हो रहा है।
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है;
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता है,
जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता है।
मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,
अरमान-आरजू की लाशें निकल रही हैं।
भींगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुंधरा जब तुझको पुकारते हैं।
इनके लिए कहीं से निर्भीक तेज़ ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ,
विस्फोट माँगता हूँ, तूफ़ान माँगता हूँ।
आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे श्मशान में आ शृंगी ज़रा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगानेवाली शिखा नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ,
बेचैन ज़िंदगी का मैं प्यार माँगता हूँ।
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उस पर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता, विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।
फलेगी डालों में तलवार
धनी दे रहे सकल सर्वस्व,
तुम्हें इतिहास दे रहा मान।
सहस्रों बलशाली शार्दूल,
चरण पर चढ़ा रहे हैं प्राण।
दौड़ती हुई तुम्हारी ओर,
जा रही हैं नदियाँ विकल, अधीर।
करोड़ों आँखें पगली हुईं,
ध्यान में झलक उठी तस्वीर।
पटल जैसे-जैसे उठ रहा,
फैलता जाता है भू-डोल।
हिमालय रजत-कोष ले खड़ा,
हिंद-सागर ले खड़ा प्रवाल।
देश के दरवाज़े पर रोज़,
खड़ी होती ऊषा ले माल।
कि जाने तुम आओ किस रोज़,
बजाते नूतन रुद्र-विषाण।
किरण के रथ पर हो आसीन,
लिए मुट्ठी में स्वर्ण-विहान।
स्वर्ग, जो हाथों को है दूर,
खेलता उससे भी मन लुब्ध।
धनी देते जिसको सर्वस्व,
चढ़ाते बली जिसे निज प्राण।
उसी का लेकर पावन नाम,
क़लम बोती है अपने गान।
गान, जिनके भीतर संतप्त,
जाति का जलता है आकाश।
उबलते गरल, द्रोह, प्रतिशोध,
दर्प से बलता है विश्वास।
देश की मिट्टी का असि-वृक्ष,
गान-तरु होगा जब तैयार।
खिलेंगे अंगारों के फूल,
फलेगी डालों में तलवार।
चटकती चिनगारी के फूल,
सजीले वृंतों के शृंगार।
विवशता के विषजल में बुझी,
गीत की, आँसू की तलवार।
तुम्हें इतिहास दे रहा मान।
सहस्रों बलशाली शार्दूल,
चरण पर चढ़ा रहे हैं प्राण।
दौड़ती हुई तुम्हारी ओर,
जा रही हैं नदियाँ विकल, अधीर।
करोड़ों आँखें पगली हुईं,
ध्यान में झलक उठी तस्वीर।
पटल जैसे-जैसे उठ रहा,
फैलता जाता है भू-डोल।
हिमालय रजत-कोष ले खड़ा,
हिंद-सागर ले खड़ा प्रवाल।
देश के दरवाज़े पर रोज़,
खड़ी होती ऊषा ले माल।
कि जाने तुम आओ किस रोज़,
बजाते नूतन रुद्र-विषाण।
किरण के रथ पर हो आसीन,
लिए मुट्ठी में स्वर्ण-विहान।
स्वर्ग, जो हाथों को है दूर,
खेलता उससे भी मन लुब्ध।
धनी देते जिसको सर्वस्व,
चढ़ाते बली जिसे निज प्राण।
उसी का लेकर पावन नाम,
क़लम बोती है अपने गान।
गान, जिनके भीतर संतप्त,
जाति का जलता है आकाश।
उबलते गरल, द्रोह, प्रतिशोध,
दर्प से बलता है विश्वास।
देश की मिट्टी का असि-वृक्ष,
गान-तरु होगा जब तैयार।
खिलेंगे अंगारों के फूल,
फलेगी डालों में तलवार।
चटकती चिनगारी के फूल,
सजीले वृंतों के शृंगार।
विवशता के विषजल में बुझी,
गीत की, आँसू की तलवार।
प्रभाती- रामधारी सिंह दिनकर
रे प्रवासी, जाग, तेरे
देश का संवाद आया।
भेदमय संदेश सुन पुलकित
खगों ने चंचु खोली;
प्रेम से झुक-झुक प्रणति में
पादपों की पंक्ति डोली;
दूर प्राची की तटी से
विश्व के तृण-तृण जगाता;
फिर उदय की वायु का वन में
सुपरिचित नाद आया।
रे प्रवासी, जाग, तेरे
देश का संवाद आया।
व्योम-सर में हो उठा विकसित
अरुण आलोक-शतदल;
चिर-दुखी धरणी विभा में
हो रही आनंद-विह्वल।
चूमकर प्रति रोम से सिर
पर चढ़ा वरदान प्रभु का,
रश्मि-अंजलि में पिता का
स्नेह-आशीर्वाद आया।
रे प्रवासी, जाग, तेरे
देश का संवाद आया।
सिंधु-तट का आर्य भावुक
आज जग मेरे हृदय में,
खोजता, उद्गम विभा का
दीप्त-मुख विस्मित उदय में;
उग रहा जिस क्षितिज-रेखा
से अरुण, उसके परे क्या?
एक भूला देश धूमिल,
सा मुझे क्यों याद आया?
रे प्रवासी, जाग, तेरे
देश का संवाद आया।
मेरे नगपति, मेरे विशाल,
साकार, दिव्य, गौरव विराट।
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल,
मेरी जननी के हिम-किरीट।
मेरे भारत के दिव्य भाल,
मेरे नगपति, मेरे विशाल।
युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान।
निस्सीम व्योम में तान रहा,
युग से किस महिमा का वितान।
कैसी अखंड यह चिर-समाधि,
यतिवर, कैसा यह अमर ध्यान।
तू महाशून्य में खोज रहा,
किस जटिल समस्या का निदान।
उलझन का कैसा विषम जाल,
मेरे नगपति, मेरे विशाल।
ओ मौन, तपस्या-लीन यती,
पल भर को तो कर दृगुन्मेष।
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल,
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार।
जिस पुण्यभूमि की ओर बही,
तेरी विगलित करुणा उदार।
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत,
सीमापति, तूने की पुकार।
'पद-दलित इसे करना पीछे,
पहले ले मेरा सिर उतार।'
उस पुण्य भूमि पर आज तपी,
रे, आन पड़ा संकट कराल।
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे,
डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति, मेरे विशाल।
कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा,
कितना मेरा वैभव अशेष।
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर,
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
किन द्रौपदियों के बाल खुले?
किन-किन कलियों का अंत हुआ?
कह, हृदय खोल चित्तौर, यहाँ,
कितने दिन ज्वाल-वसंत हुआ?
पूछे सिकता-कण से हिमपति,
तेरा वह राजस्थान कहाँ?
वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिये,
फिरनेवाला बलवान कहाँ?
तू पूछ, अवध से राम कहाँ?
वृंदा, बोलो, घनश्याम कहाँ?
ओ मगध, कहाँ मेरे अशोक?
वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ?
पैरों पर ही है पड़ी हुई,
मिथिला, भिखारिणी सुकुमारी।
तू पूछ, कहाँ इसने खोईं,
अपनी अनंत निधियाँ सारी।
री, कपिलवस्तु, कह बुद्धदेव,
के वे मंगल-उपदेश कहाँ?
तिब्बत, इरान, जापान, चीन,
तक गये हुए संदेश कहाँ?
वैशाली के भग्नावशेष से,
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गंडकी, बता,
विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अंबुधि-अंतस्तल-बीच छिपी,
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल।
तू सिंहनाद कर जाग तपी,
मेरे नगपति, मेरे विशाल।
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर।
पर, फिरा हमें गांडीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें,
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर बम' का फिर महोच्चार।
ले अँगड़ाई, उठ, हिले धरा,
कर निज विराट स्वर में निनाद।
तू शैलराट, हुंकार भरे,
फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
रे तपी, आज तप का न काल।
नव-युग शंखध्वनि जगा रही,
तू जाग, जाग, मेरे विशाल।
साकार, दिव्य, गौरव विराट।
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल,
मेरी जननी के हिम-किरीट।
मेरे भारत के दिव्य भाल,
मेरे नगपति, मेरे विशाल।
युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान।
निस्सीम व्योम में तान रहा,
युग से किस महिमा का वितान।
कैसी अखंड यह चिर-समाधि,
यतिवर, कैसा यह अमर ध्यान।
तू महाशून्य में खोज रहा,
किस जटिल समस्या का निदान।
उलझन का कैसा विषम जाल,
मेरे नगपति, मेरे विशाल।
ओ मौन, तपस्या-लीन यती,
पल भर को तो कर दृगुन्मेष।
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल,
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार।
जिस पुण्यभूमि की ओर बही,
तेरी विगलित करुणा उदार।
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत,
सीमापति, तूने की पुकार।
'पद-दलित इसे करना पीछे,
पहले ले मेरा सिर उतार।'
उस पुण्य भूमि पर आज तपी,
रे, आन पड़ा संकट कराल।
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे,
डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति, मेरे विशाल।
कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा,
कितना मेरा वैभव अशेष।
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर,
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
किन द्रौपदियों के बाल खुले?
किन-किन कलियों का अंत हुआ?
कह, हृदय खोल चित्तौर, यहाँ,
कितने दिन ज्वाल-वसंत हुआ?
पूछे सिकता-कण से हिमपति,
तेरा वह राजस्थान कहाँ?
वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिये,
फिरनेवाला बलवान कहाँ?
तू पूछ, अवध से राम कहाँ?
वृंदा, बोलो, घनश्याम कहाँ?
ओ मगध, कहाँ मेरे अशोक?
वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ?
पैरों पर ही है पड़ी हुई,
मिथिला, भिखारिणी सुकुमारी।
तू पूछ, कहाँ इसने खोईं,
अपनी अनंत निधियाँ सारी।
री, कपिलवस्तु, कह बुद्धदेव,
के वे मंगल-उपदेश कहाँ?
तिब्बत, इरान, जापान, चीन,
तक गये हुए संदेश कहाँ?
वैशाली के भग्नावशेष से,
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गंडकी, बता,
विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अंबुधि-अंतस्तल-बीच छिपी,
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल।
तू सिंहनाद कर जाग तपी,
मेरे नगपति, मेरे विशाल।
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर।
पर, फिरा हमें गांडीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें,
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर बम' का फिर महोच्चार।
ले अँगड़ाई, उठ, हिले धरा,
कर निज विराट स्वर में निनाद।
तू शैलराट, हुंकार भरे,
फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
रे तपी, आज तप का न काल।
नव-युग शंखध्वनि जगा रही,
तू जाग, जाग, मेरे विशाल।
मंगल-आह्वान
रामधारी सिंह 'दिनकर'
भावों के आवेग प्रबल,
मचा रहे उर में हलचल।
कहते, उर के बाँध तोड़,
स्वर-स्रोतों में बह-बह अनजान।
तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को,
छा लेंगे हम बनकर गान।
पर, हूँ विवश, गान से कैसे,
जग को हाय, जगाऊँ मैं?
इस तमिस्त्र युग-बीच ज्योति की,
कौन रागिनी गाऊँ मैं?
बाट जोहता हूँ लाचार,
आओ, स्वरसम्राट उदार।
पल भर को मेरे प्राणों में,
ओ विराट गायक, आओ।
इस वंशी पर रसमय स्वर में,
युग-युग के गायन गाओ।
वे गायन, जिनके न आज तक,
गाकर सिरा सका जल-थल।
जिनकी तान-तान पर आकुल,
सिहर-सिहर उठता उडु-दल।
आज सरित का कल-कल छल-छल,
निर्झर का अविरल झर-झर।
पावस की बूँदों की रिम-झिम,
पीले पत्तों का मर्मर।
जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,
अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन।
मेरी वंशी के छिद्रों में,
भर दो ये मधु-स्वर चुन-चुन।
दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
उठें प्रभाती राग महान।
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में,
जागें सुप्त भुवन के प्राण।
गत विभूति, भावी की आशा,
ले युगधर्म पुकार उठे।
सिंहों की घन-अंध गुहा में,
जागृति की हुंकार उठे।
जिनका लुटा सुहाग, हृदय में,
उनके दारुण हूक उठे।
चीखूँ यों कि याद कर ऋतुपति,
की कोयल रो कूक उठे।
प्रियदर्शन इतिहास कंठ में,
आज ध्वनित हो काव्य बने।
वर्तमान की चित्रपटी पर,
भूतकाल सम्भाव्य बने।
जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में,
भर दो वहाँ विभा प्यारी।
दुर्बल प्राणों की नस-नस में,
देव, फूँक दो चिनगारी।
ऐसा दो वरदान, कला को,
कुछ भी रहे अजेय नहीं।
रजकण से ले पारिजात तक,
कोई रूप अगेय नहीं।
प्रथम खिली जो मधुर ज्योति,
कविता बन तमसा-कूलों में।
जो हँसती आ रही युगों से,
नभ-दीपों, वनफूलों में।
सूर, सूर, तुलसी-शशि जिसकी,
विभा यहाँ फैलाते हैं।
जिसके बुझे कणों को पा कवि,
अब खद्योत कहाते हैं।
उसकी विभा प्रदीप्त करे,
मेरे उर का कोना-कोना।
छू दे यदि लेखनी, धूल भी,
चमक उठे बनकर सोना।
२३ दिसम्बर १९३३ ई.
रामधारी सिंह 'दिनकर'
भावों के आवेग प्रबल,
मचा रहे उर में हलचल।
कहते, उर के बाँध तोड़,
स्वर-स्रोतों में बह-बह अनजान।
तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को,
छा लेंगे हम बनकर गान।
पर, हूँ विवश, गान से कैसे,
जग को हाय, जगाऊँ मैं?
इस तमिस्त्र युग-बीच ज्योति की,
कौन रागिनी गाऊँ मैं?
बाट जोहता हूँ लाचार,
आओ, स्वरसम्राट उदार।
पल भर को मेरे प्राणों में,
ओ विराट गायक, आओ।
इस वंशी पर रसमय स्वर में,
युग-युग के गायन गाओ।
वे गायन, जिनके न आज तक,
गाकर सिरा सका जल-थल।
जिनकी तान-तान पर आकुल,
सिहर-सिहर उठता उडु-दल।
आज सरित का कल-कल छल-छल,
निर्झर का अविरल झर-झर।
पावस की बूँदों की रिम-झिम,
पीले पत्तों का मर्मर।
जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,
अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन।
मेरी वंशी के छिद्रों में,
भर दो ये मधु-स्वर चुन-चुन।
दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
उठें प्रभाती राग महान।
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में,
जागें सुप्त भुवन के प्राण।
गत विभूति, भावी की आशा,
ले युगधर्म पुकार उठे।
सिंहों की घन-अंध गुहा में,
जागृति की हुंकार उठे।
जिनका लुटा सुहाग, हृदय में,
उनके दारुण हूक उठे।
चीखूँ यों कि याद कर ऋतुपति,
की कोयल रो कूक उठे।
प्रियदर्शन इतिहास कंठ में,
आज ध्वनित हो काव्य बने।
वर्तमान की चित्रपटी पर,
भूतकाल सम्भाव्य बने।
जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में,
भर दो वहाँ विभा प्यारी।
दुर्बल प्राणों की नस-नस में,
देव, फूँक दो चिनगारी।
ऐसा दो वरदान, कला को,
कुछ भी रहे अजेय नहीं।
रजकण से ले पारिजात तक,
कोई रूप अगेय नहीं।
प्रथम खिली जो मधुर ज्योति,
कविता बन तमसा-कूलों में।
जो हँसती आ रही युगों से,
नभ-दीपों, वनफूलों में।
सूर, सूर, तुलसी-शशि जिसकी,
विभा यहाँ फैलाते हैं।
जिसके बुझे कणों को पा कवि,
अब खद्योत कहाते हैं।
उसकी विभा प्रदीप्त करे,
मेरे उर का कोना-कोना।
छू दे यदि लेखनी, धूल भी,
चमक उठे बनकर सोना।
२३ दिसम्बर १९३३ ई.
रामधारी सिंह 'दिनकर'
युद्ध नहीं जिनके जीवन में
वे भी बहुत अभागे होंगे
या तो प्रण को तोड़ा होगा
या फिर रण से भागे होंगे
दीपक का कुछ अर्थ नहीं है
जब तक तम से नहीं लड़ेगा
दिनकर नहीं प्रभा बाँटेगा
जब तक स्वयं नहीं धधकेगा
कभी दहकती ज्वाला के बिन
कुंदन भला बना है सोना
बिना घिसे मेहंदी ने बोलो
कब पाया है रंग सलौना
जीवन के पथ के राही को
क्षण भर भी विश्राम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।
अपना अपना युद्ध सभी को
हर युग में लड़ना पड़ता है
और समय के शिलालेख पर
खुद को खुद गढ़ना पड़ता है
सच की खातिर हरिश्चंद्र को
सकुटुम्ब बिक जाना पड़ता
और स्वयं काशी में जाकर
अपना मोल लगाना पड़ता
दासी बनकरके भरती है
पानी पटरानी पनघट में
और खड़ा सम्राट वचन के
कारण काशी के मरघट में
ये अनवरत लड़ा जाता है
होता युद्ध विराम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।
हर रिश्ते की कुछ कीमत है
जिसका मोल चुकाना पड़ता
और प्राण पण से जीवन का
हर अनुबंध निभाना पड़ता
सच ने मार्ग त्याग का देखा
झूठ रहा सुख का अभिलाषी
दशरथ मिटे वचन की खातिर
राम जिये होकर वनवासी
पावक पथ से गुजरीं सीता
रही समय की ऐसी इच्छा
देनी पड़ी नियति के कारण
सीता को भी अग्नि परीक्षा
वन को गईं पुनः वैदेही
निरपराध ही सुनो अकारण
जीतीं रहीं उम्रभर बनकर
त्याग और संघर्ष उदाहरण
लिए गर्भ में निज पुत्रों को
वन का कष्ट स्वयं ही झेला
खुद के बल पर लड़ा सिया ने
जीवन का संग्राम अकेला
धनुष तोड़ कर जो लाए थे
अब वो संग में राम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।
हमारे कृषक- रामधारी सिंह 'दिनकर'
भारत का यह रेशमी नगर- रामधारी सिंह 'दिनकर'
भारत धूलों से भरा, आँसुओं से गीला,
भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल,
पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में।
रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों,
तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में,
तुम भी क्या घर भर पेट बाँधकर सोये हो?
असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में,
क्या जल में बह जाते देखा है?
क्या खाएँगे? यह सोच निराशा से पागल,
बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?
देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को,
जिनकी आभा पर धूल अभी तक छाई है?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक
रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पाई है।
पर, तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले,
क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर
तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?
चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गाँव के जलने से,
दिल्ली में तो रोटियाँ नहीं कम होती हैं।
धुलता न अश्रु-बूँदों से आँखों का काजल,
गालों पर की धूलियाँ नहीं नम होती हैं।
जलते हैं तो ये गाँव, देश के जला करें,
आराम नई दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?
या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल,
या आँधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी।
भारत धूलों से भरा, आँसुओं से गीला,
भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में।
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल,
पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में।
रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों,
तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में,
तुम भी क्या घर भर पेट बाँधकर सोये हो?
असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में,
क्या जल में बह जाते देखा है?
क्या खाएँगे? यह सोच निराशा से पागल,
बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?
देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को,
जिनकी आभा पर धूल अभी तक छाई है?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक
रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पाई है।
पर, तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले,
क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर
तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?
चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गाँव के जलने से,
दिल्ली में तो रोटियाँ नहीं कम होती हैं।
धुलता न अश्रु-बूँदों से आँखों का काजल,
गालों पर की धूलियाँ नहीं नम होती हैं।
जलते हैं तो ये गाँव, देश के जला करें,
आराम नई दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?
या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल,
या आँधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी।
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है।
मुख में जीभ, शक्ति भुजा में, जीवन में सुख का नाम नहीं है,
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।
बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं,
बंधी जीभ, आँखें, विषम गम खा, शायद आँसू पीते हैं।
पर शिशु का क्या, सीख न पाया, अभी जो आँसू पीना,
चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना।
विवश देखती माँ आँचल से, नन्ही तड़प उड़ जाती,
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती।
कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है,
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है।
दूध-दूध औ वत्स! मंदिरों में बहरे पाषाण यहाँ है,
दूध-दूध तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं?
दूध-दूध गंगा, तू ही अपनी पानी को दूध बना दे,
दूध-दूध, उफ! कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे।
दूध-दूध, दुनिया सोती है, लाऊँ दूध कहाँ किस घर से?
दूध-दूध, हे देव गगन के, कुछ बूँदें टपका अम्बर से।
हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
दूध-दूध, हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है।
मुख में जीभ, शक्ति भुजा में, जीवन में सुख का नाम नहीं है,
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।
बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं,
बंधी जीभ, आँखें, विषम गम खा, शायद आँसू पीते हैं।
पर शिशु का क्या, सीख न पाया, अभी जो आँसू पीना,
चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना।
विवश देखती माँ आँचल से, नन्ही तड़प उड़ जाती,
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती।
कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है,
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है।
दूध-दूध औ वत्स! मंदिरों में बहरे पाषाण यहाँ है,
दूध-दूध तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं?
दूध-दूध गंगा, तू ही अपनी पानी को दूध बना दे,
दूध-दूध, उफ! कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे।
दूध-दूध, दुनिया सोती है, लाऊँ दूध कहाँ किस घर से?
दूध-दूध, हे देव गगन के, कुछ बूँदें टपका अम्बर से।
हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
दूध-दूध, हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।
परशुराम की प्रतीक्षा- रामधारी सिंह 'दिनकर'
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात, खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो! कमजोर अभागो?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते हैं;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती हैं तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे!
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे!
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात, खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो! कमजोर अभागो?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते हैं;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती हैं तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे!
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे!
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
रामधारी सिंह दिनकर - जीवन परिचय
राष्ट्रकवि के रूप में समादृत रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग्राम में एक कृषक परिवार में हुआ। उनका बचपन संघर्षमय था क्योंकि स्कूल जाने के लिए उन्हें पैदल चलकर गंगा घाट जाना पड़ता था और फिर गंगा के पार उतरकर आगे पैदल यात्रा करनी होती थी। पटना विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने पहले अध्यापक के रूप में कार्य किया और फिर बिहार सरकार में सब-रजिस्टार की नौकरी की। दिनकर अँग्रेज़ सरकार के युद्ध-प्रचार विभाग में भी रहे, लेकिन इसके बावजूद वे अपने विरोधी विचारों से पीछे नहीं हटे और स्वतंत्रता संग्राम के लिए कविताएँ लिखते रहे।
काव्य यात्रा और कृतियाँ
दिनकर की काव्य-यात्रा की शुरुआत हाई स्कूल के दिनों से हुई थी, जब उन्होंने रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘युवक’ में अपनी रचनाएँ भेजनी शुरू की थीं। 1928 में उनका पहला काव्य-संग्रह 'बारदोली-विजय' प्रकाशित हुआ। दिनकर ने मुक्तक काव्य और प्रबंध काव्य दोनों की रचना की। उनके प्रमुख मुक्तक काव्य संग्रहों में 'प्रणभंग', 'रेणुका', 'हुँकार', 'रसवंती' आदि शामिल हैं, जबकि 'कुरुक्षेत्र', 'रश्मिरथी' और 'उर्वशी' उनके प्रसिद्ध प्रबंध काव्य हैं। वे कवि ही नहीं, बल्कि गद्य लेखक भी थे, जिन्होंने निबंध, संस्मरण, आलोचना और इतिहास पर कई पुस्तकें लिखी।
सम्मान और पुरस्कार
रामधारी सिंह दिनकर को उनकी काव्य कृतियों के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। 'संस्कृति के चार अध्याय' पुस्तक के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला, और 'उर्वशी' के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। भारत सरकार ने उन्हें 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया और उनकी स्मृति में डाक-टिकट भी जारी किया। दिनकर का योगदान भारतीय साहित्य में अतुलनीय है और उनका नाम आज भी भारत के सर्वश्रेष्ठ कवियों में लिया जाता है।
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Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं एक विशेषज्ञ के रूप में रोचक जानकारियों और टिप्स साझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें। |