दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय,
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय।
तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं,
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।
माला फेरत जग भय, फिर न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय,
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।
जैसा भोजन खाइए, तैसा ही मन होय,
जैसा पानी पीजिए, तैसी वाणी होय।
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार,
साधू वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर,
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।
कहे कबीर कैसे निबाहे, केर बेर को संग,
वह झुमत रस आपनी, उसके फाटत अंग।
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय,
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय।
गुरु गोबिंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय,
बलिहारी गुरु आपके, गोविन्द दियो मिलाय।
पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़,
घर की चाकी कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार।
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय,
मेरी खल की साँस से, लोह भस्म हो जाए।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, ता मुख बाहर आनि।
पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय।
तू-तू करू तो निकट है, दूर-दूर करू तो हो जाए,
ज्यौं गुरु राखैं त्यौं रहै, जो देवै सो खाय।
निर्मल गुरु के नाम सों, निर्मल साधू भाय,
कोइला होय न उजला, सौ मन साबुन लाय।
दीपक सुंदर देख करि, जरि जरि मरे पतंग,
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मोरें अंग।
बंदे तू कर बंदगी, तो पावै दीदार,
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट,
पाछे पछतायेगा, जब प्राण जाएंगे छूट।
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढत बन माहि,
ज्यो घट घट राम है, दुनिया देखे नाही।
जैसे तिल में तेल है, ज्यौं चकमक में आग,
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग।
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए,
वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए।
संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एकी काम,
दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम।
सुख के संगी स्वारथी, दुःख में रहते दूर,
कहैं कबीर परमारथी, दुःख सुख सदा हजूर।
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय,
भय पारस है जीव को, निर्भय होय न कोय।
यह बिरियाँ तो फिरि नहीं, मन में देखू विचार,
आया लाभहि कारनै, जनम हुआ मत हार।
झूठा सब संसार है, कोउ न अपना मीत,
राम नाम को जानि ले, चलै सो भौजल जीत।
रात गंवाई सोए के, दिवस गवाया खाय,
हीरा जन्म अनमोल था कोडी बदले जाए।
बार-बार तोसों कहा, रे मनवा नीच,
बंजारे का बैल ज्यौं, पैडा माही मीच।
पाहन केरी पूतरी, करि पूजै संसार,
याहि भरोसे मत रहो, बूडो काली धार।
न्हाए धोए क्या भय, जो मन मैला न जाए,
मीन सदा जल में रहै, धोए बास न जाए।
मन मक्का दिल द्वारिका, काया कशी जान,
दश द्वारे का देहरा, तामें ज्योति पिछान।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई,
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
पानी कर बुदबुदा, अस मानुस की जात,
एक दिन छिप जाएगा, ज्यौं तारा परभात।
कबीर मंब पंछी भया, जहाँ मन तहां उडी जाई,
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाई।
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय,
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया शरीर,
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही,
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह,
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय।
मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार,
तरवर थे फल झड़ी पड्या, बहुरि न लागे डारि।
चाह मिटी, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह,
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।
साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
मक्खी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए,
हाथ मेल और सिर ढूंढे, लालच बुरी बलाए।
कबीर संगत साधू की, निज प्रति कीजै जाए,
दुरमति दूर बहावासी, देशी सुमति बताय।
जाति न पुचो साधू की, पुच लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
कनक-कनक तै सौ गुनी मादकता अधिकाय,
वा खाए बौराए जग, या देखे बौराए।
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराई,
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई।
जो तोको कांटा बुवै ताहि बोव तू फल,
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसूल।
कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और,
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।
दोस पराए देखि करि, चला हसंत हसंत,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट,
पाछे फिर पछताएगा, प्राण जाहि जब छूट।
कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह,
देह खेह होय जाएगी, कौन कहेगा देह।
देह खेह होय जाएगी, कौन कहेगा देह,
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फन येह।
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत,
गुरु चरनन चित लाइए, जो पूरण सुख हेत।
गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह,
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह।
धर्म किए धन न घटे, नदी न घट नीर,
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।
कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय,
साकट जन औश्वन को, फेरी जवाब न देय।
कबीर तहां न जाइए, जहाँ जो कुल को हेत,
साधुपनों जाने नहीं, नाम बाप को लेट।
कबीर तहां न जाइए, जहाँ सिद्ध को गाँव,
स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछै नाँव।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी,
एक दिन तू भी सोवेहा, लंबे पांव पसारी।
आछे/पाछे दिन पाछे गए हरि से किया न हेत,
अब पछताए हॉट क्या, चिड़िया धुग गयी खेत।
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई,
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होई।
मन हीं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होई,
पानी में घिव निकसे, तो रुखा खाए न कोई।
कहत-सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन,
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई,
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खायी।
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस,
न जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेश।
हाड़ जलै ज्यूँ लाकडी, केस जलै ज्यूँ घास,
सब तन जलता देखि करि, भय कबीर उदास।
जो उग्या सो अन्तबै, फुल्या सो कुमलाहीं,
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
झूठे सुख को सुख कहे, मंत है मन मोद,
खल्क चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
ऐसा कोई न मिले, हमको दे उपदेश,
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।
संत न छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत,
चंदन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति,
कहैं कबीर तहँ जाईये, यह संतन की प्रीति।
कबीर संगी साधू का, दल आया भरपूर,
इंद्रिन को तब बांधीया, या तन किया धर।
गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै,
कोटि संवारे काम, बैरि उलटि पायन परे,
कोटि संवारे काम, बैरि उलटि पायन परे,
गारी सो क्या हाँ, हिरदै जो यह ज्ञान धरै।
गारी ही से उपजै, कलह कष्ट और मीच,
हरि चले सो संत है, लागि मरै सो नीच।
बहते को मत बहने दो, कर गहि एचहु ठौर,
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुई और।
जिही जिव्री से जाग बंधा, तु जनी बंधे कबीर,
जासी आटा लॉन ज्यौं, सों समान शरीर।
हरिया जाणें रुखड़ा, उस प्राणी का नेह,
सुका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह।
झिरमिर-झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह,
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह।
कबीर थोडा जीवना, मांडे बहुत मंडाण,
कबीर थोडा जीवना, मांडे बहुत मंडाण।
कबीर प्रेम न चक्खिया, चक्खि न लिया साव,
सूने घर का पाहूना, ज्यूँ आया त्यूं जाव।
मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह,
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह।
जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाई,
खेवटिया की नांव ज्यूँ, घने मिलेंगे आइ।
यह तन काचा कुम्भ है, लिया फिरे था साथ,
ढबका लागा फुटिगा, कुछ न आया हाथ।
मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि,
कब लग राखौं हे सखी, रुई लपेटी आगि।