कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Meaning

कबीर के दोहे हिंदी में Kabir Ke Dohe Hindi Me

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय॥
 
कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Ke Dohe Hindi Meaning

दोहे का हिंदी में अर्थ : इस दोहे में संत कबीरदास जी भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान, मुझे इतना धन और संपत्ति प्रदान करो कि जिसमें मेरा परिवार और साधु-संतों का भरण-पोषण हो सके। मैं भी भूखा न रहूं और साधु-संतों को भी भोजन मिल सके।

पहले चरण में कबीरदास जी भगवान से कहते हैं कि उन्हें इतना धन दें कि जिसमें उनका परिवार आराम से रह सके। दूसरे चरण में वे कहते हैं कि उन्हें इतना धन दें कि वे साधु-संतों की भी सेवा कर सकें। वे चाहते हैं कि उनके घर में कभी भी भोजन की कमी न हो और साधु-संतों को भी भोजन मिल सके। कबीर दास जी के इस दोहे में उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की है कि हे ईश्वर, मुझे इतना दो कि जिससे मेरा परिवार का गुजारा हो जाए। मैं भी भूखा न रहूं और कोई भी साधू या मेहमान मेरे घर से भूखा न जाए। कबीर दास जी एक संत थे, जिन्होंने अपने जीवन में कठिनाइयों का सामना किया था। उन्होंने देखा था कि लोग गरीबी और भुखमरी से पीड़ित हैं। इसलिए, वे चाहते थे कि ईश्वर उन्हें इतना दे कि वे दूसरों की मदद कर सकें। कबीर दास जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें दूसरों की मदद करनी चाहिए। हमें दूसरों को भूखा नहीं देखना चाहिए। हमें दूसरों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय

दोहे का हिंदी में अर्थ : संत कबीर दास जी कहते हैं कि हम जब भी किसी दूसरे व्यक्ति में बुराई खोजने जाते हैं, तो हमें कोई बुराई नहीं मिलती। लेकिन जब हम अपने अंदर झांकते हैं, तो हमें अपने आप में से भी बुराई मिलती है।

इसका अर्थ यह है कि हम अक्सर दूसरों में वही देखते हैं जो हम अपने अंदर रखते हैं। अगर हम अपने अंदर बुराई को दूर करना चाहते हैं, तो हमें दूसरों में बुराई खोजने की कोशिश करने के बजाय, अपने अंदर ही उसकी तलाश करनी चाहिए। इस दोहे का एक अन्य अर्थ यह भी हो सकता है कि हम अक्सर दूसरों में सिर्फ वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। अगर हम दूसरों में बुराई देखना चाहते हैं, तो हमें वह मिल जाएगी। लेकिन अगर हम दूसरों में अच्छाई देखना चाहते हैं, तो हमें वह भी मिल जाएगी।
 
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥

दोहे का हिंदी में अर्थ : कबीर साहेब इस दोहे में सन्देश देते हैं की बहुत से लोग अपने जीवन को नींद और भोजन में अतिभोग जैसे तुच्छ कार्यों में बर्बाद कर देते हैं। उन्होंने मानव जीवन की बहुमूल्यता की तुलना हीरे से की है, जो एक दुर्लभ और मूल्यवान रत्न है। दूसरी ओर, कौड़ियाँ आम और मूल्यहीन होती हैं। कबीर कह रहे हैं कि किसी मूल्यवान हीरे को मूल्यहीन कौड़ियों से बदलना मूर्खता है।
 
आछे पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ॥

अर्थ :  दोहे के पहले भाग में कबीर दास जी कहते हैं कि "आछे दिन पाछे गए"। इसका अर्थ है कि अच्छे दिन बीतते चले गए। यानी समय निकलता जा रहा है। हम अपने जीवन के अच्छे दिन बर्बाद कर रहे हैं। "हरी से किया न हेत"। इसका अर्थ है कि हमने ईश्वर से प्रेम नहीं किया। यानी हमने अपने जीवन में ईश्वर का ध्यान नहीं किया। अब पछताना बेकार है। क्योंकि समय निकल चुका है। जैसे किसान अपनी खेत की रखवाली नहीं करता है तो उसकी फसल बर्बाद हो जाती है। उसी तरह हम अपने जीवन में ईश्वर का ध्यान नहीं करते हैं तो हमारा जीवन बर्बाद हो जाता है। संत कबीर दास जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने जीवन का हर पल ईश्वर के साथ बिताना चाहिए। हमें अपने जीवन में ईश्वर का ध्यान करना चाहिए।

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी  ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी॥
 
 जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही॥

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय॥

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय॥

मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई ।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई॥

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर ।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ॥

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं ॥

कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय ॥

तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई ॥
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ ॥

कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार ॥

जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ॥

कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ ॥

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ॥

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय ॥

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय ।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ॥

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त ।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत ॥

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ ॥

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि ।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि ॥

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप ।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप ॥

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय ।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ॥

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार ॥

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर ।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर ॥

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना ॥

माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख ॥

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन.
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन ॥

कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई ।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई ॥

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई ।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई ॥

कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस ।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस ॥

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात ।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात ॥

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास ।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास ॥

जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं ॥

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद ।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद ॥

ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस ।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस ॥

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत ।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत ॥

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