कबीर के दोहे सरल अर्थ के साथ सन्देश भी
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।
डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय ।
भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति ।
जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात ।
सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।
आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद ।
बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय। कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय॥
यह शरीर एक सराय (धर्मशाला) के समान है, मन उसका पहरेदार है, और इच्छाएँ यहाँ ठहरने आती हैं। वास्तव में, कोई किसी का नहीं है; यह सत्य अनुभव और परीक्षण से समझ में आता है।
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार। डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार॥
कर्म का भय, परम गुरु का भय, पारस (दर्शन) का भय, और सार (सत्य) का भय महत्वपूर्ण हैं। जो व्यक्ति भयभीत रहता है, वह सुरक्षित रहता है; लेकिन जो लापरवाह होता है, वह संकट में पड़ता है।
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय। भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय॥
भय के कारण ही सभी भक्ति और पूजा करते हैं। भय जीव के लिए पारस (संपर्क में आने पर सोना बनाने वाला पत्थर) के समान है। कोई भी व्यक्ति निर्भय नहीं हो सकता।
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति। जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति॥
भय के बिना भक्ति उत्पन्न नहीं होती, और न ही प्रेम होता है। जब हृदय से भय समाप्त हो जाता है, तो सभी रस (आनंद) और रीति (प्रथाएँ) मिट जाती हैं।
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात। सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात॥
समय की चक्की दिन-रात चलती रहती है। गुणी और अगुणी (सद्गुणी और दुर्गुणी) दोनों उसके दो पाट हैं, जिनके बीच जीव (प्राणी) पिसता रहता है।
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत। तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत॥
एक-एक करके अपने प्रिय मित्र चले जा रहे हैं। हे जीव! तेरी बारी भी निकट आती जा रही है।
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं। घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं॥
एक दिन ऐसा आएगा जब कोई किसी का नहीं रहेगा। घर की स्त्री (पत्नी) कहेगी कि यह मेरा पति नहीं है, और शरीर की नारी (आत्मा) भी चली जाएगी।
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ। एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ॥
वह मनुष्य बैल के समान है, जो सींग और पूंछ के बिना है। यदि किसी ने एक ही गुरु के ज्ञान को नहीं पाया, तो उसकी दाढ़ी और मूंछ व्यर्थ हैं।
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार। आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार॥
यह अवसर फिर नहीं मिलेगा, मन में सोच-विचार कर। लाभ के लिए आए हो, जीवन के जुए में मत हारो।
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद। बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद॥
संसार में मिलकर भी खाली रह गया, बहुत बकवास की। बाँझ स्त्री पालना हिलाती है, उसमें क्या आनंद?
सरल अर्थ के साथ सन्देश
कबीरदास जी अपने दोहों के माध्यम से जीवन की नश्वरता, भय के महत्व, समय की अनवरत गति, मृत्यु की अनिवार्यता, और सच्चे ज्ञान की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं। वे समझाते हैं कि यह शरीर एक सराय के समान है, जहाँ इच्छाएँ आती-जाती हैं, परंतु वास्तव में कोई किसी का नहीं है। भय को वे भक्ति, पूजा और प्रेम का आधार मानते हैं, क्योंकि भय के बिना सच्ची भक्ति और प्रेम उत्पन्न नहीं होते। समय की चक्की निरंतर चलती रहती है, जिसमें सभी जीव पिसते हैं, और एक-एक करके सभी प्रियजन इस संसार से विदा हो जाते हैं। अंततः, मृत्यु के समय कोई किसी का नहीं रहता; यहाँ तक कि घर की स्त्री भी साथ नहीं जाती। कबीरदास जी सच्चे गुरु के ज्ञान के बिना मनुष्य को अधूरा मानते हैं और जीवन के इस अमूल्य अवसर को व्यर्थ न गंवाने की सलाह देते हैं। वे संसार की व्यर्थता को उजागर करते हुए कहते हैं कि जैसे बाँझ स्त्री का पालना हिलाना निरर्थक है, वैसे ही यह जीवन भी बिना सच्चे ज्ञान और भक्ति के व्यर्थ है।
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