कायकूं देह धरी भजन बिन कोयकु देह धरी

कायकूं देह धरी भजन बिन कोयकु देह धरी मीरा बाई पदावली

 कायकूं देह धरी भजन बिन कोयकु देह धरी
कायकूं देह धरी भजन बिन कोयकु देह धरी ॥
गर्भवासकी त्रास देखाई धरी वाकी पीठ बुरी॥१॥
कोल बचन करी बाहेर आयो अब तूम भुल परि॥२॥
नोबत नगारा बाजे। बघत बघाई कुंटूंब सब देख ठरी॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। जननी भार मरी॥४॥
 
मानव देह की सार्थकता केवल भजन और भक्ति में है, वरना यह तन व्यर्थ है। गर्भवास की पीड़ा और जन्म की कठिनाई को सहकर यह देह मिली, पर बिना प्रभु स्मरण के इसका मोल क्या? जीवन के वचन और उद्देश्य भूल गए, और मन संसार के भ्रम में खो गया।

नगारे की आवाज और परिवार की भीड़ के बीच सब कुछ दिखावा-सा लगता है, जैसे कोई नाटक बिना अर्थ के चल रहा हो। मीरा का मन गिरिधर में रमा है, जो इस देह को सच्चा मार्ग दिखाता है। जैसे कोई पथिक सितारों की रोशनी में राह पाता है, वैसे ही भक्ति इस जीवन को संकटों से पार कर प्रभु के चरणों तक ले जाती है। यह वह सत्य है, जो देह को भजन के बिना अधूरा और भक्ति के साथ पूर्ण बताता है।

कान्हा बनसरी बजाय गिरधारी । तोरि बनसरी लागी मोकों प्यारीं ॥ध्रु०॥
दहीं दुध बेचने जाती जमुना । कानानें घागरी फोरी ॥ काना० ॥१॥
सिरपर घट घटपर झारी । उसकूं उतार मुरारी ॥ काना० ॥२॥
सास बुरीरे ननंद हटेली । देवर देवे मोको गारी ॥ काना० ॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर । चरनकमल बलहारी ॥ काना० ॥४॥

हरि गुन गावत नाचूंगी ॥ध्रु०॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर । गीता भागवत बाचूंगी ॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर । हरीहर संग मैं लागूंगी ॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर । सदा प्रेमरस चाखुंगी ॥३॥

झुलत राधा संग । गिरिधर झूलत राधा संग ॥ध्रु०॥
अबिर गुलालकी धूम मचाई । भर पिचकारी रंग ॥ गिरि० ॥१॥
लाल भई बिंद्रावन जमुना । केशर चूवत रंग ॥ गिरि० ॥२॥
नाचत ताल आधार सुरभर । धिमी धिमी बाजे मृदंग ॥ गिरि० ॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर । चरनकमलकू दंग ॥ गिरि० ॥४॥ 

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