श्री सूक्त ऋग्वेद जानिये अर्थ और महत्त्व

श्री सूक्त ऋग्वेद जानिये अर्थ और महत्त्व


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ॐ ॥ हिर॑ण्यवर्णां॒ हरि॑णीं सु॒वर्ण॑रज॒तस्र॑जाम् । 

च॒न्द्रां हि॒रण्म॑यीं ल॒क्ष्मीं जात॑वेदो म॒ आव॑ह ॥
तां म॒ आव॑ह॒ जात॑वेदो ल॒क्ष्मीमन॑पगा॒मिनी॓म् ।
यस्यां॒ हिर॑ण्यं वि॒न्देयं॒ गामश्वं॒ पुरु॑षान॒हम् ॥

अ॒श्व॒पू॒र्वां र॑थम॒ध्यां ह॒स्तिना॓द-प्र॒बोधि॑नीम् ।
श्रियं॑ दे॒वीमुप॑ह्वये॒ श्रीर्मा दे॒वीर्जु॑षताम् ॥

कां॒ सो॓स्मि॒तां हिर॑ण्यप्रा॒कारा॑मा॒र्द्रां ज्वलं॑तीं तृ॒प्तां त॒र्पयं॑तीम् ।
प॒द्मे॒ स्थि॒तां प॒द्मव॑र्णां॒ तामि॒होप॑ह्वये॒ श्रियम् ॥

च॒न्द्रां प्र॑भा॒सां य॒शसा॒ ज्वलं॑तीं॒ श्रियं॑ लो॒के दे॒वजु॑ष्टामुदा॒राम् ।
तां प॒द्मिनी॑मीं॒ शर॑णम॒हं प्रप॑द्ये‌உल॒क्ष्मीर्मे॑ नश्यतां॒ त्वां वृ॑णे ॥

आ॒दि॒त्यव॑र्णे तप॒सो‌உधि॑जा॒तो वन॒स्पति॒स्तव॑ वृ॒क्षो‌உथ बि॒ल्वः ।
तस्य॒ फला॑नि॒ तप॒सानु॑दन्तु मा॒यान्त॑रा॒याश्च॑ बा॒ह्या अ॑ल॒क्ष्मीः ॥

उपैतु॒ मां दे॒वस॒खः की॒र्तिश्च॒ मणि॑ना स॒ह ।
प्रा॒दु॒र्भू॒तो‌உस्मि॑ राष्ट्रे॒‌உस्मिन् की॒र्तिमृ॑द्धिं द॒दादु॑ मे ॥

क्षुत्पि॑पा॒साम॑लां ज्ये॒ष्ठाम॑ल॒क्षीं ना॑शया॒म्यहम् ।
अभू॑ति॒मस॑मृद्धिं॒ च सर्वां॒ निर्णु॑द मे॒ गृहात् ॥

ग॒न्ध॒द्वा॒रां दु॑राध॒र्षां॒ नि॒त्यपु॑ष्टां करी॒षिणी॓म् ।

ई॒श्वरीग्ं॑ सर्व॑भूता॒नां॒ तामि॒होप॑ह्वये॒ श्रियम् ॥

मन॑सः॒ काम॒माकूतिं वा॒चः स॒त्यम॑शीमहि ।
प॒शू॒नां रू॒पमन्य॑स्य मयि॒ श्रीः श्र॑यतां॒ यशः॑ ॥

क॒र्दमे॑न प्र॑जाभू॒ता॒ म॒यि॒ सम्भ॑व क॒र्दम ।
श्रियं॑ वा॒सय॑ मे कु॒ले मा॒तरं॑ पद्म॒मालि॑नीम् ॥

आपः॑ सृ॒जन्तु॑ स्नि॒ग्दा॒नि॒ चि॒क्ली॒त व॑स मे॒ गृहे ।
नि च॑ दे॒वीं मा॒तरं॒ श्रियं॑ वा॒सय॑ मे कु॒ले ॥

आ॒र्द्रां पु॒ष्करि॑णीं पु॒ष्टिं॒ सु॒व॒र्णाम् हे॑ममा॒लिनीम् ।
सू॒र्यां हि॒रण्म॑यीं ल॒क्ष्मीं जात॑वेदो म॒ आव॑ह ॥

आ॒र्द्रां यः॒ करि॑णीं य॒ष्टिं पि॒ङ्ग॒लाम् प॑द्ममा॒लिनीम् ।
च॒न्द्रां हि॒रण्म॑यीं ल॒क्ष्मीं॒ जात॑वेदो म॒ आव॑ह ॥

तां म॒ आव॑ह॒ जात॑वेदो ल॒क्षीमन॑पगा॒मिनी॓म् ।
यस्यां॒ हिर॑ण्यं॒ प्रभू॑तं॒ गावो॑ दा॒स्यो‌உश्वा॓न्, वि॒न्देयं॒ पुरु॑षान॒हम् ॥

ॐ म॒हा॒दे॒व्यै च॑ वि॒द्महे॑ विष्णुप॒त्नी च॑ धीमहि । तन्नो॑ लक्ष्मीः प्रचो॒दया॓त् ॥

श्री-र्वर्च॑स्व॒-मायु॑ष्य॒-मारो॓ग्य॒मावी॑धा॒त् पव॑मानं मही॒यते॓ । 

धा॒न्यं ध॒नं प॒शुं ब॒हुपु॑त्रला॒भं श॒तसं॓वत्स॒रं दी॒र्घमायुः॑ ॥
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥

श्री सूक्त, जिसे 'लक्ष्मी सूक्त' भी कहा जाता है, ऋग्वेद के खिलानि खंड में सम्मिलित एक महत्वपूर्ण मंत्र संग्रह है, जो धन-धान्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी की आराधना के लिए समर्पित है।

श्री सूक्त का अर्थ: श्री सूक्त में कुल 15 मंत्र हैं, जिनमें देवी लक्ष्मी के विभिन्न स्वरूपों, गुणों और कृपाओं का वर्णन किया गया है। इन मंत्रों में देवी लक्ष्मी को स्वर्ण के समान कांतिमयी, कमल पर विराजमान, समृद्धि और सौभाग्य प्रदान करने वाली बताया गया है। उदाहरण के लिए, एक मंत्र में कहा गया है:

"हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्। चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।।"

इसका अर्थ है: "जो स्वर्ण सी कांतिमयी है, जो मन की दरिद्रता हरती है, जो स्वर्ण और रजत की मालाओं से सुशोभित है, चंद्रमा के सदृश प्रकाशमान तथा प्रसन्न करने वाली है, हे जातवेदा अग्निदेव, ऐसी देवी लक्ष्मी को मेरे घर बुलाएं।"

श्री सूक्त का महत्त्व
श्री सूक्त का पाठ देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने के लिए अत्यंत प्रभावी माना जाता है। इसके नियमित जप से व्यक्ति को धन, समृद्धि, सुख, शांति और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। यह न केवल भौतिक संपदा, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक समृद्धि के लिए भी सहायक है। शास्त्रों के अनुसार, श्री सूक्त का पाठ करने से दरिद्रता, अलक्ष्मी (अशुभता) और अन्य नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है, और परिवार में सुख-शांति स्थापित होती है।

पाठ की विधि
श्री सूक्त का पाठ करते समय शुद्धता और श्रद्धा का विशेष ध्यान रखना चाहिए। पाठ से पूर्व स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें और पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके शांत मन से बैठें। देवी लक्ष्मी के चित्र या मूर्ति के समक्ष दीपक जलाएं और पुष्प, धूप, नैवेद्य आदि अर्पित करें। इसके बाद श्री सूक्त के मंत्रों का उच्चारण करें। यदि संभव हो तो संस्कृत में उच्चारण करें, अन्यथा हिंदी में अर्थ सहित पाठ करें। पाठ के उपरांत देवी लक्ष्मी से परिवार की समृद्धि और सुख-शांति की प्रार्थना करें।

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