दोहे दोहावली कबीर दास के दोहे हिंदी अर्थ

दोहे दोहावली कबीर दास के दोहे हिंदी अर्थ सहित

 
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं । राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥

साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥
आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥
आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥
 
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं॥

अर्थ: ईश्वर से ही सब कुछ होता है, मनुष्य से कुछ नहीं। वह राई को पर्वत बना सकता है और पर्वत को राई में बदल सकता है।

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह॥

अर्थ: कितने ही दिन ऐसे बीत गए, जब अनचाही चीजों से प्रेम किया। यदि समय पर वर्षा न हो, तो अवसर बोने से भी फसल नहीं उगती।

एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय।
एक से परचे भया, एक मोह समाय॥

अर्थ: एक से अनंत की प्राप्ति होती है, और अंत में सब एक हो जाते हैं। एक से परिचय होने पर, एक में ही मोह समा जाता है।

साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध॥

अर्थ: साधु, सती, और वीरों की बातें गहरी होती हैं। वे अपने शरीर की आशा छोड़कर, तन की अनथक साधना करते हैं।

हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप॥

अर्थ: हरि की संगति से मन शीतल हो जाता है, और मोह की तपिश मिट जाती है। दिन-रात सुख की निधि मिलती है, और आत्मज्ञान प्रकट होता है।

आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत॥

अर्थ: आशा को ईंधन बनाओ, और मन की इच्छाओं को भस्म करो। ऐसे योगी बनकर घूमो, कि वन में भी सूत (धागा) आ जाए।

आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय॥

अर्थ: समुद्र में लगी आग का धुआँ प्रकट नहीं होता। उसे वही जानता है, जो उसमें जलता है।

अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट॥

अर्थ: यदि शरीर में तीर टूटकर अटक गया हो, तो वह चुम्बक के बिना नहीं निकलता, चाहे करोड़ों उपाय कर लो।

अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान।
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान॥

अर्थ: हर कोई अपनी-अपनी प्रतिष्ठा की सोचता है। हरि की बातें इतनी गहरी हैं, कि उन्हें पूरी तरह नहीं जाना जा सकता।

आस पराई राखता, खाया घर का खेत।
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत॥

अर्थ: जो दूसरों की आशा रखता है, वह अपने घर का खेत खा जाता है। दूसरों को मार्ग दिखाता है, लेकिन स्वयं के मुख में रेत भरी है।

आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक॥

अर्थ: एक गाली आती है, लेकिन उलटने पर वह अनेक हो जाती है। कबीर कहते हैं, गाली का उत्तर न दो, उसे उसी रूप में रहने दो।

आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद॥

अर्थ: मनभावन आहार का सेवन, इंद्रियों के स्वाद के लिए होता है। यदि नाक तक पेट भर जाए, तो वह कौन सा प्रसाद है?

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