इन कबीर दोहों का अर्थ जानिये सरलता से
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय ।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥
बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय ।
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय ।
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥
बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥
मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥
भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥
मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ ।
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय॥
अर्थ: पत्ता वृक्ष से कहता है, "हे वृक्षराज, सुनो। यदि इस बार हम बिछड़ गए, तो फिर कभी नहीं मिलेंगे और दूर चले जाएंगे।" यह दोहा जीवन की नश्वरता और बिछड़ने की अनिवार्यता को दर्शाता है।
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन में जाय॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि चाहे व्यक्ति घर में रहे या वन में जाए, उसे प्रेमभाव एक समान रखना चाहिए, भले ही उसके बाहरी रूप अनेक हों। सच्चा प्रेम स्थान और परिस्थिति से परे होता है।
बन्धे को बन्धा मिले, छूटे कौन उपाय।
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय॥
अर्थ: बंधे हुए व्यक्ति को यदि दूसरा बंधा हुआ व्यक्ति मिले, तो उसे मुक्त करने का उपाय क्या होगा? इसलिए, ऐसे व्यक्ति की संगति करो जो स्वयं मुक्त हो, क्योंकि वह पल भर में ही छुड़ा सकता है। यह दोहा संगति के महत्व को बताता है।
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय।
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय॥
अर्थ: जब बूँद समुद्र में गिरती है, तो यह सभी जानते हैं कि बूँद समुद्र में समा गई। लेकिन समुद्र बूँद में समा जाए, यह बात बिरले ही समझते हैं। यह दोहा आत्मा और परमात्मा के एकत्व को दर्शाता है।
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम॥
अर्थ: बाहरी दिखावे की क्या आवश्यकता है? अपने भीतर राम का जाप करो। संसार से क्या काम, जब तुम्हें अपने स्वामी (ईश्वर) से काम है। यह दोहा आंतरिक भक्ति की महत्ता को बताता है।
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात॥
अर्थ: व्यक्ति की वाणी से उसके स्वभाव और इरादों को पहचाना जा सकता है। अंदर की करनी (विचार) अंततः मुँह की बातों से प्रकट हो जाती है। यह दोहा वाणी के महत्व और उसके प्रभाव को दर्शाता है।
इन दोहों में कबीर दास जी ने जीवन की नश्वरता, सच्चे प्रेम, संगति के महत्व, आत्मा-परमात्मा के एकत्व, आंतरिक भक्ति, और वाणी के प्रभाव पर प्रकाश डाला है। वे समझाते हैं कि बाहरी दिखावे से अधिक आंतरिक साधना और सच्चे प्रेम का महत्व है।
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Author - Saroj Jangir
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