सरल अर्थ सहित कबीर साहेब के दोहे जानिये

सरल अर्थ सहित कबीर साहेब के दोहे जानिये

 
कबीर के दोहे हिंदी में Kabir Dohe in Hindi दोहावली कबीर दास के दोहे हिन्दी

जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव ।
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥

पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥

कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि ।
कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥

भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि ।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥

परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥

ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना ।
ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥

कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ ।
राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥

स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास ।
राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥

इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम ।
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥

ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं ।
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥

जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव।
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै, निह्कामी निज देव॥

अर्थ: जब तक भक्ति में इच्छाएँ (सकामता) हैं, तब तक सेवा निष्फल है। कबीर कहते हैं, निष्काम (बिना इच्छा) भक्ति करने वाले को ही सच्चा ईश्वर मिलता है।

पतिव्रता मैली भली, गले कांच को पोत।
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत॥

अर्थ: पतिव्रता स्त्री चाहे मैली-कुचैली हो और उसके गले में काँच के मोती हों, फिर भी वह अपनी सखियों में ऐसे चमकती है जैसे सूर्य और चंद्रमा की ज्योति।

कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि।
कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि॥

अर्थ: कामुक व्यक्ति को अभी (ईश्वर) नहीं भाता, वह तो विष (वासनाओं) में ही रमा रहता है। उसकी कुबुद्धि जीव को सन्मार्ग पर नहीं चलने देती।

भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि॥

अर्थ: कामुक व्यक्ति इंद्रियों के स्वाद में भक्ति को बिगाड़ देता है। यह ऐसा है जैसे हाथ में आया हीरा खो दिया और जीवन व्यर्थ गँवा दिया।

परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि।
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि॥

अर्थ: पराई स्त्री के साथ संबंध रखना ऐसा है जैसे लहसुन की खान में रहना। यह बुरी आदत छुपती नहीं, जैसे लहसुन की गंध छुपती नहीं।

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं।
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं॥

अर्थ: जो पराई स्त्रियों में रत रहते हैं और चोरी का अन्न खाते हैं, वे कुछ समय तक सुखी दिखते हैं, लेकिन अंततः पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं।

ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना।
ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना॥

अर्थ: ज्ञानी व्यक्ति यदि अहंकार में आकर अपने मूल (ज्ञान) को खो दे, तो उससे अच्छा साधारण व्यक्ति है जो मन में डर (विनम्रता) रखता है।

कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद।
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद॥

अर्थ: कामुक व्यक्ति न तो लज्जा करता है, न ही उसमें आनंद है। जैसे नींद को बिस्तर की आवश्यकता नहीं और भूख को स्वाद की।

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ।
राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ॥

अर्थ: कलियुग का स्वामी लोभी है, जो पीतल की घड़ी बेचता है। वह राज-दरबार में ऐसे घूमता है जैसे गाय चर रही हो।

स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास।
राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस॥

अर्थ: स्वामी सीतल स्वभाव का है, जिसके पचास शिष्य हैं। वह राम-नाम का जाप करता है और शिष्यों से आशा रखता है।

इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम।
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम॥

अर्थ: इस पेट के कारण लोग रात-दिन मेहनत करते हैं। यदि स्वामीपना सिर पर चढ़ जाए, तो कोई भी काम सफल नहीं होता।

ब्राह्मण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं।
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि॥

अर्थ: ब्राह्मण संसार का गुरु है, लेकिन साधु का गुरु नहीं। वह चारों वेदों में उलझा रहता है।

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Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं कबीर के दोहों को अर्थ सहित, कबीर भजन, आदि को सांझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें

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