शिवमहिम्नः स्तोत्रं लिरिक्स हिंदी Shivamahimnah stotram Lyrics

शिवमहिम्नः स्तोत्रं लिरिक्स हिंदी Shivamahimnah stotran Lyrics


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शिवमहिम्नः स्तोत्रं,
गजाननं भूतगणादि सेवितं,
कपित्थ जम्बूफलसार भक्षितम्,
उमासुतं शोक विनाशकारणं,
नमामि विघ्नेश्वर पादपङ्कजम्।

श्री पुष्पदन्त उवाच
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।।

अतीतः पंथानं तव च महिमा वांमनसयोः।
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।। २।।

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः।
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।। ३।।

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्।
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं।
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।। ४।।

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः।
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः।। ५।।

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां।
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो।
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।। ६।।

त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।। ७।।

महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः।
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां।
न हि स्वात्मारामं विष यमृगतृष्णा भ्रमयति।। ८।।

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं।
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव।
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।। ९।।

तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः।
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः।।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्।
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।। १०।।

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं।
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।। ११।।

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं।
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।। १२।।

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं।
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।। १३।।

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा।
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भंग-व्यसनिनः।। १४।।

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्।
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।। १५।।

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।। १६।।

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति।
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः।। १७।।

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो।
रथांगे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।। १८।।

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः।
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः।
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।। १९।।

क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं।
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः।। २०।।

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां।
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः।
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः।। २१।।

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं।
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममु।
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।। २२।।

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्।
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः।। २३।।

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः।
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं।
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि।। २४।।

मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः।
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्संगति-दृशः।।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये।
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्।। २५।।

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः।
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं।
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि।। २६।।

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्।
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः।
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। २७।।

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्।
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि।
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते।। २८।।

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः।। २९।।

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ, भवाय नमो नमः।
प्रबल-तमसे तत् संहारे, हराय नमो नमः।।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ, मृडाय नमो नमः।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये, शिवाय नमो नमः।। ३०।।

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं।
क्व च तव गुण-सीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धिः।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्।
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्।। ३१।।

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।। ३२।।

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः।
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः।
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार।। ३३।।

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्।
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र।
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च।। ३४।।

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।। ३५।।

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः,
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। ३६।।

कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः।
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्।
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः।। ३७।।
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं।
पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्य-चेताः।।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः।
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्।। ३८।।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्।। ३९।।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छंकर-पादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां में सदाशिवः।। ४०।।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः।। ४१।।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते।। ४२।।
श्री पुष्पदन्त-मुख-पंकज-निर्गतेन।
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन।
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः।। ४३।। ।।
इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

 



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शिवमहिम्न स्तोत्र की रचना पर आधारित कथा बहुत ही रोचक है। इस कथा से यह पता चलता है कि भगवान शिव अपने भक्तों की भक्ति से बहुत प्रसन्न होते हैं। पुष्पदंत ने अपनी भूल के लिए भगवान शिव से क्षमा मांगी और उनकी पूजा की। भगवान शिव ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें क्षमा कर दिया और उन्हें शिवमहिम्न स्तोत्र की रचना का आशीर्वाद दिया।

इस स्तोत्र में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है। यह स्तोत्र शिवभक्तों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस स्तोत्र का पाठ करने से भक्तों को भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है।

शिवमहिम्न स्तोत्र की रचना के बाद से यह स्तोत्र शिवभक्तों के बीच बहुत ही लोकप्रिय हो गया है। यह स्तोत्र शिवभक्तों द्वारा नियमित रूप से पढ़ा जाता है। शिवमहिम्न स्तोत्र की रचना के बाद से पुष्पदंत भी भगवान शिव के प्रिय भक्तों में शामिल हो गए। कथा के अनुसार, एक समय में चित्ररथ नाम का एक राजा था जो भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था। वह अपने राज्य में एक बहुत ही सुंदर उद्यान बनवाया था, जिसमें तरह-तरह के फूल उगाए जाते थे। वह इन फूलों को भगवान शिव को अर्पित करता था।

एक दिन, गंधर्वराज पुष्पदंत नामक एक महान शिवभक्त देवराज इंद्र की सभा के मुख्य गायक थे। एक दिन उनकी नजर उस उद्यान पर पड़ी और वह मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने उस उद्यान से कुछ फूल तोड़ लिए और उन्हें भगवान शिव को अर्पित करने के लिए अपने साथ ले गए।

राजा को जब इस बात का पता चला तो वह बहुत क्रोधित हो गए। उन्होंने पुष्पदंत को पकड़ने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन वे सफल नहीं हो सके।

अंत में, राजा ने एक चाल चली। उन्होंने शिव पर अर्पित किए गए फूलों को उद्यान के रास्ते पर बिछा दिया। अगले दिन जब पुष्पदंत उद्यान में गए तो उन्हें उन फूलों का पता नहीं चला और उनके पैर उन पर पड़ गए।

पुष्पदंत को अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होंने भगवान शिव से क्षमा मांगी और एक शिवलिंग का निर्माण करके उसकी पूजा की। उन्होंने भगवान शिव की स्तुति में कुछ छंद भी गाए।

भगवान शिव पुष्पदंत की भक्ति से प्रसन्न हुए। उन्होंने उनकी गलती को माफ कर दिया और उन्हें अपनी शक्तियां लौटा दीं। उन्होंने पुष्पदंत को आशीर्वाद दिया कि उनके द्वारा गाए गए छंद भविष्य में शिवमहिम्न स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध होंगे।

पुष्पदंत द्वारा बनाया गया शिवलिंग पुष्पदंतेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह शिवलिंग आज भी उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में स्थित है।

शिवमहिम्न स्तोत्र का महत्व

शिवमहिम्न स्तोत्र एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्तोत्र है। यह स्तोत्र भगवान शिव की महिमा का वर्णन करता है। इस स्तोत्र में भगवान शिव को एक ही समय में सभी देवताओं का स्वामी, सभी प्राणियों का पालनहार और सभी मनुष्यों के लिए आराध्य बताया गया है।

शिवमहिम्न स्तोत्र का पाठ करने से भक्तों को भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है। यह स्तोत्र भक्तों को मोक्ष प्राप्ति के लिए भी मार्गदर्शन करता है। शिवमहिम्न स्तोत्र एक भजन है जो भगवान शिव की महिमा का गुणगान करता है। ऐसा कहा जाता है कि इसकी रचना गंधर्व राजा पुष्पदंत ने की थी, जिन्होंने एक गलती करने के बाद शिव द्वारा शिवमहिम्न स्तोत्र का पाठ करने के बाद क्षमा कर दिया था।

स्तोत्र में शिव की महानता और दिव्यता की प्रशंसा की गई है, और उन्हें ब्रह्मांड के निर्माता, संरक्षक और विनाशक के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें उनके कई गुणों का भी उल्लेख किया गया है, जैसे उनकी करुणा, क्षमा और शक्ति।

शिवमहिम्न स्तोत्र हिंदुओं के बीच एक लोकप्रिय भक्ति गीत है, और अक्सर धार्मिक समारोहों और त्योहारों के दौरान इसका पाठ किया जाता है। यह भी माना जाता है कि इसमें आध्यात्मिक और उपचार शक्तियां हैं।

यहाँ शिवमहिम्न स्तोत्र के पहले कुछ छंदों का हिंदी अनुवाद है:
हे सर्वोच्च ज्ञानी, तुम्हारी महानता की महिमा ब्रह्मा और अन्य देवताओं की समझ से परे है। जैसा कि मैं तुम्हारी स्तुति करने का प्रयास करता हूँ, मेरा भाषण व्यर्थ न हो।

तुम्हारी महानता का मार्ग मन और इंद्रियों की पहुंच से परे है। वेद भी तुम्हारी महानता से चकित हो जाते हैं। हे अनंत, अपनी अनगिनत गुणों के साथ आपकी प्रशंसा कौन कर सकता है? आपके निवास का वर्णन कौन कर सकता है?

हे ब्रह्मांड के निर्माता, तुम्हारी शक्ति सर्वोच्च है। तुम सभी धन-संपदा के स्रोत हो। तुम सभी वर देने वाले हो। हे दुष्टों के नाशक, मेरी वाणी तुम्हारी स्तुति के अमृत से शुद्ध हो।

शिवमहिम्न स्तोत्र एक सुंदर और शक्तिशाली भजन है जो भगवान शिव की महानता का जश्न मनाता है। यह दुनिया भर के हिंदुओं के लिए प्रेरणा और भक्ति का स्रोत है।
 
पुष्पदन्त उवाच -
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।।

हे प्रभु! आपकी महिमा अपार है, जिसे ब्रह्मा और अन्य देवता भी नहीं जान पाए। मैं तो एक साधारण बालक हूं, मेरी तो क्या गिनती? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती? मैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी। मैं तो ये मानता हूं कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का अधिकार है। इसलिए हे भोलेनाथ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें।

इस श्लोक में पुष्पदंत कहते हैं कि भगवान शिव की महिमा इतनी अपार है कि उसे ब्रह्मा और अन्य देवता भी पूरी तरह से नहीं जान पाए हैं। वह खुद को एक साधारण बालक मानते हैं और सोचते हैं कि उनकी स्तुति भगवान शिव को स्वीकार नहीं होगी। लेकिन वह यह भी कहते हैं कि अगर भगवान शिव की महिमा को पूर्णतया जाने बिना उनकी स्तुति नहीं हो सकती तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी।

पुष्पदंत का मानना है कि सभी को अपनी मति अनुसार भगवान शिव की स्तुति करने का अधिकार है। वह भगवान शिव से प्रार्थना करते हैं कि वह उनके हृदय के भाव को देखें और उनकी स्तुति को स्वीकार करें।

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हमें अपनी क्षमता के अनुसार भगवान शिव की स्तुति करनी चाहिए। भगवान शिव हमारे हृदय के भाव को देखते हैं और हमारी स्तुति को स्वीकार करते हैं, भले ही वह पूर्णतया सही न हो।
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