कबीर के लोकप्रिय दोहे हिंदी मीनिंग Kabir Popular Dohe Hindi Me with Hindi Meaning
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
Chaah Mitee, Chinta Mitee Manava Beparavaah.
Jisako Kuchh Nahin Chaahie Vah Shahanashaah.
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब व्यक्ति भौतिक वस्तुओं से अपना ध्यान हटा कर, हरी के सुमिरण में व्यस्त हो जाता है, हरी के नाम के सुमिरण को आधार बनाता है वह शहन्शान बन जाता है जिसे कोई चिंता नहीं रहती। चिंता किस बात की, धन की, दौलत की, मान समान की रुतबे की लेकिन ये तो स्थाई नहीं है। व्यक्ति उम्र भर धन को जौड़ने के चक्कर में फंसा रहता है, इस कारण वह परेशान भी रहता है, काया को दुःख देता है, मानसिक शान्ति से दूर हो जाता है लेकिन जब उसके अन्दर थोडा सा भी वैराग्य भाव आ जाता है तो वह इन विषयों से दूर रहता है। जो प्राप्त है प्रयाप्त है के बल पर वह व्यर्थ के झंझटों से दूर ही रहता है और हरी के नाम का सुमिरण करताहै। विरोधाभास है की फक्कड होकर राजा बना जा सकता है, जो भौतिक रूप से राजा है वह वस्तुतः राजा है ही नहीं। जब चाह मिट जाती है तो चिंता भी दूर हो जाती है।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
Nindak Niyare Raakhie, Ongan Kutee Chhavaay.
Bin Paanee, Saabun Bina, Nirmal Kare Subhaay..
दोहे का हिंदी मीनिंग Kabir Doha Hindi Meaning: स्वंय के विश्लेषण के लिए निंदक को नजदीक रखना चाहिए। आंगन में पेड़ की छाया रखनी चाहिए, निंदक बिना पानी पर साबुन के स्वभाव को निर्मल कर देता है। इसके विपरीत लोग चापलूस को निकट रखते हैं क्योंकि वह झूठी प्रशंशा करके व्यक्ति के अहम् को सुखद महसूस करवाता है। इससे व्यक्ति खुश तो हो जाता है लेकिन वह स्वंय का विश्लेषण नहीं कर पाता है। निंदक, निंदा के माध्यम से खोट निकालता है, जिससे सुधार करने का अवसर पाप्त होता है।
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद॥
Sukh Me Sumiran Na Kiya, Du:kh Mein Karate Yaad.
Kah Kabeer Ta Daas Kee, Kaun Sune Phariyaad.
यदि सुख में सुमिरण नहीं किया तो दुःख आने पर तुम्हारी पुकार कौन सुनेगा ? कोई नहीं। दुःख और सुख जीवन के दो भाग हैं यह आते जाते रहते हैं लेकिन सुख की अवस्था में हमें भगवान् को भूलना नहीं चाहिए और समझना चाहिए की यह जीवन क्यों मिला है, हरी के गुण गाने के लिए। लेकिन माया जनित भ्रम में पड़कर सुख में हरी का सुमिरण नहीं करता है लेकिन जब दुःख आ पड़ता है तो हरी के नाम का सुमिरण करता है, ऐसे में उसकी फ़रियाद कोई नहीं सुनेगा। जैसा भी वक़्त हो, सुख का या दुःख का हरी का सुमिरण करते रहना चाहिए।
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घनेरी होय॥
Tinaka Kabahun Na Nindaye, Jo Paanv Tale Hoy.
Kabahun Ud Aankho Pade, Peer Ghaneree Hoy.
हमें तिनके की भी निंदा नहीं करनी चाहिए, उसके महत्त्व को कम करके नहीं आंकना चाहिए, क्योकि यदि वह तिनका उड़कर यदि आखों में गिर जाए तो बहुत अधिक पीड़ा पहुचाता है। ईश्वर की बनाए प्राणी/जीव सभी समान है।
कबीरा गरब ना कीजिये, कभू ना हासिये कोय।
अजहू नाव समुद्र में, ना जाने का होए।
Kabeera Garab Na Keejiye, Kabhoo Na Haasiye Koy.
Ajahoo Naav Samudr Mein, Na Jaane Ka Hoe.
साहेब की वाणी है की अभिमान/घमंड मत करो, और कभी किसी का उपहास भी नहीं उडाना चाहिए क्योकि अभी भी नांव समुद्र के बीच में ही है जो कभी भी डूब सकती है। अहम् से भक्ति भी संभव नहीं है इसलिए अहम् का त्याग करके सम / सहज भाव से हरी का सुमिरण करना चाहिए।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट॥
Loot Sake To Loot Le, Raam Naam Kee Loot.
Paachhe Phire Pachhataoge, Praan Jaahin Jab Chhoot.
हरी के नाम की लूट है, इसे अधिक से अधिक मात्रा में लूटना चाहिए क्योनी जब प्राण छूट जायेंगे तब पछतावा होने के सिवा कुछ भी शेष नहीं रहेगा। हरी के राम का कोई मूल्य भी अदा नहीं करना है, यह तो मुफ्त की वस्तु है।
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
Dheere Dheere Re Mana, Dheere Sab Kuchh Hoy.
Maalee Seenche Sau Ghada, Rtu Aae Phal Hoy.
धैर्य धारण करना, आचरण का आभूषण है, धीरज रखने पर ही सभी कार्य साध्य होते हैं। जैसे माली सौ घड़े पाई सींचता है लेकिन ऋतू आने पर ही फल लगते हैं वैसी ही धीरज के साथ अपने कार्य करते रहने चाहिए समय आने पर उनका परिणाम प्राप्त हो जाता है। हम थोडा सा कार्य करके फल की आशा करने लग जाते हैं और फल की पाप्ति के अभाव में उदास हो उठते हैं। प्रयत्न करना हमारे हाथ में है लेकिन फल देता तो विधाता है जिसमे प्रारब्ध भी शामिल होता है। फल की आशा में कर्म को छोड़ना नहीं चाहिए। फल की आशा में जो कर्म करते हैं, ने निराश होते हैं और जो कर्म करके ईश्वर को समर्पित कर देते हैं वे सदैब ही खुश रहते हैं।
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
Kabeera Te Nar Andh Hai, Guru Ko Kahate Aur.
Hari Roothe Guru Thaur Hai, Guru Roothe Nahin Thaur.
गुरु का महत्त्व ही की गुरु के बगैर कहीं कोई ठिकाना नहीं है, भले ही हरी रूठ जाए, लेकिन गुरु से विमुख होने पर उसका कोई ठौर ठिकाना नहीं रहता है। वस्तुतः हरी से परिचय भी गुरु के माध्यम से ही संभव होता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है की गुरु के महत्त्व के साथ ही गुरु किसे बनाना है बहुत ही महत्वपूर्ण है।
कबीर के दोहे हिंदी में : सभी दोहे देखे Kabir Ke Dohe Hindi Me (सभी दोहे देखें)
दस पच्चीस की भीड़ को देखकर किसी के पीछे चल देना विवेक का कार्य नहीं है। वर्तमान समय की दुर्दशा ही की साहेब ने जो गुरु की पहचान बताई है उसका कोई ध्यान ही नहीं रख रहा है। जो मोह माया, अभिमान से दूर रहकर सत्य के मार्ग पर अनुसरण करता है वह गुरु बनाने के लायक है।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर॥
Maaya Maree Na Man Mara, Mar-mar Gae Shareer.
Aasha Trshna Na Maree, Kah Gae Daas Kabeer.
लोभ और माया कभी समाप्त होने वाले नहीं है, ये सदैव इस श्रष्टि पर रहते हैं और शिकार की तलाश में रहते हैं। माया का आवरण छद्म होता है और इसकी पहचान गुरु के बगैर संभव नहीं हो पाती है। साहेब की वाणी कई स्थानों पर है की गुरु जो माया के विषय में परिचय देता है उसे आत्मसात करके माया जनित कार्यों से दूर रहकर हरी के नाम का सुमिरण करना चाहिए। हरी का सुमिरण ही मुक्ति का द्वार है।
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर।
ताहि का बख्तर बने, ताहि की शमशेर।।
Kabeera Loha Ek Hai, Gadhane Mein Hai Pher.
Taahi Ka Bakhtar Bane, Taahi Kee Shamasher..
लोहा एक है और उसी से तलवार बनती है और उसी से बख्तर ही, बस गढ़ने का अंतर है। ऐसे ही संसार में जितने भी जीव हैं वे एक ही परम ब्रह्म के अंश है, अंतर उनके आकार में है। इसलिए जहाँ सभी जीवों का आदर करना चाहिए और उन्हें ईश्वर की ही कृति समझना चाहिए। सभी जीवों के प्रति दया भाव रखना मानव देहि का कर्तव्य है क्योंकि वह अन्य जीवों में सबसे श्रेष्ठ है, उसमे इतनी समझ है की वह हरी के नाम का सुमिरण कर सके।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय॥
Raat Ganvaee Soy Ke, Divas Ganvaaya Khaay.
Heera Janm Amol Tha, Kodee Badale Jaay.
करोडो जतन के उपरान्त मानव देहि धारण करने को मिलती है लेकिन हम इसके महत्त्व को समझ नहीं पाते हैं, यह मानव जन्म हीरे के समान बहुमूल्य था जिसे हम माया के भ्रम में पड़कर कौड़ी में बदल देते हैं । करोड़ों जतन के उपरान्त मानव देह मिलती है, जिसे व्यर्थ में नहीं गवाना चाहिए और ईश्वर के नाम का सुमिरण करना चाहिए।
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
Raat Ganvaee Soy Ke, Divas Ganvaaya Khaay.
Heera Janm Amol Tha, Kodee Badale Jaay.
किताबी ज्ञान, शाश्त्रों के ज्ञान का जब तक कोई महत्त्व नहीं होता है यदि उसे आचरण में उतारा नहीं जाए, यदि आचरण में ढाई अक्षर भी प्रेम के हैं तो इसे पढने वाला ज्ञानी कहलाता है। जब तक आचरण में मानवीय गुणों का समावेश नहीं होता है तब तक किताबी ज्ञान के सहारे से पार लगना संभव नहीं है। प्रेम से आशय है मानवता, दया, उपकार जिन्हें आचरण में उतारना चाहिए।
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
Duhkh Mein Sumiran Sab Kare Sukh Mein Karai Na Koy.
Jo Sukh Mein Sumiran Kare Duhkh Kaahe Ko Hoy .
दुःख और सुख तो जीवन में आते जाते रहते हैं लेकिन यदि सुख में हरी के नाम का सुमिरण कर लिया जाए तो दुःख रहता ही नहीं है। सुख की अवस्था में हरी के नाम का सुमिरण करने से जीव छोटी छोटी बातों पर दुखी होना छोड़ देता है क्योंकि उसे यह ज्ञान हो जाता है की उसका कुछ भी नहीं है, और वह कुछ साथ भी लेकर नहीं जाएगा। आचरण में ऐसे गुण आने पर भौतिक और सांसारिक विषयों पर उसे दुःख नहीं होता है। यह एक मानसिक स्थिति है, जिसे असल वैराग्य धारण करने वाला समझ सकता है। माया अपने अनेकों रूप बदलती है, लेकिन जब इसका बोध हो जाता है तो जीव इससे दूर ही रहता है और उसे दुःख भी नहीं रहता है।
जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
Jaati Na Poochho Saadhoo Kee, Poochh Leejie Gyaan,
Mol Karo Taravaar Ka, Pada Rahan Do Myaan.
साधू/संतजन की जाती का है, यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उसके ज्ञान का महत्त्व होता है। साहेब की वाणी है की साधू से उसकी जाती के स्थान पर उसके ज्ञान की चर्चा होनी चाहिए जैसे की तलवार का महत्त्व होता है म्यान का नहीं। तात्कालिक समाज और वर्तमान समाज जातियों में विभक्त है और आपसी संघर्ष का कारण भी बनता है। इस पर साहेब की वाणी है की कौन की जाती है यह उपयोगी नहीं है बल्कि उसके ज्ञान को धारण करना उपयोगी है। किसी को जाती के आधार पर कम करके आंकना उचित नहीं है।
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर॥
Bada Hua To Kya Hua Jaise Ped Khajoor.
Panthee Ko Chhaaya Nahee Phal Laage Ati Door.
यदि कोई बड़ा है और वह उपयोगी नहीं है तो उसके बड़े होने का क्या फायदा ? जैसे खजूर का पेड़ काफी ऊँचा/बड़ा होता है लेकिन उसके फल इतनी उंचाई पर लगते हैं जिन्हें प्राप्त करना संभव नहीं है और उसकी छांया का भी कोई लाभ नहीं मिलता है क्योंकि उंचाई पर होने के कारण जमीन पर उसकी छाया आती नहीं है, इसका सहारा पंथी ले सके। ऐसे ही यदि किसी ज्ञानी जो अपने आप को बड़ा घोषित करता है और यदि उसके ज्ञान से किसी को कोई लाभ नहीं मिलता है तो समझे की उसका ज्ञान व्यर्थ है।
साच बराबर तप नही, झूठ बराबर पाप।
जाके हृदय में साच है ताके हृदय हरी आप॥
Saach Baraabar Tap Nahee, Jhooth Baraabar Paap.
Jaake Hrday Mein Saach Hai Taake Hrday Haree Aap.
सत्य स्वंय में एक तप है और झूठ पाप है, जिनके हृदय में सत्य है वहीँ पर हरी का वास है। ईश्वर क्या है ? सत्य ही ईश्वर है। जिनके हृदय में सत्य है वहां आप विराजमान हैं।
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
Saadhu Aisa Chaahie Jaisa Soop Subhaay.
Saar Saar Ko Gahi Rahai Thotha Deee Udaay.
साधू ऐसा होना चाहिए जैसे की सूप (अनाज साफ़ करने का उपकरण) जो अनाज को एक तरफ और कचरे को अलग कर देता है। ऐसे ही साधू जन किसी भी विषय का सार सार ग्रहण कर लेते हैं और थोथा हवा में उडा देते हैं। दूसरी तरफ साहेब का संकेत है की इस संसार में तरह तरह का ज्ञान उपलब्ध है जिनमे से हमें सार और उपयोगी बातों को ग्रहण कर लेना चाहीए।
ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।।
Aisee Banee Boliye, Man Ka Aapa Khoy.
Auran Ko Sheetal Karai, Aapau Sheetal Hoy..
वाणी शीतल होनी चाहिए, शीतल वाणी जहाँ स्वंय को सुख और शीतलता का अनुभव करवाती है वहीँ पर दूसरों को भी शीतलता देती है। भाव है की वाणी की मधुरता अत्यंत ही आवश्यक है, जिसकी वाणी में मधुरता होती है वह सभी के दिल जीत लेता है। अन्य स्थान पर साहेब की वाणी है की कोयल किसी को क्या देती है और कौवा किसी का क्या छीन लेता है लेकिन चूँकि कौवा मधुर नहीं बोलता है इसलिए उसे कोई पसंद नहीं करता है।
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय॥
Tinaka Kabahun Na Nindiye, Jo Paanv Tale Hoy.
Kabahun Ud Aankho Pade, Peer Ghaaneree Hoy.
तिनका या जिन्हें हम छोटा मानते हैं, उनकी निंदा कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि इस जगत में कोई भी महत्वहीन नहीं होता है, सभी का अपना महत्त्व होता है। यह अहम् होता है जो जीव को अन्य जीवों के प्रति क्रूरता को उत्पन्न करता है,जो व्यक्ति अपने अहम् को समाप्त कर लेता है, वह सभी के लिए सम द्रष्टिकोण रखता है। दूसरी तरफ किसी कम करके आंकना भी उचित नहीं होता है जैसे जो तिनका पांवों के निचे दबा हुआ होता है वह यदि उडकर आखों में गिर जाए तो अत्यधिक पीड़ा का कारण बन जाता है। किसी के महत्त्व को कम नहीं करना चाहिए सभी का समान महत्त्व होता है।
कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।।
Kahate Ko Kahee Jaan De, Guru Kee Seekh Too Ley.
Saakat Jan Aushvaan Ko, Pheri Javaab Na Dey..
हमें सत्य के मार्ग पर बढना चाहिए और दुष्ट जन और कुत्तों को मुड़ कर जवाब नहीं देना चाहिए। भाव है की अनर्गल की टीका टिप्पणी को छोड़ कर अपने कार्य पर ध्यान देना चाहिए। जो व्यक्ति माया के भ्रम का शिकार हैं उन्हें भक्ति मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति पागल नजर आता है और वे उसके कार्यों और व्यवहार की मीन मेख निकालते हैं, ऐसे में साहेब की वाणी है की लोगों की बातों पर ध्यान मत दो और अपने कार्य से कार्य रखकर भक्ति में लीन रहो।
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
Jo Toko Kaanta Buvai Taahi Bov Too Phool.
Tohi Phool Ko Phool Hai Vaako Hai Tirasul.
जो जन तुम्हारा बुरा करते हैं तुम उनका भला ही सोचो, जैसे जो तुम्हारे लिए काँटा बोता है तुम उसके लिए फूल बिछाओ क्योंकि आगे चलकर तुम्हें तो फूल और उसे कांटे ही मिलने वाले हैं। जो जैसा सोचता है वैसा ही पाता है, इसलिए सदा अच्छा ही सोचना चाहिएजो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल। यह तय है की जो बुरा सोचता है, वह बुरा ही प्राप्त करता है, उसे कभी अच्छा नहीं मिल सकता है। अतः अच्छा सोचे, अपने शत्रुओं के प्रति भी यही प्रशन्न रहने का आधार है।
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिनके पास॥
Utha Bagula Prem Ka Tinaka Chadha Akaas.
Tinaka Tinake Se Mila Tin Ka Tinake Paas.
हृदय में प्रेम उत्पन्न हो जाने पर तिनका हल्का हो उठता है और आकाश में उड़ चल पड़ता है, आत्मा परमात्मा से मिल जाती है तिनका तिनके पास । जब हृदय में प्रेम उत्पन्न हो जाता है तो विषय विकारों का भार उसके माथे नहीं रहता है और वह हल्का हो जाता है, उसे कोई रोकने वाला भी नहीं है, वह उपर उठता है और पूर्ण परमब्रह्म की ज्योति में समां जाता है।
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
हरी की महिमा का वर्णन कर पाना संभव नहीं है। सात समुद्र के पानी की स्याही कर ली जाए और समस्त जंगलों की लकड़ी की लेखनी कर ली जाए और सभी धरती के कागजों का उपयोग ले लिया जाए तो भी हरी के गुण का वर्णन संभव नहीं है।
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव।
स्वामी कहै न बैठना, फिर फिर पूछै नाँव।।
जो लोग स्वंय को सिद्ध घोषित कर चुके हैं / लोगों के द्वारा मान्यता प्राप्त हो चुके हैं उनके पास जाना व्यर्थ है क्योंकि वे बैठने के लिए भी नहीं पूछेंगे और घूम फिर कर बार बार नाम पूछने लग पड़ेगे। भाव है की उन्हें तुमसे कोई लेना देना नहीं होगा बस वे तो समय व्यतीत करने के लिए बार बार नाम ही पूछ लेंगे। ऐसी लोगों को स्वंय के ज्ञान पर अभिमान होने लगता है और वे दूसरों को कोई महत्त्व नहीं देते हैं।
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥
साधू संग्रह करने की प्रवृति के नहीं होते हैं क्योकि उनके आगे और पीछे ईश्वर खड़ा होता है, जब जरूरत पड़ती है तब हरी उसे मांगने पर दे देते हैं। भाव है की धन संचय की प्रवृति से व्यक्ति माया के भ्रम जाल का और अधिक शिकार बनता है, जबकि यह भी सत्य है की कोई भी व्यक्ति अपने सर पर धन की गठड़ी रख कर नहीं जाता है।
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
वक्ती दूसरों के दोष/अवगुण देख कर प्रशन्न होता है लेकिन वह स्वंय का मूल्यांकन नहीं करता है, वह दूसरों की बुराई करने और कमी निकालने में ही व्यस्त रहता है। वह स्वंय के अवगुणों को नहीं देखता है जिसका ना कोई आदि है और ना ही अंत ही। इसलिए कबीर साहेब की वाणी है की निंदक नियरे राखिये, जिससे स्वंय के अवगुणों के मूल्यांकन का समय मिल सके।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर॥
माला को फेरते फेरते युग बीत चलें हैं लेकिन मन का शंशय/भ्रम दूर नहीं हुआ है, इसलिए हाथों के मनके को छोड़ कर मन के मनके को फेरना चाहिए। भौतिक रूप से और लोगों को दिखाने के लिए की गई भक्ति का कोई महत्त्व नहीं है क्योंकि जब तक हृदय से भक्ति नहीं होती तब तक आचरण में शुद्धता नहीं आएगी और किया धराया सब व्यर्थ है। वस्तुतः लोग कर्मकांड का सहारा इसलिए लेते हैं क्योंकि माया को छोड़ना आसान नहीं होता है।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।
यह मनुष्य देह दुर्लभ है जो बार बार प्राप्त नही होती है, जैसे पेड़ से पत्ते गिर जाते हैं वैसे ही इसे समाप्त होने में कोई विशेष समय नहीं लगता है, भाव है की यह स्थाई नहीं है। इसलिए हरी का सुमिरण करना ही इस जीवन का आधार है।
साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय।।
ईश्वर से प्रार्थना है की वे इतना धन दे जिससे गुजरा चल सके, मेरे परिवार के लिए जो प्रयाप्त हो और द्वार पर आया साधु भी भूखा नहीं जाए। भाव है की धन उतना ही आवश्यक है जिससे दान पुन्य कर सकें और स्वंय का गुजारा चल सके।
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।।
सभी लोग तन को जोगी कर लेते हैं, वस्त्र भगवा पहन लेते हैं, तिलक छाप लगा लेते हैं, केश बढ़ा लेते हैं, माला फेरते हैं आदि लेकिन यह तन को जोगी करना है, लेकिन मन को कोई बिरला ही जोगी कर पाता है, मन जोगी से आशय है की माया / लोभ का त्याग करके हृदय से भक्ति करना। अपने आचरण में सत्य और मानवीय गुणों का समावेश करना ही असली भक्ति है। मन कोजोगी कर लेने से सहज ही सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है।
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब तक अहंकार था तब तक ईश्वर नहीं था, जब गुरु ने हृदय में प्रकाश का दीपक जलाया तब सारा अन्धकार दूर हो गया। गुरु के द्वारा ज्ञान का दीपक जलाया जिससे सभी अन्धकार दूर हो गए।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब गुण के ग्राहक मिलते हैं तब गुणों का मूल्य होता है, जब गुणों की कदर करने वाला नहीं होता है तो गुण कौड़ी में बदल जाते हैं। भाव है की गुणों की कदर करने वाले की पहचान होनी चाहिए।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : कबीर बाजार में खड़ा है, इस संसार के मध्य में है और सबकी खैर माँग रहा है, उसकी ना तो किसी से दोस्ती है और ना ही किसी से वैर भावना ही है। भाव है की कबीर को किसी से कोई लेना देना नहीं है वह सभी के लिए समान है। ना तो किसी से लगाव और ना किसी से प्रीत यही सम भावना है जो एक साधू का गुण होता है।
जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जैसे तिल के अंदर तेल है, सूक्ष्म रूप से, जैसे चकमक में आग है लेकिन दिखाई नहीं देती है ऐसे ही सभी जीवों में ईश्वर है उसे जगाना चाहिए/खोजना चाहिए। सभी जीवों में ईश्वर का वास/अंश है लेकिन उसे खोजना पड़ता है, प्रयत्न करने पड़ते हैं जैसे तिलों में से तेल को निकालना पड़ता है और पत्थरों (चकमक) को आपस में रगड़ना पड़ता है तब कहीं जाकर उनके अंदर छुपी हुई आग बाहर निकल कर आती है ऐसे ही स्वंय के अन्दर व्याप्त ईश्वर को समझ कर उसे खोजना पड़ता है।
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझा मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
दोहे का हिंदी भावार्थ : कहते सुनते समझाते हुए कई दिन बीत गए लेकिन विषय वासनाओं में उलझा हुआ मन सुलझा नहीं है। कबीर साहेब कहते हैं की तुम अभी भी जाग्रत नहीं हुए हो और आज भी पहले दिन की भाँती जैसे ही हो। भाव है की हम माया के चक्कर में ही पड़े रहते हैं और अपने जीवन के उद्देश्य को भुला बैठते हैं।
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जिसका उदय हुआ है उसका अंत होना है और जो फुला हुआ है वह मुरझा जाएगा, जिसका निर्माण हुआ है, जिसे चिना (चुना/निर्माण) हुआ है। जो आया है उसे जाना है, भाव है की जो उत्पन्न हुआ है एक रोज समाप् हो ही जाना है। यह पकृति का नियम है। इसलिए किसी के समाप्त हो जाने पर दुःख नहीं करना चाहिए। ऐसे ही जिसने जन्म लिया है वह एक रोज मृत्यु को प्राप्त होगा।
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए।
वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : व्यर्थ की चिंता करने से काया समाप्त हो जाती है यह एक ऐसा रोग है जिसका वैद्य भी कुछ उपचार नहीं कर सकता है। वैद्य इस विषय में क्या उपचार कर सकता है, क्योंकि यह जीव को अन्दर ही अन्दर डाकिनी की तरह खाने लगती है। हमें सद्मार्ग पर चलते हुए कर्म करने चाहिए और फल ईश्वर के ऊपर छोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से जीव दुखी नहीं होता है और वह बेफिक्र रहता है, यही जीवन जीने का रहस्य है। दाता के उपर छोड़ देना चाहिए उसे जो उचित फल देना है वह प्राप्त होकर ही रहता है।
कबीर गर्व न कीजिय, ऊंचा देखि आवास।
काल परों भूईं लेटना, ऊपर जमसी घास।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : कबीर साहेब की वाणी है की ऊँचा मकान देख कर (स्वंय की सम्पति को देख कर) गर्व नहीं करना चाहिए क्योंकि कल को तुम्हारे अंत पर तुम्हे जमीन पर लिटा दिया जाएगा और ऊपर घास को जमना/उगना है। सांसारिक और भौतिक वस्तुओं पर गर्व करना, माया पर गर्व करना व्यर्थ है, एक रोज मानव जीवन समाप्त हो ही जाना है और सब यहीं धरा का धरा रह जाना है इसलिए किसी वस्तु पर गर्व/अभीमान मत करो और हरी का सुमिरण करते रहो, यही जीवन का सार है।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : अति सर्वत्र वर्जित है, ज्यादा बोलना, ज्यादा चुप रहना ठीक नहीं है। ना तो अति धुप उचित है और नाहिं ज्यादा बरसात ही भली होती है। संयमित मात्रा में सभी विषय ठीक लगते हैं ये कम या ज्यादा होने पर इन्हें वर्जित किया गया है।
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
दोहे का हिंदी भावार्थ : यह मन तो चंचल है और पक्षी बन बैठा है, इसका जैसा मन होता है यह वैसा ही करने लगा है। लेकिन यह भी सत्य है की जो जैसी संगती करता है वह वैसा ही बन भी जाता है। भाव है की हमें किन लोगों की संगती करनी है यह सोच समझ कर चुनाव करना चाहिए।
ज्यों नैनों में पुतली, त्यों मालिक घट माहिं।
मूरख लोग न जानहिं, बाहिर ढूढ़न जाहिं।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जैसे नयनों के मध्य में पुतली है ऐसे ही हृदय में हरी का वास है, मुरख लोग उसे बाहर खोजते हैं। इस बात को जरा समझने की जरूरत है की ईश्वर सभी के हृदय में वास करता है लेकिन उसे जानना बहुत ही जरुरी है, उसे तभी जान पायेंगे जब हम सद्कर्म करेंगे, नेक राह पर चलेंगे, अन्यथा हम उसे जान ही नहीं पायेंगे प्राप्त करना तो दूर की कौड़ी है।
जब तू आया जगत में, लोग हँसे तू रोय।
ऐसी करनी ना करी, पाछे हँसे सब कोय।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब व्यक्ति / जीव जगत में आता है तो लोग ख़ुशी मनाते हैं और जीव पीड़ा से रोता है, यहाँ साहेब की वाणी है की यह मानव देह पाकर कुछ ऐसा करो जिससे जीवन के समाप्त होने पर लोग ख़ुशी मनाएं। जीवन प्राप्त हो जाने के उपरान्त लोगों की भलाई करना, हरी के नाम का सुमिरण करना, सद्मार्ग का अनुसरण करना इस जीवन का उद्देश्य है। नेक राह पर चलते हुए किसी का दिल नहीं दुखाना ही जीवन जीने का रहस्य है।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : तुम आलस के वश में आकर अपने जीवन के अमूल्य समय को व्यर्थ क्यों कर रहे हो, एक दिन जब यह जीवन समाप्त हो जाएगा तो सभी को लम्बे पाँव पसार कर सोना है। भाव है की यह जीवन अमूल्य है, करोड़ों जतन के उपरान्त मानव देह धारण के लिए मिली है और जीव माया के भरम जाल का शिकार बनकर इसे व्यर्थ ही आलस्य में सोने में बिता देता है। एक रोज तो सभी को लम्बे पांव पसार कर सोना है, इसलिए उठो/जागो और मुरारी/ईश्वर के नाम का सुमिरण करो यही जीवन का आधार है।
आछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब जवानी के दिन थे, शरीर में ताकत थी तब तो तुमने ईश्वर को याद नहीं किया अब जब शरीर उत्तर दे चूका है /श्री क्षीण होने लगा है, विकारों ने तुमको आकर घेर लिया है तब क्या किया जा सकता है, कुछ भी नहीं। अब तो चिड़िया ने खेत चुग लिया है, अवसर बीतने के उपरान्त सिवाय पछताने के कुछ भी शेष नहीं रहा है। भाव है की समय रहते हरी का सुमिरण करना चाहिए यही जीवन का सत्य है।
चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोए।
दोहे का हिंदी भावार्थ : संसार में आकर जीव की हालत देखकर साहेब व्यथित हो उठते हैं, दो पाटों के बीच में कोई साबुत नहीं बचा है, पाटों से आशय है अच्छा और बुरा, माया और सद्कर्म के बीच में मनुष्य पिस रहा है क्योंकि वह एक मार्ग को भ्रम के कारण चुन नहीं पा रहा है। यहाँ दो पाटों से आशय जन्म और मृत्यु से भी लिया जा सकता है की इस जन्म और मरण के फेर में मनुष्य फँस कर रह गया है। यहाँ चक्की से आशय समय से है। भाव है की जीव भरम के कारण किसी एक मार्ग का चयन नहीं कर पाता है और व्यथित रहता है।
मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : सामाजीक प्रतिष्ठा और मान सम्मान के लिए लोग देखा देखी भक्ति करने लग जाते हैं, लेकिन जब इनको भक्ति में कुछ प्राप्त नहीं होता है तब यह संसार की कमियाँ निकालने जग जाते हैं। भाव है की उन्हें भक्ति में कुछ भी हाशिल इसलिए नहीं होता है क्योंकि वे भक्ति को हृदय से नहीं करते, वस्तुतः उनको ईश्वर से कोई लेना देना ही नहीं होता है वे तो दिखावे की भक्ति करते हैं जैसे माला फेरना, तिलक लगाना, वस्त्र धारण करना आदि लेकिन ये सभी भौतिक प्रयत्न हैं जिनका वास्तविक भक्ति से कुछ भी लेना देना नहीं होता है। भक्ति का भी तभी लाभ होता है जब वह सच्चे मन से की जाए, पवित्र हृदय से की जाए और बदले में कुछ प्राप्त करने की आशा नहीं हो।
पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया साथि॥
दोहे का हिंदी भावार्थ : जीव जब तक भ्रम का शिकार रहता है वह सत्य को पहचान नहीं पाता है और लोगों का ही अनुसरण करता है, जब आगे चलकर उसे सतगुरु की प्राप्ति होती है और वे उसे ज्ञान का दीपक देते हैं तो अज्ञान का अँधेरा दूर हो जाता है और उसे सत्य का ज्ञान होता है। अज्ञान में व्यक्ति को लगता है की यह संसार ही उसका घर है, उसे यहीं रहना है तो वह सांसारिक कार्यों में बढ़ चढ़कर भाग लेता है, माया जोड़ने में लगा रहता है और अनैतिक मार्गों को भी अपना लेता है। लेकिन जब सतगुरु उसे यह बताते हैं की वह किन झंझटों में फंसा हुआ है उसका उद्देश्य और मार्ग तो अलग हैं, उसे माया के जाल से दूर रहना है और ईश्वर के नाम का सुमिरण करना है।
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ॥
दोहे का हिंदी भावार्थ : गुरु के ज्ञानं रूपी बादल बरसा तब हृदय भीग गया और हृदय हरा भरा हो गया, आत्म ज्ञान का प्रकाश पैदा हो गया। ज्ञान की बारिश से भक्ति के पादप पैदा हुए, भक्ति पैदा हुई।
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान।
सबही ऊभा पंथ सिर, राव रंक सुलतान।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : काल के बंधन में राजा, भिखारी सभी बंधे हुए हैं और यह जीवन बस थोड़े से समय के लिए मिला है, इस जीवन में तुम माया के भ्रम का शिकार होकर ईश्वर को भूल गए हो। थोड़े से दिनों की खातिर तुम कितने ठाट बाट करते हो, दिखावा करते हो। भाव है की यह जीवन बड़े ही जतन के उपरान्त हासिल हुआ है, ना जाने कितनी अन्य योनियों में भटकने के बाद, ऐसे में माया के भ्रम जाल में फंसकर हम अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को विष्मृत कर बैठते हैं और सोचते हैं की हम तो यहाँ सदा ही रहेंगे लेकिन यह सत्य नहीं है सभी के सर के ऊपर काल का पहरा लगा है, भले ही वह राजा हो या कोई भिखारी, सभी का अंत होना है, इस जगत में सभी दो दिन के मेहमान हैं लेकिन यह समझ में भी तो नहीं है, यह ज्ञान गुरु ही दे सकता है।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों सारा परभात।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : मानव जीवन क्षणिक है/अल्प कालिक है यह स्थाई नहीं है। मनुष्य का जीवन पानी के बुदबुदे के समान है जैसे पानी का बुलबुला थोड़े समय के बाद फूट जाता है ऐसे ही मनुष्य जीवन भी समाप्त हो जाता है। यह उसी प्रकार से नष्ट हो जाता है जैसे सूर्य के उदय होने पर रात्री का अँधेरा । भाव है की जीवन अल्पकालिक है, हमें इस संसार में मन को नहीं लगाना चाहिए, एक रोज हमें सब छोड़ के चले जाना है इसलिए सांसारिक झमेलों को छोडकर हरी भक्ति में अपना ध्यान और मन लगाना चाहिए।
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय।
ज्यों मेंहदी के पात में, लाली लखी न जाय।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : ईश्वर सभी के हृदय में वास करता है, वह घट घट का वाशी है वैसे ही जैसे मेहंदी में लाली समाई हुई होती है लेकिन प्रत्यक्ष रूप से देखने में वह दिखाई नहीं देती है। भाव है की ईश्वर किसी मंदिर मस्जित, तीर्थ, कर्मकांड/पुस्तकों में नहीं है वह तो हमारे ही हृदय में है लेकिन उसे प्रकाशित करना पड़ता है। वह प्रकाशित कब होगा ? सत्य के मार्ग का अनुसरण करने, सद्कार्य करने, दया, उपकार जैसे मानवीय गुणों को स्वंय में समाहित करने पर स्वतः ही ईश्वर का आभास होने लगेगा और हम धीरे धीरे माया के जाल से मुक्त होने लगेंगे।
निज सुख आतम राम है, दूजा दुख अपार।
मनसा वाचा करमना, कबीर सुमिरन सार।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : हरी का सुमिरण ही परम सुख है, हृदय रूपी राम ही सुख है और बाकी सभी सांसारिक क्रियाएं दुखों का कारण हैं। मन वचन और कर्म से हरी के नाम का सुमिरण ही सभी ज्ञान का सार है। भाव है की सभी कर्मकांड, दिखावे की भक्ति, तीर्थ आदि को छोडकर हृदय से हरी का सुमिरण ही सुखो की खान है।
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होन न छार।
साधु बचन जलरूप है, बरसे अमृत धार।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : कुटिल वचन/वाणी जला डालती है, दुःख देती हैं इसलिए कडवे वचनों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए और साधू में वचन जो अमृत के समान है उन्ही का अनुसरण करना चाहिए। भाव है की कडवे वचन जहाँ व्यक्ति को जला कर राख के समान कर देते हैं वहीँ पर अच्छे वचन/मीठी वाणी सभी को सुख देती है मानों अमृत की धार बरस रही हो। हमें स्वंय की वाणी का मूल्यांकन कर मीठी वाणी का उपयोग करना चाहिए। यही दूसरों और स्वंय के सुख की कुंजी है।
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सब तोर।
तेरा तुझ को सौंपते, क्या लागेगा मोर।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : इस संसार में हम माया के भ्रम का शिकार होकर सोचते हैं की यह मेरा है, मैंने यह किया, मैंने इतना कमा लिया आदि लेकिन सभी इसी जगत का है और यही पर रह जाना है, भाव ही की मेरा मुझमे कुछ भी नहीं है और जो भी मैंने लिया है यहीं से लिया है और यही पर रह जाना है, मैंने आपको सौंप दिया है, अब इसमें मेरा क्या लगा क्योंकि मेरा तो कुछ था ही नहीं।
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : इस संसार में सदा के लिए नहीं रहना है, एक रोज सब छोडकर जाना है, जैसे वृक्ष से पत्ता टूट कर दूर जा गिरता है और पुनः वृक्ष से मिलाप नहीं हो पाता है। भाव है की जीवन क्षण भंगुर है इसलिए ईश्वर के नाम का सुमिरण करते रहना चाहिए।
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार।
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : यदि पत्थर को पूजने से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव हो तो पहाड़ को क्यों नहीं पूज लिया जाए, पहाड़ तो पत्थर से बड़ा ही होता है। पत्थर की मूर्ति की पूजा करने से तो अच्छा है की चक्की की पूजा की जाए जिससे यह संसार पीस कर खाता है। भाव है की पत्थर की मूर्ति के अन्दर ईश्वर नहीं हैं ईश्वर तो हृदय में व्याप्त है।
माया तो ठगनी भई, ठगत फिरै सब देस।
जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेस।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : माया सभी को ठग लेती है, लेकिन जो इस माया को ही ठग ले उसे मेरा प्रणाम है। भाव है की संतजन ही माया रूपी ठगिनी को ठग सकते हैं।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : हम जैसा भोजन ग्रहण करते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है और जैसा हम पानी पीते हैं वैसी ही वाणी हो जाती है। भाव है की हमें संगती का विशेष रूप से ध्यान रखने की आवश्यकता है। यदि हम साधुजन, सदजन, और सज्जनों की संगत में रहेंगे तो स्वाभाविक रूप से अच्छे विचारों का उदय होगा और यदि हम सांसारिक लोगों की संगती में रहेंगे तो केवल माया को जोड़ने का ही कार्य करते रहेंगे।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : साधू जन वही है जो धन का भूखा नहीं है, माया से जो दूर रहता है, यदि कोई धन का भूखा है तो समझे की वह साधू नहीं है। भाव है की साधू कौन है, क्या वह साधू हो सकता है जो माया को जोड़ने में लगा रहता हो ? नहीं वह तो फिर हरी के मार्ग से विमुख होगा ही, बस उसने साधुओं के वस्त्र धारण कर लिए हैं लोगो को दिखाने के लिए लेकिन वह सही मायनों में साधू नहीं है। साधू माया और सांसारिक कार्यों से दूर ही रहता है।
एकही बार परखिये ना वा बारम्बार।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : जैसे बालू को सौ बार भी छान लिया जाए तो उसकी किरकिराहट/किरकिरी दूर नहीं होती है वैसे ही व्यक्ति को एक बार में परख लेना चाहिए और उसे बार बार आजमाना नहीं चाहिए। दुर्जन व्यक्ति दुर्जन ही रहने वाला है और सज्जना व्यक्ति सज्जन ही रहेगा।
हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : जैसे हीरे की परख जौहरी कर लेता है वैसे ही शबद की परख साधू जन कर पाता है। जो साधू को भी प्ररख ले उसका मत / उसकी बुद्धि तो सर्वोपरि होती है। भाव है की साधू कौन है इसे भी पहचानने की आवश्यकता है।
देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : इस मानव जीवन के देह को धारण करने का दंड है जो सुख और दुःख के रूप में सभी को मिलता है लेकिन ग्यानी व्यक्ति इसे सहन कर लेते हैं वहीँ अज्ञानी व्यक्ति रो रो कर इसे भुगता है। ज्ञानी जन यह जानता है की सुख और दुःख इस संसार में आते जाते रहते हैं और वह किसी बात का दुःख नहीं करता है लेकिन जो अज्ञानी हैं वे रो रो कर इसे भुगतते हैं जबकि सुख और दुःख इस संसार के दो पहलू हैं।
हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : मृत्यु के उपरान्त हड्डिया ऐसे जलती हैं जैसे लकडिया जलती हैं और इन्हें जलाने वाला भी एक रोज जलता है, देखने वाले भी जलते हैं, अब ऐसी में किससे पुकार की जाए। भाव है की यह सम्पूर्ण संसार ही नश्वर है एक रोज समाप्त हो ही जाना है यहाँ किसी से पुकार और मदद मांगने से कोई लाभ नहीं है, मदद तो उस मालिक से ही मांगनी चाहिए जो सभी की मदद करता है। सांसारिक कार्यों में अपने समय को व्यर्थ में गवाने के स्थान पर हमें हरी भक्ति में अपना ध्यान लगाना चाहिए।
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : शास्त्रों को पढकर, उनको सीख कर भी मन का संशय दूर नहीं हुआ है तो फिर इनका लाभ ही क्या होगा ? यह बात किससे कही जाए, यही दुःख का मूल है। भाव है की शास्त्रों में कोई उत्तर नहीं है, किताबों और उनके ज्ञान का कोई लाभ नहीं है जब तक इनको व्यवहार में ना उतारा जाए।
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : पढ़ पढ़ कर जीव पत्थर के समान कठोर हो गया है और लिख लिख कर ईंट के समान हो गया है लेकिन उसे प्रेम का एक भी छीटा नहीं लगा है, तो ऐसे ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं होता है। भाव है की प्रेम ही सबसे ऊँची चीज है प्रेम ही जीवन का आधार है। जब ज्ञान की प्राप्ति होती है तो उसके स्वभाव में स्वतः ही प्रेम आने लगते हैं।
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : कागजी ज्ञान और आँखों देखे ज्ञान में बहुत ही अंतर होता है तुम तो कहते हो उलझाने वाली और मैं कहता हु सुलझाने वाली। भाव है की व्यवहारिक ज्ञान ही उपयोगी होता है।
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : यह तन कच्चा है, एक रोज समाप्त हो जाना है, मन भी चंचल है और कांपता है, नर को कांपता देख काल हंसता है, भाव है की सभी के सर के उपर काल खड़ा है लेकिन हम हरी सुमिरण को भूल कर अन्य कार्यों में ही अपने जीवन को समाप्त कर देते हैं।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी लड़ी मरे, मरम न जाना कोई।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : हिंदी कहते हैं की उन्हें राम प्यारा है और तुर्क कहते हैं की उन्ही रहमान प्रिय है। आपस में ईश्वर की श्रेष्ठता को लेकर लड़ लड़ कर समाप्त हो जाते हैं लेकिन किसी ने मर्म को नहीं जाना है। भाव है की लोग धर्मों में बटे हुए हैं, स्वंय के मत के कारण आपस में संघर्ष करते हैं, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं की ईश्वर एक है।
मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : मन को मार दिया और आसक्ति को भी समाप्त कर दिया मानों यह संसार भी छूट गया है, ऐसे ही एक जोगी जोग में रम गया और बस राख ही बची हुई है। यदि मन को वस में कर लिया जाए तो यह ऐसे ही है जैसे संसार में रहते हुए भी संसार में ना रहना।
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : यह तन एक रोज समाप्त होने वाला है अभी भी समय है चेत जाओ, जिन लोगों के पास करोड़ों का धन था वे भी खाली हाथ ही गए हैं। भाव है की माया के भ्रम जाल से निकल कर हरी नाम का सुमिरण करना चाहिए, माया ना तो लेकर आया था और ना ही लेकर जाना है।
इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : इस तन का दीपक बना लिया है और इसमें प्राणों की बाती बनाकर रक्त का तेल बनाया है, ना जाने कब हरी के दर्शन होंगे। भाव है की ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है, ईश्वर की प्राप्ति के लिए यह तन और मन दोनों एक करके हरी का सुमिरण करना पड़ता है तब कहीं जाकर उसके दर्शन होते हैं।
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : एक रोज सभी को ये दुनियाँ छोड़ के जानी है, वह चाहे राजा हो या फ़कीर, तो तुम क्यों नहीं सावधान होते हो ? सावधान होने से आशय है की माया को समझे और ईश्वर भक्ति में अपने चित्त को लगाएं।
मैं जानू हरि दूर है हरि हृदय भरपूर।
मानुस ढुढंहै बाहिरा नियरै होकर दूर।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : व्यक्ति सोचता है की हरी उससे दूर है, वह किसी तीर्थ, मंदिर मस्जिद में है लेकिन हरी तो उसके हृदय में सदा रहता है, जरूरत है तो हरी को प्रकाशित करने की, वह तभी संभव होगा जब जीव सद्मार्ग का अनुसरण करेगा और सत्य की राह पर चलते हुए हरी का सुमिरण करे, अन्यथा मात्र भटकाव ही मिलता है और कुछ नहीं।
मोमे तोमे सरब मे जहं देखु तहं राम।
राम बिना छिन ऐक ही, सरै न ऐको काम।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : मुझमें तुममे सभी में राम हैं, इस श्रृष्टि के कण कण में ईश्वर व्याप्त है, ईश्वर के बगैर एक क्षण भी कार्य पूर्ण नहीं होता है। घट घट में राम है, कण कण में राम है और राम के बगैर किसी कार्य की सिद्धि पूर्ण नहीं होती है वही सबका मालिक है।
बाहिर भीतर राम है नैनन का अभिराम।
जित देखुं तित राम है, राम बिना नहि ठाम।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : ईश्वर बाहर और भीतर सर्वत्र ही विद्यमान है, जहाँ देखो वहीँ राम विराजमान हैं, जो आखों को आराम देने वाले हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ पर ईश्वर मौजूद ना हो।
राम नाम तिहुं लोक मे सकल रहा भरपूर।
जो जाने तिही निकट है, अनजाने तिही दूर।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : ईश्वर कण कण में व्याप्त हैं, तीनों लोक में वे विराजमान हैं जो जानता है उसके निकट हरी है और जो नहीं जानता है उससे बहुत दूर हैं। अनजाने से भाव है की जो ईश्वर को मंदिर मस्जिदों में खोजता है और स्वंय का विश्लेष्ण नहीं करता है।
कागत लिखै सो कागदी, को व्यहाारि जीव।
आतम द्रिष्टि कहां लिखै , जित देखो तित पीव।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : शास्त्र, किताबों में जो ज्ञान है वह महज किताबी है जिसका व्यावहारिक जीवन से कोई लेना देना नहीं होता है। आत्म ज्ञान से प्राप्त ज्ञान को कहीं लिखा नहीं जा सकता है, आत्म ज्ञान यही है की जहाँ देखो वहीँ पर ईश्वर का वास है। आत्म ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त आप जहाँ देखो वाही पर ईश्वर को पावोगे।
कहा सिखापना देत हो, समुझि देख मन माहि।
सबै हरफ है द्वात मह, द्वात ना हरफन माहि।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : शिक्षा के स्थान पर तुम अपने मन में विचार करो, सभी अक्षर दवात में हैं दवात अक्षरों में नहीं है। यह संसार परमात्मा में समाया हुआ है और समस्त ब्रह्माण्ड भी उसी का अंग है। भाव है की संसार से ईश्वर नहीं, अपितु यह संसार उस मालिक का ही एक अंग है। कण कण मी उसी का वास है।
ताको लक्षण को कहै, जाको अनुभव ज्ञान।
साध असाध ना देखिये, क्यों करि करुन बखान।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : अनुभव जनित ज्ञान सर्वोच्च है, इसमें किसी लक्षणों के बारे में क्या कहा जाए, और यह साधू असाधु से भी परे है, भाव है की अनुभव जनित ज्ञान का वर्णन करना संभव नहीं है।
कबीर गाफील क्यों फिरय, क्या सोता घनघोर।
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : इस संसार में गाफिल होकर नहीं रहना चाहिए, सचेत रहना चाहिए। काल सरहाने के पास ऐसे खड़ा है जैसे चोर अँधेरे में छुपा रहता है। भाव है की काल कभी किसी को अपना शिकार बना सकता है इसलिए हमें हरी के नाम का सुमिरण करना चाहिए।
कबीर हरि सो हेत कर, कोरै चित ना लाये।
बंधियो बारि खटीक के, ता पशु केतिक आये।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : हरी सुमिरण के अतिरिक्त अन्य स्थान पर अपने ध्यान को मत भटकावो, कचरे में अपने चित्त को मत भटकावो, लगाओ, जैसे कोई पशु खटीक के बाहर बंधा हुआ है तो उसके कितना समय शेष बचा है, ऐसे ही काल कभी भी जीव को अपना शिकार बना सकता है।
माली आवत देखि के, कलिया करे पुकार।
फूले फूले चुनि लियो, कल्ह हमारी बार।
माली को आता हुआ देखकर कलियाँ पुकार करने लग जाती हैं की कल हमारी बारी है, भाव है की काल बारी बारी सभी को उसका शिकार बनना ही है। भाव है की काल सभी को एक रोज समाप्त कर देगा इसलिए हरी का सुमिरण करना चाहिए।
तरुवर पात सों यों कहै, सुनो पात एक बात
या घर याही रीति है, एक आवत एक जात।
वृक्ष पत्तों से कहता है की पत्तों का आना जाना लगा रहता है, एक पत्ता टूटता है तो दूसरा आ जाता है, यही इस श्रृष्टि का नियम है। भाव है की आना जाना, जन्म मरण पर दुखी नहीं होना चाहिए, यह तो जगत में लगा ही रहता है।
घड़ी जो बाजै राज दर, सुनता हैं सब कोये
आयु घटये जोवन खिसै, कुशल कहाते होये।
राजा के दरबार में प्रत्येक घंटे की आवाज को सभी सुन रहे हैं। पल पल जीवन की आयु कम होती जा रही है, यौवन नष्ट होता जा रहा है इस पर कुशल कैसे हो सकता है। भाव है की हमें इस विषय पर विचार करना चाहिए की पल पल हमारी आयु कम होती जा रही है, इसलिए हरी के नाम का सुमिरण करना चाहिए।
चहु दिस ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हथियार।
सब ही येह तन देखता, काल ले गया मार।।
चारों तरफ रक्षा के लिए सूरमा हाथों में हथियार लेकर खड़े हैं लेकिन फिर भी काल अपने शिकार को मार कर ले ही जाता है और सब देखते ही रह जाते हैं। भाव है की मृत्यु निश्चित है, वह किसी भी उपाय से टाली नहीं जा सकती है इसलिए हरी का समीरण ही इस आवागमन से मुक्ति का द्वार है।
काल फिरै सिर उपरै, हाथौं धरी कमान।
कहै कबीर गहु नाम को, छोर सकल अभिमान।।
काल सर के ऊपर हाथों में तीर कमान लेकर अपने शिकार की तलाश में चक्कर लगा रहा है, मंडरा रहा है इसलिए घमंड को छोडकर हरी के नाम का सुमिरण करना ही इस जीवन का आधार है। हमें अहंकार का त्याग करके हरी के नाम का सुमिरण करना चाहिए। भाव है की यह जीवन कभी भी समाप्त हो सकता है इसलिए हरी के नाम का सुमिरण ही हमें आवागमन के फेर से मुक्त कर सकता है, अहंकार को त्याग करके हरी के सुमिरण में ध्यान को लगाना चाहिए।
काल पाये जग उपजो, काल पाये सब जाये।
काल पाये सब बिनसि है, काल काल कंह खाये।
श्रृष्टि की उत्पत्ति अपने नियत समय पर होती है और निश्चित समय के पूर्ण होने पर उसका विनाश भी हो ही जाता है, काल भी एक रोज काल को समाप्त कर देता है। भाव है की जीवन की उत्पत्ति और विनाश एक प्रक्रिया है जो निश्चित होती है।
कुशल जो पूछो असल की, आशा लागी होये
नाम बिहुना जग मुआ, कुशल कहा ते होये।
जब तक संसार में आशक्ति है और ईश्वर के नाम में मन नहीं लगा हुआ है तो कुशल कहाँ से होगा। भाव है की हरी सुमिरण ही कुशलता का आधार है। बगैर नाम सुमिरण के कुशल कैसे हुआ जा सकता है।
काल काल सब कोई कहै, काल ना चिन्है कोयी
जेती मन की कल्पना, काल कहाबै सोयी।
काल के बारे में सभी बातें करते हैं लेकिन काल को किसी ने चिन्हित नहीं किया है, किसी ने देखा नहीं है, जैसी मन की कल्पना होती है वैसा ही जीव काल के विषय में वर्णन करता है।
अजार धन अतीत का, गिरही करै आहार
निशचय होयी दरीदरी, कहै कबीर विचार।
यदि सन्यासी का धन गृहस्थ व्यक्ति कार्य में लेता है तो वह दरिद्र ही बनता है यह कबीर विचार करने के उपरान्त कहता है।
एैसी ठाठन ठाठिये, बहुरि ना येह तन होये
ज्ञान गुदरी ओढ़िये, काढ़ि ना सखि कोये।
व्यक्ति को ऐसा वेश धारण करना चाहिए जिससे यह जन्म पुनः हो ही ना, ज्ञान की गुदरी को ओढना चाहिए जिसको कोई छीन ना सके। भाव है की हमें ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे आवागमन का फेर मिट सके, हरी का सुमिरण करना चाहिए।
कवि तो कोटिन कोटि है, सिर के मुंडै कोट
मन के मुंडै देख करि, ता सेग लीजय ओट।
कवी करोड़ों हैं, सर को मुंडवाने वाले करोडो हैं लेकिन मन को मुंडवाने वाले बहुत ही कम हैं। जो व्यक्ति मन को मुंडवा ले वही सच्चा ज्ञान रखता है और उसी की शरण में जाने से लाभ मिलता है। जिसने मोह माया को त्याग दिया है, मन को मूँड लिया है उसकी शरण में जाने से ही लाभ मिलने वाला है।
कबीर वह तो एक है, पर्दा दिया वेश
भरम करम सब दूर कर, सब ही माहि अलेख।
सभी जीवो में परम ब्रह्म एक ही है लेकिन रूप अनेको अनेक हैं, सभी की वेश भूषा और परदे अलग हैं, हमें सभी भ्रम का त्याग करके परम ब्रह्म का सुमिरण करना चाहिए। सभी का मालिक एक है और सभी जीवों में व्याप्त है बाह्य रूप प्रथक है।
दाढ़ी मूछ मूराय के, हुआ घोटम घोट।
मन को क्यों नहीं मूरिये, जामै भरीया खोट।
दाढ़ी और मूंछ को मुंडा कर जीव घोटम घोट तो बन जाता है ऐसे व्यक्तिओं को साहेब की वाणी है की मन को क्यों नहीं मूंडते हो जिसमे विषय और विकार भरे पड़े हुए हैं। भाव है की शरीर पर भक्ति दिखाने के स्थान पर असल भक्ति को ग्रहण करना चाहिए, जो की मन से वैराग्य धारण करने से सबंधित है और मन से विषय विकार हटाने से सबंधित है।
बैरागी बिरकत भला, गिरा परा फल खाये।
सरिता को पानी पिये, गिरही द्वार ना जाये।।
वैरागी व्यक्ति संसार कार्यों से विरक्त रहता है, वह गिरा हुआ फल भी ग्रहण कर लेता है, वह कंद मूल ग्रहण करके नदी का पानी पीकर संतुष्ट रहता है और किसी घर पर मांगने के लिए नहीं जाता है। भाव है जो असल में संत / साधू होता है वह स्वंय में ही मस्त रहता है और गृहस्थ जीवन से उसे कुछ भी लेना देना नहीं होता है।
बाना देखि बंदिये, नहि करनी सो काम
नीलकंठ किड़ा चुगै, दर्शन ही सो काम।
लोग साधू रूप देखकर प्रणाम करते हैं, उसके कर्मों से उनको कोई लेना देना नहीं होता है जैसे नीलकंठ पक्षी जो सुंदर होता है उसके दर्शन को शुभ माना जाता है लेकिन वह तो कीड़े चुग कर खाता है। भाव है की लोग बाह्य दिखावे को ही महत्त्व देते हैं जो उचित नहीं है। रूप रंग/ वेश भूसा का त्याग करके जीव को उसके गुणों का विश्लेषण करना चाहिए और कर्मों को प्रधान मानना चाहिए।
भूला भसम रमाय के, मिटी ना मन की चाह
जो सिक्का नहि सांच का, तब लग जोगी नाहं।
अपने तन पर भस्म को रमा करके जीव भूल गया है, और उसके मन से चाह समाप्त नहीं हुई है, जिसके मन से चाह और विषय वासनाएं समाप्त नहीं हुई हैं वह सच्चा सिक्का नहीं है, जब तक सच्छा जोगी नहीं बन पाता है। जोग तभी होता है जब जीव अपने मन से वैराग्य को धारण कर लेता है।
भेश देखि मत भुलिये, बुझि लिजिये ज्ञान
बिन कसौटी होत नहि, कंचन की पहचान।
किसी की वेश भूषा देख कर भ्रम का शिकार नहीं बनना चाहिए और उसके ज्ञान का परिक्षण करना चाहिए। जैसे बगैर कसौटी के सोने की पहचान नहीं होती है वैसे ही साधूजन की पहचान उसके ज्ञान से ही हो सकती है। बाह्य वेश भूसा और आवरण को देख कर किसी के संत असंत होने की पहचान नहीं करनी चाहिए, इसके स्थान पर उसकी गुणों का विश्लेषन करना चाहिए।
माला बनाये काठ की, बिच मे डारा सूत
माला बिचारी क्या करै, फेरनहार कपूत।
माला तो लकड़ी की है और बीच में सूत की डोरी है यदि माला फेरने वाला ही कपूत हो तो माला को फेरने से क्या लाभ ? भाव है की यदि चरित्र ठीक नहीं है, मोह माया से ग्रसित है तो माया फेरने से कोई लाभ नहीं होने वाला नहीं है।
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय॥
माटी कुम्हार से कह रही है की तू मुझे क्यों रोंद रहा है (बर्तन बनाने वाला कुम्हार काली मिटटी को पहले पांवों से रौंद कर चिकना करते हैं) एक रोज सभी को माटी में मिल जाना है, इसी सन्दर्भ में है साहेब की वाणी है की अहम् किस बात का, एक रोज सभी को समाप्त हो जाना है। अहम को शांत करके ईश्वर की भक्ति करना ही इस जीवन का मूल उद्देश्य है। अहम् सबसे बड़ी बाधा है भक्ति में, भक्ति मार्ग में अहम् के कारण जीव को यह संसार स्थाई नजर आता है जबकि यह सत्य नहीं है।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर॥
Maala Pherat Jug Bhaya, Phira Na Man Ka Pher.
Kar Ka Man Ka Daar De, Man Ka Manaka Pher.
माला को फेरते तो युग बीत गए लेकिन मन का भ्रम दूर ही नहीं हुआ। हाथों की माला के मनके के स्थान पर व्यक्ति को मन के मनके को फेरना चाहिए जिससे उसका कल्याण हो। कर्मकांड और दिखावे की भक्ति से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है क्योंकि जब तक हृदय से भक्ति नहीं की जाती है, असल भक्ति प्राप्त ही नहीं होती है। जब हृदय से भक्ति की जाती है तो सद्मार्ग पर जीव अग्रषित होता है, स्वंय के दुर्गुणों का त्याग करता है, मानवीय गुणों को अपनाता है।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥
Kaal Kare So Aaj Kar, Aaj Kare So Ab.
Pal Mein Pralay Hoegee, Bahuri Karega Kab.
दोहे का हिंदी भावार्थ : आलस्य के वश में आकर व्यक्ति कार्यों को टालता रहता है जिसके सबंध में वाणी है की यह समय तो ऐसे ही बीतता चला जाएगा (एक रोज जीवन भी समाप्त होना ही है) फिर तुम भक्ति कब करोगे। पल में प्रलय हो सकती है, जीवन समाप्त हो सकता है फिर तुम कब भक्ति मार्ग पर आगे बढोगे ? व्यक्ति बालपन को खेल में, जवानी को धन कमाने में बिता देता है और सोचता है की आराम आने पर ईश्वर की भक्ति करूँगा, लेकिन उसका आराम कभी आता ही नहीं है। बुढापे में जब शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है, वात, कफ्फ और पित्त से घिर जाता है तो वह दुखी होता है की राम के घर से बुलावा आने वाला है और उसने जीवन पाकर भी हरी के नाम का सुमिरण नहीं किया। आलस्य छोड़कर हरी का सुमिरण आज से ही शुरू कर देना चाहिए।
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एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय॥
माटी कुम्हार से कह रही है की तू मुझे क्यों रोंद रहा है (बर्तन बनाने वाला कुम्हार काली मिटटी को पहले पांवों से रौंद कर चिकना करते हैं) एक रोज सभी को माटी में मिल जाना है, इसी सन्दर्भ में है साहेब की वाणी है की अहम् किस बात का, एक रोज सभी को समाप्त हो जाना है। अहम को शांत करके ईश्वर की भक्ति करना ही इस जीवन का मूल उद्देश्य है। अहम् सबसे बड़ी बाधा है भक्ति में, भक्ति मार्ग में अहम् के कारण जीव को यह संसार स्थाई नजर आता है जबकि यह सत्य नहीं है।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर॥
Maala Pherat Jug Bhaya, Phira Na Man Ka Pher.
Kar Ka Man Ka Daar De, Man Ka Manaka Pher.
माला को फेरते तो युग बीत गए लेकिन मन का भ्रम दूर ही नहीं हुआ। हाथों की माला के मनके के स्थान पर व्यक्ति को मन के मनके को फेरना चाहिए जिससे उसका कल्याण हो। कर्मकांड और दिखावे की भक्ति से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है क्योंकि जब तक हृदय से भक्ति नहीं की जाती है, असल भक्ति प्राप्त ही नहीं होती है। जब हृदय से भक्ति की जाती है तो सद्मार्ग पर जीव अग्रषित होता है, स्वंय के दुर्गुणों का त्याग करता है, मानवीय गुणों को अपनाता है।
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पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥
Kaal Kare So Aaj Kar, Aaj Kare So Ab.
Pal Mein Pralay Hoegee, Bahuri Karega Kab.
दोहे का हिंदी भावार्थ : आलस्य के वश में आकर व्यक्ति कार्यों को टालता रहता है जिसके सबंध में वाणी है की यह समय तो ऐसे ही बीतता चला जाएगा (एक रोज जीवन भी समाप्त होना ही है) फिर तुम भक्ति कब करोगे। पल में प्रलय हो सकती है, जीवन समाप्त हो सकता है फिर तुम कब भक्ति मार्ग पर आगे बढोगे ? व्यक्ति बालपन को खेल में, जवानी को धन कमाने में बिता देता है और सोचता है की आराम आने पर ईश्वर की भक्ति करूँगा, लेकिन उसका आराम कभी आता ही नहीं है। बुढापे में जब शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है, वात, कफ्फ और पित्त से घिर जाता है तो वह दुखी होता है की राम के घर से बुलावा आने वाला है और उसने जीवन पाकर भी हरी के नाम का सुमिरण नहीं किया। आलस्य छोड़कर हरी का सुमिरण आज से ही शुरू कर देना चाहिए।
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बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
Bura Jo Dekhan Main Chala, Bura Na Miliya Koy.
Jo Dil Khoja Aapana, Mujhase Bura Na Koy.
व्यक्ति दूसरों में बुराइयों को ढूंढता है, उसका पूरा ध्यान दूसरों के अवगुणों पर ही केन्द्रित रहता है और इसके कारण वह स्वंय का मूल्यांकन नहीं कर पाता है। जब वह स्वंय के अन्दर झाँक करके देखता है तो पाता है की उससे बुरा व्यक्ति तो कोई दुसरा है ही नहीं, भाव है की जब व्यक्ति अपने हृदय / दिल का विश्लेष्ण करता है तो उसे स्वंय के अवगुणों का बोध होता है। भाव है की व्यक्ति को दूसरों के अवगुण, कमियों के बजाय स्वंय के अवगुणों को चिन्हित करके उनको दूर करना चाहिए।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
Bura Jo Dekhan Main Chala, Bura Na Miliya Koy.
Jo Dil Khoja Aapana, Mujhase Bura Na Koy.
व्यक्ति दूसरों में बुराइयों को ढूंढता है, उसका पूरा ध्यान दूसरों के अवगुणों पर ही केन्द्रित रहता है और इसके कारण वह स्वंय का मूल्यांकन नहीं कर पाता है। जब वह स्वंय के अन्दर झाँक करके देखता है तो पाता है की उससे बुरा व्यक्ति तो कोई दुसरा है ही नहीं, भाव है की जब व्यक्ति अपने हृदय / दिल का विश्लेष्ण करता है तो उसे स्वंय के अवगुणों का बोध होता है। भाव है की व्यक्ति को दूसरों के अवगुण, कमियों के बजाय स्वंय के अवगुणों को चिन्हित करके उनको दूर करना चाहिए।
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
Chaah Mitee, Chinta Mitee Manava Beparavaah.
Jisako Kuchh Nahin Chaahie Vah Shahanashaah.
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब व्यक्ति भौतिक वस्तुओं से अपना ध्यान हटा कर, हरी के सुमिरण में व्यस्त हो जाता है, हरी के नाम के सुमिरण को आधार बनाता है वह शहन्शान बन जाता है जिसे कोई चिंता नहीं रहती। चिंता किस बात की, धन की, दौलत की, मान समान की रुतबे की लेकिन ये तो स्थाई नहीं है। व्यक्ति उम्र भर धन को जौड़ने के चक्कर में फंसा रहता है, इस कारण वह परेशान भी रहता है, काया को दुःख देता है, मानसिक शान्ति से दूर हो जाता है लेकिन जब उसके अन्दर थोडा सा भी वैराग्य भाव आ जाता है तो वह इन विषयों से दूर रहता है। जो प्राप्त है प्रयाप्त है के बल पर वह व्यर्थ के झंझटों से दूर ही रहता है और हरी के नाम का सुमिरण करताहै। विरोधाभास है की फक्कड होकर राजा बना जा सकता है, जो भौतिक रूप से राजा है वह वस्तुतः राजा है ही नहीं। जब चाह मिट जाती है तो चिंता भी दूर हो जाती है।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
Nindak Niyare Raakhie, Ongan Kutee Chhavaay.
Bin Paanee, Saabun Bina, Nirmal Kare Subhaay..
दोहे का हिंदी मीनिंग Kabir Doha Hindi Meaning: स्वंय के विश्लेषण के लिए निंदक को नजदीक रखना चाहिए। आंगन में पेड़ की छाया रखनी चाहिए, निंदक बिना पानी पर साबुन के स्वभाव को निर्मल कर देता है। इसके विपरीत लोग चापलूस को निकट रखते हैं क्योंकि वह झूठी प्रशंशा करके व्यक्ति के अहम् को सुखद महसूस करवाता है। इससे व्यक्ति खुश तो हो जाता है लेकिन वह स्वंय का विश्लेषण नहीं कर पाता है। निंदक, निंदा के माध्यम से खोट निकालता है, जिससे सुधार करने का अवसर पाप्त होता है।
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद॥
Sukh Me Sumiran Na Kiya, Du:kh Mein Karate Yaad.
Kah Kabeer Ta Daas Kee, Kaun Sune Phariyaad.
यदि सुख में सुमिरण नहीं किया तो दुःख आने पर तुम्हारी पुकार कौन सुनेगा ? कोई नहीं। दुःख और सुख जीवन के दो भाग हैं यह आते जाते रहते हैं लेकिन सुख की अवस्था में हमें भगवान् को भूलना नहीं चाहिए और समझना चाहिए की यह जीवन क्यों मिला है, हरी के गुण गाने के लिए। लेकिन माया जनित भ्रम में पड़कर सुख में हरी का सुमिरण नहीं करता है लेकिन जब दुःख आ पड़ता है तो हरी के नाम का सुमिरण करता है, ऐसे में उसकी फ़रियाद कोई नहीं सुनेगा। जैसा भी वक़्त हो, सुख का या दुःख का हरी का सुमिरण करते रहना चाहिए।
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घनेरी होय॥
Tinaka Kabahun Na Nindaye, Jo Paanv Tale Hoy.
Kabahun Ud Aankho Pade, Peer Ghaneree Hoy.
हमें तिनके की भी निंदा नहीं करनी चाहिए, उसके महत्त्व को कम करके नहीं आंकना चाहिए, क्योकि यदि वह तिनका उड़कर यदि आखों में गिर जाए तो बहुत अधिक पीड़ा पहुचाता है। ईश्वर की बनाए प्राणी/जीव सभी समान है।
कबीरा गरब ना कीजिये, कभू ना हासिये कोय।
अजहू नाव समुद्र में, ना जाने का होए।
Kabeera Garab Na Keejiye, Kabhoo Na Haasiye Koy.
Ajahoo Naav Samudr Mein, Na Jaane Ka Hoe.
साहेब की वाणी है की अभिमान/घमंड मत करो, और कभी किसी का उपहास भी नहीं उडाना चाहिए क्योकि अभी भी नांव समुद्र के बीच में ही है जो कभी भी डूब सकती है। अहम् से भक्ति भी संभव नहीं है इसलिए अहम् का त्याग करके सम / सहज भाव से हरी का सुमिरण करना चाहिए।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट॥
Loot Sake To Loot Le, Raam Naam Kee Loot.
Paachhe Phire Pachhataoge, Praan Jaahin Jab Chhoot.
हरी के नाम की लूट है, इसे अधिक से अधिक मात्रा में लूटना चाहिए क्योनी जब प्राण छूट जायेंगे तब पछतावा होने के सिवा कुछ भी शेष नहीं रहेगा। हरी के राम का कोई मूल्य भी अदा नहीं करना है, यह तो मुफ्त की वस्तु है।
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
Dheere Dheere Re Mana, Dheere Sab Kuchh Hoy.
Maalee Seenche Sau Ghada, Rtu Aae Phal Hoy.
धैर्य धारण करना, आचरण का आभूषण है, धीरज रखने पर ही सभी कार्य साध्य होते हैं। जैसे माली सौ घड़े पाई सींचता है लेकिन ऋतू आने पर ही फल लगते हैं वैसी ही धीरज के साथ अपने कार्य करते रहने चाहिए समय आने पर उनका परिणाम प्राप्त हो जाता है। हम थोडा सा कार्य करके फल की आशा करने लग जाते हैं और फल की पाप्ति के अभाव में उदास हो उठते हैं। प्रयत्न करना हमारे हाथ में है लेकिन फल देता तो विधाता है जिसमे प्रारब्ध भी शामिल होता है। फल की आशा में कर्म को छोड़ना नहीं चाहिए। फल की आशा में जो कर्म करते हैं, ने निराश होते हैं और जो कर्म करके ईश्वर को समर्पित कर देते हैं वे सदैब ही खुश रहते हैं।
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
Kabeera Te Nar Andh Hai, Guru Ko Kahate Aur.
Hari Roothe Guru Thaur Hai, Guru Roothe Nahin Thaur.
गुरु का महत्त्व ही की गुरु के बगैर कहीं कोई ठिकाना नहीं है, भले ही हरी रूठ जाए, लेकिन गुरु से विमुख होने पर उसका कोई ठौर ठिकाना नहीं रहता है। वस्तुतः हरी से परिचय भी गुरु के माध्यम से ही संभव होता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है की गुरु के महत्त्व के साथ ही गुरु किसे बनाना है बहुत ही महत्वपूर्ण है।
कबीर के दोहे हिंदी में : सभी दोहे देखे Kabir Ke Dohe Hindi Me (सभी दोहे देखें)
दस पच्चीस की भीड़ को देखकर किसी के पीछे चल देना विवेक का कार्य नहीं है। वर्तमान समय की दुर्दशा ही की साहेब ने जो गुरु की पहचान बताई है उसका कोई ध्यान ही नहीं रख रहा है। जो मोह माया, अभिमान से दूर रहकर सत्य के मार्ग पर अनुसरण करता है वह गुरु बनाने के लायक है।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर॥
Maaya Maree Na Man Mara, Mar-mar Gae Shareer.
Aasha Trshna Na Maree, Kah Gae Daas Kabeer.
लोभ और माया कभी समाप्त होने वाले नहीं है, ये सदैव इस श्रष्टि पर रहते हैं और शिकार की तलाश में रहते हैं। माया का आवरण छद्म होता है और इसकी पहचान गुरु के बगैर संभव नहीं हो पाती है। साहेब की वाणी कई स्थानों पर है की गुरु जो माया के विषय में परिचय देता है उसे आत्मसात करके माया जनित कार्यों से दूर रहकर हरी के नाम का सुमिरण करना चाहिए। हरी का सुमिरण ही मुक्ति का द्वार है।
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर।
ताहि का बख्तर बने, ताहि की शमशेर।।
Kabeera Loha Ek Hai, Gadhane Mein Hai Pher.
Taahi Ka Bakhtar Bane, Taahi Kee Shamasher..
लोहा एक है और उसी से तलवार बनती है और उसी से बख्तर ही, बस गढ़ने का अंतर है। ऐसे ही संसार में जितने भी जीव हैं वे एक ही परम ब्रह्म के अंश है, अंतर उनके आकार में है। इसलिए जहाँ सभी जीवों का आदर करना चाहिए और उन्हें ईश्वर की ही कृति समझना चाहिए। सभी जीवों के प्रति दया भाव रखना मानव देहि का कर्तव्य है क्योंकि वह अन्य जीवों में सबसे श्रेष्ठ है, उसमे इतनी समझ है की वह हरी के नाम का सुमिरण कर सके।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय॥
Raat Ganvaee Soy Ke, Divas Ganvaaya Khaay.
Heera Janm Amol Tha, Kodee Badale Jaay.
करोडो जतन के उपरान्त मानव देहि धारण करने को मिलती है लेकिन हम इसके महत्त्व को समझ नहीं पाते हैं, यह मानव जन्म हीरे के समान बहुमूल्य था जिसे हम माया के भ्रम में पड़कर कौड़ी में बदल देते हैं । करोड़ों जतन के उपरान्त मानव देह मिलती है, जिसे व्यर्थ में नहीं गवाना चाहिए और ईश्वर के नाम का सुमिरण करना चाहिए।
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
Raat Ganvaee Soy Ke, Divas Ganvaaya Khaay.
Heera Janm Amol Tha, Kodee Badale Jaay.
किताबी ज्ञान, शाश्त्रों के ज्ञान का जब तक कोई महत्त्व नहीं होता है यदि उसे आचरण में उतारा नहीं जाए, यदि आचरण में ढाई अक्षर भी प्रेम के हैं तो इसे पढने वाला ज्ञानी कहलाता है। जब तक आचरण में मानवीय गुणों का समावेश नहीं होता है तब तक किताबी ज्ञान के सहारे से पार लगना संभव नहीं है। प्रेम से आशय है मानवता, दया, उपकार जिन्हें आचरण में उतारना चाहिए।
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
Duhkh Mein Sumiran Sab Kare Sukh Mein Karai Na Koy.
Jo Sukh Mein Sumiran Kare Duhkh Kaahe Ko Hoy .
दुःख और सुख तो जीवन में आते जाते रहते हैं लेकिन यदि सुख में हरी के नाम का सुमिरण कर लिया जाए तो दुःख रहता ही नहीं है। सुख की अवस्था में हरी के नाम का सुमिरण करने से जीव छोटी छोटी बातों पर दुखी होना छोड़ देता है क्योंकि उसे यह ज्ञान हो जाता है की उसका कुछ भी नहीं है, और वह कुछ साथ भी लेकर नहीं जाएगा। आचरण में ऐसे गुण आने पर भौतिक और सांसारिक विषयों पर उसे दुःख नहीं होता है। यह एक मानसिक स्थिति है, जिसे असल वैराग्य धारण करने वाला समझ सकता है। माया अपने अनेकों रूप बदलती है, लेकिन जब इसका बोध हो जाता है तो जीव इससे दूर ही रहता है और उसे दुःख भी नहीं रहता है।
जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
Jaati Na Poochho Saadhoo Kee, Poochh Leejie Gyaan,
Mol Karo Taravaar Ka, Pada Rahan Do Myaan.
साधू/संतजन की जाती का है, यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उसके ज्ञान का महत्त्व होता है। साहेब की वाणी है की साधू से उसकी जाती के स्थान पर उसके ज्ञान की चर्चा होनी चाहिए जैसे की तलवार का महत्त्व होता है म्यान का नहीं। तात्कालिक समाज और वर्तमान समाज जातियों में विभक्त है और आपसी संघर्ष का कारण भी बनता है। इस पर साहेब की वाणी है की कौन की जाती है यह उपयोगी नहीं है बल्कि उसके ज्ञान को धारण करना उपयोगी है। किसी को जाती के आधार पर कम करके आंकना उचित नहीं है।
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर॥
Bada Hua To Kya Hua Jaise Ped Khajoor.
Panthee Ko Chhaaya Nahee Phal Laage Ati Door.
यदि कोई बड़ा है और वह उपयोगी नहीं है तो उसके बड़े होने का क्या फायदा ? जैसे खजूर का पेड़ काफी ऊँचा/बड़ा होता है लेकिन उसके फल इतनी उंचाई पर लगते हैं जिन्हें प्राप्त करना संभव नहीं है और उसकी छांया का भी कोई लाभ नहीं मिलता है क्योंकि उंचाई पर होने के कारण जमीन पर उसकी छाया आती नहीं है, इसका सहारा पंथी ले सके। ऐसे ही यदि किसी ज्ञानी जो अपने आप को बड़ा घोषित करता है और यदि उसके ज्ञान से किसी को कोई लाभ नहीं मिलता है तो समझे की उसका ज्ञान व्यर्थ है।
साच बराबर तप नही, झूठ बराबर पाप।
जाके हृदय में साच है ताके हृदय हरी आप॥
Saach Baraabar Tap Nahee, Jhooth Baraabar Paap.
Jaake Hrday Mein Saach Hai Taake Hrday Haree Aap.
सत्य स्वंय में एक तप है और झूठ पाप है, जिनके हृदय में सत्य है वहीँ पर हरी का वास है। ईश्वर क्या है ? सत्य ही ईश्वर है। जिनके हृदय में सत्य है वहां आप विराजमान हैं।
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
Saadhu Aisa Chaahie Jaisa Soop Subhaay.
Saar Saar Ko Gahi Rahai Thotha Deee Udaay.
साधू ऐसा होना चाहिए जैसे की सूप (अनाज साफ़ करने का उपकरण) जो अनाज को एक तरफ और कचरे को अलग कर देता है। ऐसे ही साधू जन किसी भी विषय का सार सार ग्रहण कर लेते हैं और थोथा हवा में उडा देते हैं। दूसरी तरफ साहेब का संकेत है की इस संसार में तरह तरह का ज्ञान उपलब्ध है जिनमे से हमें सार और उपयोगी बातों को ग्रहण कर लेना चाहीए।
ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।।
Aisee Banee Boliye, Man Ka Aapa Khoy.
Auran Ko Sheetal Karai, Aapau Sheetal Hoy..
वाणी शीतल होनी चाहिए, शीतल वाणी जहाँ स्वंय को सुख और शीतलता का अनुभव करवाती है वहीँ पर दूसरों को भी शीतलता देती है। भाव है की वाणी की मधुरता अत्यंत ही आवश्यक है, जिसकी वाणी में मधुरता होती है वह सभी के दिल जीत लेता है। अन्य स्थान पर साहेब की वाणी है की कोयल किसी को क्या देती है और कौवा किसी का क्या छीन लेता है लेकिन चूँकि कौवा मधुर नहीं बोलता है इसलिए उसे कोई पसंद नहीं करता है।
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय॥
Tinaka Kabahun Na Nindiye, Jo Paanv Tale Hoy.
Kabahun Ud Aankho Pade, Peer Ghaaneree Hoy.
तिनका या जिन्हें हम छोटा मानते हैं, उनकी निंदा कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि इस जगत में कोई भी महत्वहीन नहीं होता है, सभी का अपना महत्त्व होता है। यह अहम् होता है जो जीव को अन्य जीवों के प्रति क्रूरता को उत्पन्न करता है,जो व्यक्ति अपने अहम् को समाप्त कर लेता है, वह सभी के लिए सम द्रष्टिकोण रखता है। दूसरी तरफ किसी कम करके आंकना भी उचित नहीं होता है जैसे जो तिनका पांवों के निचे दबा हुआ होता है वह यदि उडकर आखों में गिर जाए तो अत्यधिक पीड़ा का कारण बन जाता है। किसी के महत्त्व को कम नहीं करना चाहिए सभी का समान महत्त्व होता है।
कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।।
Kahate Ko Kahee Jaan De, Guru Kee Seekh Too Ley.
Saakat Jan Aushvaan Ko, Pheri Javaab Na Dey..
हमें सत्य के मार्ग पर बढना चाहिए और दुष्ट जन और कुत्तों को मुड़ कर जवाब नहीं देना चाहिए। भाव है की अनर्गल की टीका टिप्पणी को छोड़ कर अपने कार्य पर ध्यान देना चाहिए। जो व्यक्ति माया के भ्रम का शिकार हैं उन्हें भक्ति मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति पागल नजर आता है और वे उसके कार्यों और व्यवहार की मीन मेख निकालते हैं, ऐसे में साहेब की वाणी है की लोगों की बातों पर ध्यान मत दो और अपने कार्य से कार्य रखकर भक्ति में लीन रहो।
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
Jo Toko Kaanta Buvai Taahi Bov Too Phool.
Tohi Phool Ko Phool Hai Vaako Hai Tirasul.
जो जन तुम्हारा बुरा करते हैं तुम उनका भला ही सोचो, जैसे जो तुम्हारे लिए काँटा बोता है तुम उसके लिए फूल बिछाओ क्योंकि आगे चलकर तुम्हें तो फूल और उसे कांटे ही मिलने वाले हैं। जो जैसा सोचता है वैसा ही पाता है, इसलिए सदा अच्छा ही सोचना चाहिएजो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल। यह तय है की जो बुरा सोचता है, वह बुरा ही प्राप्त करता है, उसे कभी अच्छा नहीं मिल सकता है। अतः अच्छा सोचे, अपने शत्रुओं के प्रति भी यही प्रशन्न रहने का आधार है।
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिनके पास॥
Utha Bagula Prem Ka Tinaka Chadha Akaas.
Tinaka Tinake Se Mila Tin Ka Tinake Paas.
हृदय में प्रेम उत्पन्न हो जाने पर तिनका हल्का हो उठता है और आकाश में उड़ चल पड़ता है, आत्मा परमात्मा से मिल जाती है तिनका तिनके पास । जब हृदय में प्रेम उत्पन्न हो जाता है तो विषय विकारों का भार उसके माथे नहीं रहता है और वह हल्का हो जाता है, उसे कोई रोकने वाला भी नहीं है, वह उपर उठता है और पूर्ण परमब्रह्म की ज्योति में समां जाता है।
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
हरी की महिमा का वर्णन कर पाना संभव नहीं है। सात समुद्र के पानी की स्याही कर ली जाए और समस्त जंगलों की लकड़ी की लेखनी कर ली जाए और सभी धरती के कागजों का उपयोग ले लिया जाए तो भी हरी के गुण का वर्णन संभव नहीं है।
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव।
स्वामी कहै न बैठना, फिर फिर पूछै नाँव।।
जो लोग स्वंय को सिद्ध घोषित कर चुके हैं / लोगों के द्वारा मान्यता प्राप्त हो चुके हैं उनके पास जाना व्यर्थ है क्योंकि वे बैठने के लिए भी नहीं पूछेंगे और घूम फिर कर बार बार नाम पूछने लग पड़ेगे। भाव है की उन्हें तुमसे कोई लेना देना नहीं होगा बस वे तो समय व्यतीत करने के लिए बार बार नाम ही पूछ लेंगे। ऐसी लोगों को स्वंय के ज्ञान पर अभिमान होने लगता है और वे दूसरों को कोई महत्त्व नहीं देते हैं।
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥
साधू संग्रह करने की प्रवृति के नहीं होते हैं क्योकि उनके आगे और पीछे ईश्वर खड़ा होता है, जब जरूरत पड़ती है तब हरी उसे मांगने पर दे देते हैं। भाव है की धन संचय की प्रवृति से व्यक्ति माया के भ्रम जाल का और अधिक शिकार बनता है, जबकि यह भी सत्य है की कोई भी व्यक्ति अपने सर पर धन की गठड़ी रख कर नहीं जाता है।
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
वक्ती दूसरों के दोष/अवगुण देख कर प्रशन्न होता है लेकिन वह स्वंय का मूल्यांकन नहीं करता है, वह दूसरों की बुराई करने और कमी निकालने में ही व्यस्त रहता है। वह स्वंय के अवगुणों को नहीं देखता है जिसका ना कोई आदि है और ना ही अंत ही। इसलिए कबीर साहेब की वाणी है की निंदक नियरे राखिये, जिससे स्वंय के अवगुणों के मूल्यांकन का समय मिल सके।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर॥
माला को फेरते फेरते युग बीत चलें हैं लेकिन मन का शंशय/भ्रम दूर नहीं हुआ है, इसलिए हाथों के मनके को छोड़ कर मन के मनके को फेरना चाहिए। भौतिक रूप से और लोगों को दिखाने के लिए की गई भक्ति का कोई महत्त्व नहीं है क्योंकि जब तक हृदय से भक्ति नहीं होती तब तक आचरण में शुद्धता नहीं आएगी और किया धराया सब व्यर्थ है। वस्तुतः लोग कर्मकांड का सहारा इसलिए लेते हैं क्योंकि माया को छोड़ना आसान नहीं होता है।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।
यह मनुष्य देह दुर्लभ है जो बार बार प्राप्त नही होती है, जैसे पेड़ से पत्ते गिर जाते हैं वैसे ही इसे समाप्त होने में कोई विशेष समय नहीं लगता है, भाव है की यह स्थाई नहीं है। इसलिए हरी का सुमिरण करना ही इस जीवन का आधार है।
साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय।।
ईश्वर से प्रार्थना है की वे इतना धन दे जिससे गुजरा चल सके, मेरे परिवार के लिए जो प्रयाप्त हो और द्वार पर आया साधु भी भूखा नहीं जाए। भाव है की धन उतना ही आवश्यक है जिससे दान पुन्य कर सकें और स्वंय का गुजारा चल सके।
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।।
सभी लोग तन को जोगी कर लेते हैं, वस्त्र भगवा पहन लेते हैं, तिलक छाप लगा लेते हैं, केश बढ़ा लेते हैं, माला फेरते हैं आदि लेकिन यह तन को जोगी करना है, लेकिन मन को कोई बिरला ही जोगी कर पाता है, मन जोगी से आशय है की माया / लोभ का त्याग करके हृदय से भक्ति करना। अपने आचरण में सत्य और मानवीय गुणों का समावेश करना ही असली भक्ति है। मन कोजोगी कर लेने से सहज ही सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है।
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब तक अहंकार था तब तक ईश्वर नहीं था, जब गुरु ने हृदय में प्रकाश का दीपक जलाया तब सारा अन्धकार दूर हो गया। गुरु के द्वारा ज्ञान का दीपक जलाया जिससे सभी अन्धकार दूर हो गए।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब गुण के ग्राहक मिलते हैं तब गुणों का मूल्य होता है, जब गुणों की कदर करने वाला नहीं होता है तो गुण कौड़ी में बदल जाते हैं। भाव है की गुणों की कदर करने वाले की पहचान होनी चाहिए।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : कबीर बाजार में खड़ा है, इस संसार के मध्य में है और सबकी खैर माँग रहा है, उसकी ना तो किसी से दोस्ती है और ना ही किसी से वैर भावना ही है। भाव है की कबीर को किसी से कोई लेना देना नहीं है वह सभी के लिए समान है। ना तो किसी से लगाव और ना किसी से प्रीत यही सम भावना है जो एक साधू का गुण होता है।
जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जैसे तिल के अंदर तेल है, सूक्ष्म रूप से, जैसे चकमक में आग है लेकिन दिखाई नहीं देती है ऐसे ही सभी जीवों में ईश्वर है उसे जगाना चाहिए/खोजना चाहिए। सभी जीवों में ईश्वर का वास/अंश है लेकिन उसे खोजना पड़ता है, प्रयत्न करने पड़ते हैं जैसे तिलों में से तेल को निकालना पड़ता है और पत्थरों (चकमक) को आपस में रगड़ना पड़ता है तब कहीं जाकर उनके अंदर छुपी हुई आग बाहर निकल कर आती है ऐसे ही स्वंय के अन्दर व्याप्त ईश्वर को समझ कर उसे खोजना पड़ता है।
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझा मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
दोहे का हिंदी भावार्थ : कहते सुनते समझाते हुए कई दिन बीत गए लेकिन विषय वासनाओं में उलझा हुआ मन सुलझा नहीं है। कबीर साहेब कहते हैं की तुम अभी भी जाग्रत नहीं हुए हो और आज भी पहले दिन की भाँती जैसे ही हो। भाव है की हम माया के चक्कर में ही पड़े रहते हैं और अपने जीवन के उद्देश्य को भुला बैठते हैं।
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जिसका उदय हुआ है उसका अंत होना है और जो फुला हुआ है वह मुरझा जाएगा, जिसका निर्माण हुआ है, जिसे चिना (चुना/निर्माण) हुआ है। जो आया है उसे जाना है, भाव है की जो उत्पन्न हुआ है एक रोज समाप् हो ही जाना है। यह पकृति का नियम है। इसलिए किसी के समाप्त हो जाने पर दुःख नहीं करना चाहिए। ऐसे ही जिसने जन्म लिया है वह एक रोज मृत्यु को प्राप्त होगा।
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए।
वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : व्यर्थ की चिंता करने से काया समाप्त हो जाती है यह एक ऐसा रोग है जिसका वैद्य भी कुछ उपचार नहीं कर सकता है। वैद्य इस विषय में क्या उपचार कर सकता है, क्योंकि यह जीव को अन्दर ही अन्दर डाकिनी की तरह खाने लगती है। हमें सद्मार्ग पर चलते हुए कर्म करने चाहिए और फल ईश्वर के ऊपर छोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से जीव दुखी नहीं होता है और वह बेफिक्र रहता है, यही जीवन जीने का रहस्य है। दाता के उपर छोड़ देना चाहिए उसे जो उचित फल देना है वह प्राप्त होकर ही रहता है।
कबीर गर्व न कीजिय, ऊंचा देखि आवास।
काल परों भूईं लेटना, ऊपर जमसी घास।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : कबीर साहेब की वाणी है की ऊँचा मकान देख कर (स्वंय की सम्पति को देख कर) गर्व नहीं करना चाहिए क्योंकि कल को तुम्हारे अंत पर तुम्हे जमीन पर लिटा दिया जाएगा और ऊपर घास को जमना/उगना है। सांसारिक और भौतिक वस्तुओं पर गर्व करना, माया पर गर्व करना व्यर्थ है, एक रोज मानव जीवन समाप्त हो ही जाना है और सब यहीं धरा का धरा रह जाना है इसलिए किसी वस्तु पर गर्व/अभीमान मत करो और हरी का सुमिरण करते रहो, यही जीवन का सार है।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : अति सर्वत्र वर्जित है, ज्यादा बोलना, ज्यादा चुप रहना ठीक नहीं है। ना तो अति धुप उचित है और नाहिं ज्यादा बरसात ही भली होती है। संयमित मात्रा में सभी विषय ठीक लगते हैं ये कम या ज्यादा होने पर इन्हें वर्जित किया गया है।
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
दोहे का हिंदी भावार्थ : यह मन तो चंचल है और पक्षी बन बैठा है, इसका जैसा मन होता है यह वैसा ही करने लगा है। लेकिन यह भी सत्य है की जो जैसी संगती करता है वह वैसा ही बन भी जाता है। भाव है की हमें किन लोगों की संगती करनी है यह सोच समझ कर चुनाव करना चाहिए।
ज्यों नैनों में पुतली, त्यों मालिक घट माहिं।
मूरख लोग न जानहिं, बाहिर ढूढ़न जाहिं।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जैसे नयनों के मध्य में पुतली है ऐसे ही हृदय में हरी का वास है, मुरख लोग उसे बाहर खोजते हैं। इस बात को जरा समझने की जरूरत है की ईश्वर सभी के हृदय में वास करता है लेकिन उसे जानना बहुत ही जरुरी है, उसे तभी जान पायेंगे जब हम सद्कर्म करेंगे, नेक राह पर चलेंगे, अन्यथा हम उसे जान ही नहीं पायेंगे प्राप्त करना तो दूर की कौड़ी है।
जब तू आया जगत में, लोग हँसे तू रोय।
ऐसी करनी ना करी, पाछे हँसे सब कोय।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब व्यक्ति / जीव जगत में आता है तो लोग ख़ुशी मनाते हैं और जीव पीड़ा से रोता है, यहाँ साहेब की वाणी है की यह मानव देह पाकर कुछ ऐसा करो जिससे जीवन के समाप्त होने पर लोग ख़ुशी मनाएं। जीवन प्राप्त हो जाने के उपरान्त लोगों की भलाई करना, हरी के नाम का सुमिरण करना, सद्मार्ग का अनुसरण करना इस जीवन का उद्देश्य है। नेक राह पर चलते हुए किसी का दिल नहीं दुखाना ही जीवन जीने का रहस्य है।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : तुम आलस के वश में आकर अपने जीवन के अमूल्य समय को व्यर्थ क्यों कर रहे हो, एक दिन जब यह जीवन समाप्त हो जाएगा तो सभी को लम्बे पाँव पसार कर सोना है। भाव है की यह जीवन अमूल्य है, करोड़ों जतन के उपरान्त मानव देह धारण के लिए मिली है और जीव माया के भरम जाल का शिकार बनकर इसे व्यर्थ ही आलस्य में सोने में बिता देता है। एक रोज तो सभी को लम्बे पांव पसार कर सोना है, इसलिए उठो/जागो और मुरारी/ईश्वर के नाम का सुमिरण करो यही जीवन का आधार है।
आछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : जब जवानी के दिन थे, शरीर में ताकत थी तब तो तुमने ईश्वर को याद नहीं किया अब जब शरीर उत्तर दे चूका है /श्री क्षीण होने लगा है, विकारों ने तुमको आकर घेर लिया है तब क्या किया जा सकता है, कुछ भी नहीं। अब तो चिड़िया ने खेत चुग लिया है, अवसर बीतने के उपरान्त सिवाय पछताने के कुछ भी शेष नहीं रहा है। भाव है की समय रहते हरी का सुमिरण करना चाहिए यही जीवन का सत्य है।
चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोए।
दोहे का हिंदी भावार्थ : संसार में आकर जीव की हालत देखकर साहेब व्यथित हो उठते हैं, दो पाटों के बीच में कोई साबुत नहीं बचा है, पाटों से आशय है अच्छा और बुरा, माया और सद्कर्म के बीच में मनुष्य पिस रहा है क्योंकि वह एक मार्ग को भ्रम के कारण चुन नहीं पा रहा है। यहाँ दो पाटों से आशय जन्म और मृत्यु से भी लिया जा सकता है की इस जन्म और मरण के फेर में मनुष्य फँस कर रह गया है। यहाँ चक्की से आशय समय से है। भाव है की जीव भरम के कारण किसी एक मार्ग का चयन नहीं कर पाता है और व्यथित रहता है।
मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : सामाजीक प्रतिष्ठा और मान सम्मान के लिए लोग देखा देखी भक्ति करने लग जाते हैं, लेकिन जब इनको भक्ति में कुछ प्राप्त नहीं होता है तब यह संसार की कमियाँ निकालने जग जाते हैं। भाव है की उन्हें भक्ति में कुछ भी हाशिल इसलिए नहीं होता है क्योंकि वे भक्ति को हृदय से नहीं करते, वस्तुतः उनको ईश्वर से कोई लेना देना ही नहीं होता है वे तो दिखावे की भक्ति करते हैं जैसे माला फेरना, तिलक लगाना, वस्त्र धारण करना आदि लेकिन ये सभी भौतिक प्रयत्न हैं जिनका वास्तविक भक्ति से कुछ भी लेना देना नहीं होता है। भक्ति का भी तभी लाभ होता है जब वह सच्चे मन से की जाए, पवित्र हृदय से की जाए और बदले में कुछ प्राप्त करने की आशा नहीं हो।
पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया साथि॥
दोहे का हिंदी भावार्थ : जीव जब तक भ्रम का शिकार रहता है वह सत्य को पहचान नहीं पाता है और लोगों का ही अनुसरण करता है, जब आगे चलकर उसे सतगुरु की प्राप्ति होती है और वे उसे ज्ञान का दीपक देते हैं तो अज्ञान का अँधेरा दूर हो जाता है और उसे सत्य का ज्ञान होता है। अज्ञान में व्यक्ति को लगता है की यह संसार ही उसका घर है, उसे यहीं रहना है तो वह सांसारिक कार्यों में बढ़ चढ़कर भाग लेता है, माया जोड़ने में लगा रहता है और अनैतिक मार्गों को भी अपना लेता है। लेकिन जब सतगुरु उसे यह बताते हैं की वह किन झंझटों में फंसा हुआ है उसका उद्देश्य और मार्ग तो अलग हैं, उसे माया के जाल से दूर रहना है और ईश्वर के नाम का सुमिरण करना है।
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ॥
दोहे का हिंदी भावार्थ : गुरु के ज्ञानं रूपी बादल बरसा तब हृदय भीग गया और हृदय हरा भरा हो गया, आत्म ज्ञान का प्रकाश पैदा हो गया। ज्ञान की बारिश से भक्ति के पादप पैदा हुए, भक्ति पैदा हुई।
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान।
सबही ऊभा पंथ सिर, राव रंक सुलतान।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : काल के बंधन में राजा, भिखारी सभी बंधे हुए हैं और यह जीवन बस थोड़े से समय के लिए मिला है, इस जीवन में तुम माया के भ्रम का शिकार होकर ईश्वर को भूल गए हो। थोड़े से दिनों की खातिर तुम कितने ठाट बाट करते हो, दिखावा करते हो। भाव है की यह जीवन बड़े ही जतन के उपरान्त हासिल हुआ है, ना जाने कितनी अन्य योनियों में भटकने के बाद, ऐसे में माया के भ्रम जाल में फंसकर हम अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को विष्मृत कर बैठते हैं और सोचते हैं की हम तो यहाँ सदा ही रहेंगे लेकिन यह सत्य नहीं है सभी के सर के ऊपर काल का पहरा लगा है, भले ही वह राजा हो या कोई भिखारी, सभी का अंत होना है, इस जगत में सभी दो दिन के मेहमान हैं लेकिन यह समझ में भी तो नहीं है, यह ज्ञान गुरु ही दे सकता है।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यों सारा परभात।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : मानव जीवन क्षणिक है/अल्प कालिक है यह स्थाई नहीं है। मनुष्य का जीवन पानी के बुदबुदे के समान है जैसे पानी का बुलबुला थोड़े समय के बाद फूट जाता है ऐसे ही मनुष्य जीवन भी समाप्त हो जाता है। यह उसी प्रकार से नष्ट हो जाता है जैसे सूर्य के उदय होने पर रात्री का अँधेरा । भाव है की जीवन अल्पकालिक है, हमें इस संसार में मन को नहीं लगाना चाहिए, एक रोज हमें सब छोड़ के चले जाना है इसलिए सांसारिक झमेलों को छोडकर हरी भक्ति में अपना ध्यान और मन लगाना चाहिए।
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय।
ज्यों मेंहदी के पात में, लाली लखी न जाय।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : ईश्वर सभी के हृदय में वास करता है, वह घट घट का वाशी है वैसे ही जैसे मेहंदी में लाली समाई हुई होती है लेकिन प्रत्यक्ष रूप से देखने में वह दिखाई नहीं देती है। भाव है की ईश्वर किसी मंदिर मस्जित, तीर्थ, कर्मकांड/पुस्तकों में नहीं है वह तो हमारे ही हृदय में है लेकिन उसे प्रकाशित करना पड़ता है। वह प्रकाशित कब होगा ? सत्य के मार्ग का अनुसरण करने, सद्कार्य करने, दया, उपकार जैसे मानवीय गुणों को स्वंय में समाहित करने पर स्वतः ही ईश्वर का आभास होने लगेगा और हम धीरे धीरे माया के जाल से मुक्त होने लगेंगे।
निज सुख आतम राम है, दूजा दुख अपार।
मनसा वाचा करमना, कबीर सुमिरन सार।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : हरी का सुमिरण ही परम सुख है, हृदय रूपी राम ही सुख है और बाकी सभी सांसारिक क्रियाएं दुखों का कारण हैं। मन वचन और कर्म से हरी के नाम का सुमिरण ही सभी ज्ञान का सार है। भाव है की सभी कर्मकांड, दिखावे की भक्ति, तीर्थ आदि को छोडकर हृदय से हरी का सुमिरण ही सुखो की खान है।
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होन न छार।
साधु बचन जलरूप है, बरसे अमृत धार।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : कुटिल वचन/वाणी जला डालती है, दुःख देती हैं इसलिए कडवे वचनों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए और साधू में वचन जो अमृत के समान है उन्ही का अनुसरण करना चाहिए। भाव है की कडवे वचन जहाँ व्यक्ति को जला कर राख के समान कर देते हैं वहीँ पर अच्छे वचन/मीठी वाणी सभी को सुख देती है मानों अमृत की धार बरस रही हो। हमें स्वंय की वाणी का मूल्यांकन कर मीठी वाणी का उपयोग करना चाहिए। यही दूसरों और स्वंय के सुख की कुंजी है।
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सब तोर।
तेरा तुझ को सौंपते, क्या लागेगा मोर।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : इस संसार में हम माया के भ्रम का शिकार होकर सोचते हैं की यह मेरा है, मैंने यह किया, मैंने इतना कमा लिया आदि लेकिन सभी इसी जगत का है और यही पर रह जाना है, भाव ही की मेरा मुझमे कुछ भी नहीं है और जो भी मैंने लिया है यहीं से लिया है और यही पर रह जाना है, मैंने आपको सौंप दिया है, अब इसमें मेरा क्या लगा क्योंकि मेरा तो कुछ था ही नहीं।
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय।।
दोहे का हिंदी भावार्थ : इस संसार में सदा के लिए नहीं रहना है, एक रोज सब छोडकर जाना है, जैसे वृक्ष से पत्ता टूट कर दूर जा गिरता है और पुनः वृक्ष से मिलाप नहीं हो पाता है। भाव है की जीवन क्षण भंगुर है इसलिए ईश्वर के नाम का सुमिरण करते रहना चाहिए।
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार।
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : यदि पत्थर को पूजने से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव हो तो पहाड़ को क्यों नहीं पूज लिया जाए, पहाड़ तो पत्थर से बड़ा ही होता है। पत्थर की मूर्ति की पूजा करने से तो अच्छा है की चक्की की पूजा की जाए जिससे यह संसार पीस कर खाता है। भाव है की पत्थर की मूर्ति के अन्दर ईश्वर नहीं हैं ईश्वर तो हृदय में व्याप्त है।
माया तो ठगनी भई, ठगत फिरै सब देस।
जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेस।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : माया सभी को ठग लेती है, लेकिन जो इस माया को ही ठग ले उसे मेरा प्रणाम है। भाव है की संतजन ही माया रूपी ठगिनी को ठग सकते हैं।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : हम जैसा भोजन ग्रहण करते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है और जैसा हम पानी पीते हैं वैसी ही वाणी हो जाती है। भाव है की हमें संगती का विशेष रूप से ध्यान रखने की आवश्यकता है। यदि हम साधुजन, सदजन, और सज्जनों की संगत में रहेंगे तो स्वाभाविक रूप से अच्छे विचारों का उदय होगा और यदि हम सांसारिक लोगों की संगती में रहेंगे तो केवल माया को जोड़ने का ही कार्य करते रहेंगे।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : साधू जन वही है जो धन का भूखा नहीं है, माया से जो दूर रहता है, यदि कोई धन का भूखा है तो समझे की वह साधू नहीं है। भाव है की साधू कौन है, क्या वह साधू हो सकता है जो माया को जोड़ने में लगा रहता हो ? नहीं वह तो फिर हरी के मार्ग से विमुख होगा ही, बस उसने साधुओं के वस्त्र धारण कर लिए हैं लोगो को दिखाने के लिए लेकिन वह सही मायनों में साधू नहीं है। साधू माया और सांसारिक कार्यों से दूर ही रहता है।
एकही बार परखिये ना वा बारम्बार।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : जैसे बालू को सौ बार भी छान लिया जाए तो उसकी किरकिराहट/किरकिरी दूर नहीं होती है वैसे ही व्यक्ति को एक बार में परख लेना चाहिए और उसे बार बार आजमाना नहीं चाहिए। दुर्जन व्यक्ति दुर्जन ही रहने वाला है और सज्जना व्यक्ति सज्जन ही रहेगा।
हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : जैसे हीरे की परख जौहरी कर लेता है वैसे ही शबद की परख साधू जन कर पाता है। जो साधू को भी प्ररख ले उसका मत / उसकी बुद्धि तो सर्वोपरि होती है। भाव है की साधू कौन है इसे भी पहचानने की आवश्यकता है।
देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : इस मानव जीवन के देह को धारण करने का दंड है जो सुख और दुःख के रूप में सभी को मिलता है लेकिन ग्यानी व्यक्ति इसे सहन कर लेते हैं वहीँ अज्ञानी व्यक्ति रो रो कर इसे भुगता है। ज्ञानी जन यह जानता है की सुख और दुःख इस संसार में आते जाते रहते हैं और वह किसी बात का दुःख नहीं करता है लेकिन जो अज्ञानी हैं वे रो रो कर इसे भुगतते हैं जबकि सुख और दुःख इस संसार के दो पहलू हैं।
हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : मृत्यु के उपरान्त हड्डिया ऐसे जलती हैं जैसे लकडिया जलती हैं और इन्हें जलाने वाला भी एक रोज जलता है, देखने वाले भी जलते हैं, अब ऐसी में किससे पुकार की जाए। भाव है की यह सम्पूर्ण संसार ही नश्वर है एक रोज समाप्त हो ही जाना है यहाँ किसी से पुकार और मदद मांगने से कोई लाभ नहीं है, मदद तो उस मालिक से ही मांगनी चाहिए जो सभी की मदद करता है। सांसारिक कार्यों में अपने समय को व्यर्थ में गवाने के स्थान पर हमें हरी भक्ति में अपना ध्यान लगाना चाहिए।
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : शास्त्रों को पढकर, उनको सीख कर भी मन का संशय दूर नहीं हुआ है तो फिर इनका लाभ ही क्या होगा ? यह बात किससे कही जाए, यही दुःख का मूल है। भाव है की शास्त्रों में कोई उत्तर नहीं है, किताबों और उनके ज्ञान का कोई लाभ नहीं है जब तक इनको व्यवहार में ना उतारा जाए।
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : पढ़ पढ़ कर जीव पत्थर के समान कठोर हो गया है और लिख लिख कर ईंट के समान हो गया है लेकिन उसे प्रेम का एक भी छीटा नहीं लगा है, तो ऐसे ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं होता है। भाव है की प्रेम ही सबसे ऊँची चीज है प्रेम ही जीवन का आधार है। जब ज्ञान की प्राप्ति होती है तो उसके स्वभाव में स्वतः ही प्रेम आने लगते हैं।
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : कागजी ज्ञान और आँखों देखे ज्ञान में बहुत ही अंतर होता है तुम तो कहते हो उलझाने वाली और मैं कहता हु सुलझाने वाली। भाव है की व्यवहारिक ज्ञान ही उपयोगी होता है।
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : यह तन कच्चा है, एक रोज समाप्त हो जाना है, मन भी चंचल है और कांपता है, नर को कांपता देख काल हंसता है, भाव है की सभी के सर के उपर काल खड़ा है लेकिन हम हरी सुमिरण को भूल कर अन्य कार्यों में ही अपने जीवन को समाप्त कर देते हैं।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी लड़ी मरे, मरम न जाना कोई।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : हिंदी कहते हैं की उन्हें राम प्यारा है और तुर्क कहते हैं की उन्ही रहमान प्रिय है। आपस में ईश्वर की श्रेष्ठता को लेकर लड़ लड़ कर समाप्त हो जाते हैं लेकिन किसी ने मर्म को नहीं जाना है। भाव है की लोग धर्मों में बटे हुए हैं, स्वंय के मत के कारण आपस में संघर्ष करते हैं, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं की ईश्वर एक है।
मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : मन को मार दिया और आसक्ति को भी समाप्त कर दिया मानों यह संसार भी छूट गया है, ऐसे ही एक जोगी जोग में रम गया और बस राख ही बची हुई है। यदि मन को वस में कर लिया जाए तो यह ऐसे ही है जैसे संसार में रहते हुए भी संसार में ना रहना।
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : यह तन एक रोज समाप्त होने वाला है अभी भी समय है चेत जाओ, जिन लोगों के पास करोड़ों का धन था वे भी खाली हाथ ही गए हैं। भाव है की माया के भ्रम जाल से निकल कर हरी नाम का सुमिरण करना चाहिए, माया ना तो लेकर आया था और ना ही लेकर जाना है।
इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : इस तन का दीपक बना लिया है और इसमें प्राणों की बाती बनाकर रक्त का तेल बनाया है, ना जाने कब हरी के दर्शन होंगे। भाव है की ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है, ईश्वर की प्राप्ति के लिए यह तन और मन दोनों एक करके हरी का सुमिरण करना पड़ता है तब कहीं जाकर उसके दर्शन होते हैं।
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥
दोहे का हिंदी में अर्थ : एक रोज सभी को ये दुनियाँ छोड़ के जानी है, वह चाहे राजा हो या फ़कीर, तो तुम क्यों नहीं सावधान होते हो ? सावधान होने से आशय है की माया को समझे और ईश्वर भक्ति में अपने चित्त को लगाएं।
मैं जानू हरि दूर है हरि हृदय भरपूर।
मानुस ढुढंहै बाहिरा नियरै होकर दूर।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : व्यक्ति सोचता है की हरी उससे दूर है, वह किसी तीर्थ, मंदिर मस्जिद में है लेकिन हरी तो उसके हृदय में सदा रहता है, जरूरत है तो हरी को प्रकाशित करने की, वह तभी संभव होगा जब जीव सद्मार्ग का अनुसरण करेगा और सत्य की राह पर चलते हुए हरी का सुमिरण करे, अन्यथा मात्र भटकाव ही मिलता है और कुछ नहीं।
मोमे तोमे सरब मे जहं देखु तहं राम।
राम बिना छिन ऐक ही, सरै न ऐको काम।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : मुझमें तुममे सभी में राम हैं, इस श्रृष्टि के कण कण में ईश्वर व्याप्त है, ईश्वर के बगैर एक क्षण भी कार्य पूर्ण नहीं होता है। घट घट में राम है, कण कण में राम है और राम के बगैर किसी कार्य की सिद्धि पूर्ण नहीं होती है वही सबका मालिक है।
बाहिर भीतर राम है नैनन का अभिराम।
जित देखुं तित राम है, राम बिना नहि ठाम।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : ईश्वर बाहर और भीतर सर्वत्र ही विद्यमान है, जहाँ देखो वहीँ राम विराजमान हैं, जो आखों को आराम देने वाले हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ पर ईश्वर मौजूद ना हो।
राम नाम तिहुं लोक मे सकल रहा भरपूर।
जो जाने तिही निकट है, अनजाने तिही दूर।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : ईश्वर कण कण में व्याप्त हैं, तीनों लोक में वे विराजमान हैं जो जानता है उसके निकट हरी है और जो नहीं जानता है उससे बहुत दूर हैं। अनजाने से भाव है की जो ईश्वर को मंदिर मस्जिदों में खोजता है और स्वंय का विश्लेष्ण नहीं करता है।
कागत लिखै सो कागदी, को व्यहाारि जीव।
आतम द्रिष्टि कहां लिखै , जित देखो तित पीव।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : शास्त्र, किताबों में जो ज्ञान है वह महज किताबी है जिसका व्यावहारिक जीवन से कोई लेना देना नहीं होता है। आत्म ज्ञान से प्राप्त ज्ञान को कहीं लिखा नहीं जा सकता है, आत्म ज्ञान यही है की जहाँ देखो वहीँ पर ईश्वर का वास है। आत्म ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त आप जहाँ देखो वाही पर ईश्वर को पावोगे।
कहा सिखापना देत हो, समुझि देख मन माहि।
सबै हरफ है द्वात मह, द्वात ना हरफन माहि।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : शिक्षा के स्थान पर तुम अपने मन में विचार करो, सभी अक्षर दवात में हैं दवात अक्षरों में नहीं है। यह संसार परमात्मा में समाया हुआ है और समस्त ब्रह्माण्ड भी उसी का अंग है। भाव है की संसार से ईश्वर नहीं, अपितु यह संसार उस मालिक का ही एक अंग है। कण कण मी उसी का वास है।
ताको लक्षण को कहै, जाको अनुभव ज्ञान।
साध असाध ना देखिये, क्यों करि करुन बखान।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : अनुभव जनित ज्ञान सर्वोच्च है, इसमें किसी लक्षणों के बारे में क्या कहा जाए, और यह साधू असाधु से भी परे है, भाव है की अनुभव जनित ज्ञान का वर्णन करना संभव नहीं है।
कबीर गाफील क्यों फिरय, क्या सोता घनघोर।
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : इस संसार में गाफिल होकर नहीं रहना चाहिए, सचेत रहना चाहिए। काल सरहाने के पास ऐसे खड़ा है जैसे चोर अँधेरे में छुपा रहता है। भाव है की काल कभी किसी को अपना शिकार बना सकता है इसलिए हमें हरी के नाम का सुमिरण करना चाहिए।
कबीर हरि सो हेत कर, कोरै चित ना लाये।
बंधियो बारि खटीक के, ता पशु केतिक आये।।
दोहे का हिंदी में अर्थ : हरी सुमिरण के अतिरिक्त अन्य स्थान पर अपने ध्यान को मत भटकावो, कचरे में अपने चित्त को मत भटकावो, लगाओ, जैसे कोई पशु खटीक के बाहर बंधा हुआ है तो उसके कितना समय शेष बचा है, ऐसे ही काल कभी भी जीव को अपना शिकार बना सकता है।
माली आवत देखि के, कलिया करे पुकार।
फूले फूले चुनि लियो, कल्ह हमारी बार।
माली को आता हुआ देखकर कलियाँ पुकार करने लग जाती हैं की कल हमारी बारी है, भाव है की काल बारी बारी सभी को उसका शिकार बनना ही है। भाव है की काल सभी को एक रोज समाप्त कर देगा इसलिए हरी का सुमिरण करना चाहिए।
तरुवर पात सों यों कहै, सुनो पात एक बात
या घर याही रीति है, एक आवत एक जात।
वृक्ष पत्तों से कहता है की पत्तों का आना जाना लगा रहता है, एक पत्ता टूटता है तो दूसरा आ जाता है, यही इस श्रृष्टि का नियम है। भाव है की आना जाना, जन्म मरण पर दुखी नहीं होना चाहिए, यह तो जगत में लगा ही रहता है।
घड़ी जो बाजै राज दर, सुनता हैं सब कोये
आयु घटये जोवन खिसै, कुशल कहाते होये।
राजा के दरबार में प्रत्येक घंटे की आवाज को सभी सुन रहे हैं। पल पल जीवन की आयु कम होती जा रही है, यौवन नष्ट होता जा रहा है इस पर कुशल कैसे हो सकता है। भाव है की हमें इस विषय पर विचार करना चाहिए की पल पल हमारी आयु कम होती जा रही है, इसलिए हरी के नाम का सुमिरण करना चाहिए।
चहु दिस ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हथियार।
सब ही येह तन देखता, काल ले गया मार।।
चारों तरफ रक्षा के लिए सूरमा हाथों में हथियार लेकर खड़े हैं लेकिन फिर भी काल अपने शिकार को मार कर ले ही जाता है और सब देखते ही रह जाते हैं। भाव है की मृत्यु निश्चित है, वह किसी भी उपाय से टाली नहीं जा सकती है इसलिए हरी का समीरण ही इस आवागमन से मुक्ति का द्वार है।
काल फिरै सिर उपरै, हाथौं धरी कमान।
कहै कबीर गहु नाम को, छोर सकल अभिमान।।
काल सर के ऊपर हाथों में तीर कमान लेकर अपने शिकार की तलाश में चक्कर लगा रहा है, मंडरा रहा है इसलिए घमंड को छोडकर हरी के नाम का सुमिरण करना ही इस जीवन का आधार है। हमें अहंकार का त्याग करके हरी के नाम का सुमिरण करना चाहिए। भाव है की यह जीवन कभी भी समाप्त हो सकता है इसलिए हरी के नाम का सुमिरण ही हमें आवागमन के फेर से मुक्त कर सकता है, अहंकार को त्याग करके हरी के सुमिरण में ध्यान को लगाना चाहिए।
काल पाये जग उपजो, काल पाये सब जाये।
काल पाये सब बिनसि है, काल काल कंह खाये।
श्रृष्टि की उत्पत्ति अपने नियत समय पर होती है और निश्चित समय के पूर्ण होने पर उसका विनाश भी हो ही जाता है, काल भी एक रोज काल को समाप्त कर देता है। भाव है की जीवन की उत्पत्ति और विनाश एक प्रक्रिया है जो निश्चित होती है।
कुशल जो पूछो असल की, आशा लागी होये
नाम बिहुना जग मुआ, कुशल कहा ते होये।
जब तक संसार में आशक्ति है और ईश्वर के नाम में मन नहीं लगा हुआ है तो कुशल कहाँ से होगा। भाव है की हरी सुमिरण ही कुशलता का आधार है। बगैर नाम सुमिरण के कुशल कैसे हुआ जा सकता है।
काल काल सब कोई कहै, काल ना चिन्है कोयी
जेती मन की कल्पना, काल कहाबै सोयी।
काल के बारे में सभी बातें करते हैं लेकिन काल को किसी ने चिन्हित नहीं किया है, किसी ने देखा नहीं है, जैसी मन की कल्पना होती है वैसा ही जीव काल के विषय में वर्णन करता है।
अजार धन अतीत का, गिरही करै आहार
निशचय होयी दरीदरी, कहै कबीर विचार।
यदि सन्यासी का धन गृहस्थ व्यक्ति कार्य में लेता है तो वह दरिद्र ही बनता है यह कबीर विचार करने के उपरान्त कहता है।
एैसी ठाठन ठाठिये, बहुरि ना येह तन होये
ज्ञान गुदरी ओढ़िये, काढ़ि ना सखि कोये।
व्यक्ति को ऐसा वेश धारण करना चाहिए जिससे यह जन्म पुनः हो ही ना, ज्ञान की गुदरी को ओढना चाहिए जिसको कोई छीन ना सके। भाव है की हमें ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे आवागमन का फेर मिट सके, हरी का सुमिरण करना चाहिए।
कवि तो कोटिन कोटि है, सिर के मुंडै कोट
मन के मुंडै देख करि, ता सेग लीजय ओट।
कवी करोड़ों हैं, सर को मुंडवाने वाले करोडो हैं लेकिन मन को मुंडवाने वाले बहुत ही कम हैं। जो व्यक्ति मन को मुंडवा ले वही सच्चा ज्ञान रखता है और उसी की शरण में जाने से लाभ मिलता है। जिसने मोह माया को त्याग दिया है, मन को मूँड लिया है उसकी शरण में जाने से ही लाभ मिलने वाला है।
कबीर वह तो एक है, पर्दा दिया वेश
भरम करम सब दूर कर, सब ही माहि अलेख।
सभी जीवो में परम ब्रह्म एक ही है लेकिन रूप अनेको अनेक हैं, सभी की वेश भूषा और परदे अलग हैं, हमें सभी भ्रम का त्याग करके परम ब्रह्म का सुमिरण करना चाहिए। सभी का मालिक एक है और सभी जीवों में व्याप्त है बाह्य रूप प्रथक है।
दाढ़ी मूछ मूराय के, हुआ घोटम घोट।
मन को क्यों नहीं मूरिये, जामै भरीया खोट।
दाढ़ी और मूंछ को मुंडा कर जीव घोटम घोट तो बन जाता है ऐसे व्यक्तिओं को साहेब की वाणी है की मन को क्यों नहीं मूंडते हो जिसमे विषय और विकार भरे पड़े हुए हैं। भाव है की शरीर पर भक्ति दिखाने के स्थान पर असल भक्ति को ग्रहण करना चाहिए, जो की मन से वैराग्य धारण करने से सबंधित है और मन से विषय विकार हटाने से सबंधित है।
बैरागी बिरकत भला, गिरा परा फल खाये।
सरिता को पानी पिये, गिरही द्वार ना जाये।।
वैरागी व्यक्ति संसार कार्यों से विरक्त रहता है, वह गिरा हुआ फल भी ग्रहण कर लेता है, वह कंद मूल ग्रहण करके नदी का पानी पीकर संतुष्ट रहता है और किसी घर पर मांगने के लिए नहीं जाता है। भाव है जो असल में संत / साधू होता है वह स्वंय में ही मस्त रहता है और गृहस्थ जीवन से उसे कुछ भी लेना देना नहीं होता है।
बाना देखि बंदिये, नहि करनी सो काम
नीलकंठ किड़ा चुगै, दर्शन ही सो काम।
लोग साधू रूप देखकर प्रणाम करते हैं, उसके कर्मों से उनको कोई लेना देना नहीं होता है जैसे नीलकंठ पक्षी जो सुंदर होता है उसके दर्शन को शुभ माना जाता है लेकिन वह तो कीड़े चुग कर खाता है। भाव है की लोग बाह्य दिखावे को ही महत्त्व देते हैं जो उचित नहीं है। रूप रंग/ वेश भूसा का त्याग करके जीव को उसके गुणों का विश्लेषण करना चाहिए और कर्मों को प्रधान मानना चाहिए।
भूला भसम रमाय के, मिटी ना मन की चाह
जो सिक्का नहि सांच का, तब लग जोगी नाहं।
अपने तन पर भस्म को रमा करके जीव भूल गया है, और उसके मन से चाह समाप्त नहीं हुई है, जिसके मन से चाह और विषय वासनाएं समाप्त नहीं हुई हैं वह सच्चा सिक्का नहीं है, जब तक सच्छा जोगी नहीं बन पाता है। जोग तभी होता है जब जीव अपने मन से वैराग्य को धारण कर लेता है।
भेश देखि मत भुलिये, बुझि लिजिये ज्ञान
बिन कसौटी होत नहि, कंचन की पहचान।
किसी की वेश भूषा देख कर भ्रम का शिकार नहीं बनना चाहिए और उसके ज्ञान का परिक्षण करना चाहिए। जैसे बगैर कसौटी के सोने की पहचान नहीं होती है वैसे ही साधूजन की पहचान उसके ज्ञान से ही हो सकती है। बाह्य वेश भूसा और आवरण को देख कर किसी के संत असंत होने की पहचान नहीं करनी चाहिए, इसके स्थान पर उसकी गुणों का विश्लेषन करना चाहिए।
माला बनाये काठ की, बिच मे डारा सूत
माला बिचारी क्या करै, फेरनहार कपूत।
माला तो लकड़ी की है और बीच में सूत की डोरी है यदि माला फेरने वाला ही कपूत हो तो माला को फेरने से क्या लाभ ? भाव है की यदि चरित्र ठीक नहीं है, मोह माया से ग्रसित है तो माया फेरने से कोई लाभ नहीं होने वाला नहीं है।
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