बिरह को अंग Kabir Ke Dohe Birah Ko Ang कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित
रात्यूँ रूँनी बिरहनीं, ज्यूँ बंचौ कूँ कुंज।कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज॥
Raatyoon Roonnee Birahaneen, Jyoon Banchau Koon Kunj.
Kabeer Antar Prajalya, Pragatya Biraha Punj.
विवेक के जाग्रत हो जाने पर आत्मा परमात्मा का ज्ञान आत्मा रूपी प्रेमिका का हो गया है। पूर्ण परम ब्रह्म को प्राप्त करने की जुगत में आत्मा क्रोंच (कुञ्ज) पक्षी के समान करूँ पुकार करती है। जैसे क्रोंच पक्षी अपने प्रियतम से बिछड़ कर रुदन करती है वैसे ही आत्मा पूर्ण परमात्मा से अलग होकर करूंन वेदना करती है। विरह का पुंज हृदय में प्रकट हो गया है जिससे वेदना और अधिक बढ़ गई है। अनुप्रास, रूपक और उपमा अलंकार का उपयोग किया गया है। दोहे में विरह का वर्णन प्राप्त होता है।
अबंर कुँजाँ कुरलियाँ, गरिज भरे सब ताल।
जिनि थे गोविंद बीछुटे, तिनके कौण हवाल॥
Abanr Kunjaan Kuraliyaan, Garij Bhare Sab Taal.
Jini The Govind Beechhute, Tinake Kaun Havaal.
आसमान में क्रोंच पक्षी ने अपने प्रिय से बिछड़ने के उपरान्त करूँन वेदना की जिससे विचलित होकर बादल बरसने लगे और गरज बरस कर सम्पूर्ण जलासय को भर दिया है। यदि ऐसी विरह वेदना है तो आत्मा की क्या दशा होगी जो अपने पूर्ण परम ब्रह्म से बिछड़ गई है। भाव है की क्रोंच की विरह वेदना से बरसात हो जाती है तो आत्मा के परमात्मा से बिछड़ जाने पर तो अवश्य ही इश्वर सुन लेगा।
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चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछुटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥
Chakavee Bichhutee Raini Kee, Aai Milee Parabhaati.
Je Jan Bichhute Raam Soon, Te Din Mile Na Raati.
चकवी अपने चकवे से रात को बिछड़ कर सुबह मिल जाती है लेकिन जो जीव अपने हरी/राम से बिछड़ जाते हैं उनका मिलना इतना सार्थक नहीं हो पाता है। भाव है की आत्मा पूर्ण परम ब्रह्म का ही एक अंश होती है लेकिन जन्मों जन्मों से वह भटक रही होती है। इसकी विरह वेदना अधिक है। इस दोहे में इश्वर से मिलने की व्याकुलता का चित्रण किया गया है।
बासुरि सुख नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माँहि।
कबीर बिछुट्या राम सूँ ना सुख धूप न छाँह॥
Baasuri Sukh Naan Raini Sukh, Na Sukh Supinai Maanhi.
Kabeer Bichhutya Raam Soon Na Sukh Dhoop Na Chhaanh.
परमात्मा से अलग हो चुकी आत्मा को ना तो दिन में सुख मिलता है और नाही रात्री में चैन मिल पाता है। राम वियोगी को सपने में भी सुख की प्राप्ति नहीं हो पाती है। जो जन अपने राम से बिछड़ गए हैं उन्हें धुप और छाँव कहीं भी सुख की प्राप्ति नहीं हो पाती है। भाव है की राम वियोगी की स्थिति पूर्णतः अलग होती है और उसकी विरह वेदना बहुत अधिक व्याकुल कर देने वाली होती है। इस दोहे में विशेशोक्ति और अनुप्रास अलंकार का उपयोग हुआ है।
बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाइ।
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैगे आइ॥
Birahani Oobhee Panth Siri, Panthee Boojhai Dhai.
Ek Sabad Kahi Peev Ka, Kab Re Milaige Aai
विरहनी मार्ग के किनारे खड़ी (उभी) होकर (पंथ सिरि) आने जाने वालों से उत्कंठा सहित दौडकर (ध्याई ) अपने प्रिय के सबंध में पूछती है। वह चाहती है की कम से कम एक शब्द तो उनको कोई बता दे की उसका प्रिय कब आकर उससे मिलेगा। ऐसी ही स्थिति कुछ आत्मा की है जो अपने पूर्ण ब्रह्म से बिछड़ चुकी है। यहाँ पर आत्मा का परमात्मा से नहीं मिल पाने पर विरह का वर्णन प्राप्त होता है।
बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम॥
Bahut Dinan Kee Jovatee, Baat Tumhaaree Raam.
Jiv Tarasai Tujh Milan Koon, Mani Naaheen Vishraam.
हे राम मैं तो बहुत दिनों से तुम्हारी बाट (इन्तजार करना ) देख रही थी, मन तो तुमसे मिलने को तड़प रहा है और मन में कहीं भी थोडा सा चैन/विश्राम नहीं है। जीव तुमसे मिलने को तरस रहा है। भाव है की पूर्ण ब्रह्म से बिछड़ चुकी आत्मा अपने मालिक से मिलने को बहुत ही व्याकुल है और उसे कहीं भी चैन नहीं मिलता है।
बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम।
मूवाँ पीछे देहुगे, सो दरसन किहिं काम॥
Birahin Oothai Bhee Pade, Darasan Kaarani Raam.
Moovaan Peechhe Dehuge, So Darasan Kihin Kaam.
पूर्ण ब्रह्म से मिलने को व्याकुल बिरहनी अपनी प्रिय से मिलने को खड़ी नहीं हो पाती है और यदि वह खड़ी होती भी है तो क्षीण हो चुकी काया के कारण पुनः गिर पड़ती है। विरहनी को लालसा ही की शायद राम आ गए हैं लेकिन ऐसा नहीं होने पर वह निराश होकर पुनः गिर पड़ती है, उठ उठ कर जमीन पर गिर पड़ती है। वह निरास होकर सोचने लग पड़ती है की शायद राम उसे मरने के उपरान्त ही दर्शन देंगे तो ऐसे दर्शन किस काम के, ऐसे दर्शनों का क्या ओचित्य है। भाव है की यदि प्रबल है तो उसके परिणाम स्वरुप आत्मा को जीवन के रहते हुए ही इश्वर से साक्षत्कार हो जाने चाहिए। यहाँ पर आत्मा का पूर्ण परम ब्रह्म से वियोग का वर्णन प्राप्त होता है।
मूवाँ पीछै जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लोह सब, (तब) पारस कौंणे काम॥
Moovaan Peechhai Jini Milai, Kahai Kabeera Raam.
Paathar Ghaata Loh Sab, (Tab) Paaras Kaunne Kaam.
यह जीवन रहते जिनको राम नहीं मिल पाते हैं, प्रिय नहीं मिल पाते हैं और यदि मृत्यु के उपरांत उन्हें राम की प्राप्ति होती है तो ऐसे मिलन से क्या लाभ होगा। जब पारस पत्थर जिसके सम्पर्क में लोहा/पत्थर आदि संपर्क में आने पर स्वर्ण में तब्दील हो जाता है तो, पारस पत्थर का क्या लाभ जब पत्थर और लोहा आदि सभी समाप्त ही हो जाएं। यहाँ पर विरह का वर्णन है की हरी से मिलन तभी लाभदाई होता है जब तक जीवन रहे, मरने के उपरान्त हरी की प्राप्ति से साधना को ओचित्य ही समाप्त हो जाता है।
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसो कहियाँ।
कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पासि गयां॥
Andesada Na Bhaajisee, Sandeso Kahiyaan.
Kai Hari Aayaan Bhaajisee, Kai Hari Hee Paasi Gayaan.
विरहनी का दूत को सन्देश है की अंदेशा तभी भागेगा जब या तो हरी स्वंय मिलने को आ जाएं या तो आत्मा ही हरी के पास चली जाएं, तब तक मिलने का शंसय बना रहेगा। हृदय की पीड़ा और द्वन्द तभी मिट पाता है जब जीव पूर्ण परमात्मा से मिल पाए। इस दोहे में विशेषोक्ति अलंकार का उपयोग हुआ है।
आइ न सकौ तुझ पै, सकूँ न तूझ बुझाइ।
जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ॥
Aai Na Sakau Tujh Pai, Sakoon Na Toojh Bujhai.
Jiyara Yauhee Lehuge, Birah Tapai Tapai.
आत्मा अपने प्रिय के पास जाने में समर्थ नहीं है और वह अपने प्रिय को भी नहीं बुला सकती है। ऐसा प्रतीत हो रहा है की हमारे प्राण तो तुम्हारे विरह में ऐसे ही तप कर समाप्त हो जाएँगे। भाव है की आत्मा अभी इस लायक नहीं हो पाई है की वह हरी से मिल सके और परमात्मा अभी इसलिए नहीं मिल सकती है क्योंकि माया का पूर्ण समर्पण नहीं हो पाया है जिसका विरह वर्णन यहाँ प्राप्त होता है। इस दोहे में पुनः शक्ति प्रकाश अलंकार का उपयोग हुआ है।
यहु तन जालौं मसि करूँ, ज्यूँ धूवाँ जाइ सरग्गि।
मति वै राम दया, करै, बरसि बुझावै अग्गि॥
Yahu Tan Jaalaun Masi Karoon, Jyoon Dhoovaan Jai Saraggi.
Mati Vai Raam Daya, Karai, Barasi Bujhaavai Aggi.
आत्मा विरह की अग्नि में इतनी दग्ध हो चुकी है की वह सोचती है की विरह में वो अपने तन को जला कर इसकी भस्म बना दे और ऊपर (स्वर्ग) की और आगमन करे, जैसे धुआ ऊपर की और उठता है। हो सकता है की आत्मा के भस्म हो जाने पर जो धुआ उठे उसे देख कर राम विरहनी पर दया कर दे और करुना की बारिश कर दे। विरह की वेदना के कारण जीवात्मा अपने जीवन को समाप्त कर देना चाहती है और चाहती ही की कैसे भी इश्वर से उसकी मुलाक़ात हो जाए।
यहु तन जालै मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ।
लेखणिं करूँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ॥
Yahu Tan Jaalai Masi Karaun, Likhaun Raam Ka Naun.
Lekhanin Karoon Karank Kee, Likhi Likhi Raam Pathaun.
विरह की अग्नि में जल रही आत्मा चाहती है की, पूर्ण परमात्मा से अलग हो चुकी आत्मा चाहती है की वह अपने शारीर को जला कर इसकी स्याही बना ले और हड्डी की लेखनी बना ले। हो सकता है की इससे प्रशन्न होकर राम मिलने को आ जाए । यहाँ पर इश्वर के प्रति अनन्य भक्ति भाव को प्रदर्शित किया गया है।
कबीर पीर पिरावनीं, पंजर पीड़ न जाइ।
एक ज पीड़ परीति की, रही कलेजा छाइ॥
Kabeer Peer Piraavaneen, Panjar Peed Na Jai.
Ek Ja Peed Pareeti Kee, Rahee Kaleja Chhai.
विरह की वेदना बहुत ही दुखदाई होती है और इसकी पीड़ा शरीर से दूर नहीं होती है। शरीर रूपी पिंजरे से विरह की वेदना दूर नहीं होती है, दर्द बना रहता है। यह पीड़ा कलेजे में स्थाई हो चुकी है, अब पीड़ा हृदय में समा चुकी है। भाव है की विरह वेदना बहुत ही दुखदाई होती है और वह शरीर में स्थाई रूप से अपना घर बना लेती है। यह पीड़ा उपचार से भी दूर नहीं होती है। इस दोहे में अनुप्रास, विरोधाभास और रुप्कातिश्योक्ति अलंकार का उपयोग हुआ है।
चोट सताड़ी बिरह की, सब तन जर जर होइ।
मारणहारा जाँणिहै, कै जिहिं लागी सोइ॥
Chot Sataadee Birah Kee, Sab Tan Jar Jar Hoi.
Maaranahaara Jaannihai, Kai Jihin Laagee Soi.
विरह की चोट बहुत संताप देने वाली होती है और इसके प्रभाव में सारा शरीर ही जर्जर हो जाता है। इस पीड़ा को या तो मारने वाला जानता है या फिर इसे भोगने वाला ही इस विषय में जान पाता है।यह विरह की वेदना है की जिसके प्रभाव से सम्पूर्ण शरीर ही क्षीण हो जाता है। इसका वर्णन संभव नहीं है इसे भोगने वाला या तो फिर इश्वर ही इस विषय में जानता है। प्रेम की परिक्वता के लिए विरह भी आवश्यक है।
कमाण सर साँधि करि, खैचि जू मार्या माँहि।
भीतरि भिद्या सुमार ह्नै जीवै कि जीवै नाँहि॥
Kar Kamaan Sar Saandhi Kari, Khaichi Joo Maarya Maanhi.
Bheetari Bhidya Sumaar Hnai Jeevai Ki Jeevai Naanhi.
भगवान् ने प्रेम का बाण चलाया है और निशाना भी बड़े जतन से साध कर लगाया है। यह बाण उसने पूर्ण रूप से खिंच कर मारा है जो चित्त/हृदय के आर पार हो गया है। इस सुमार (सधी हुई मार) से जीवात्मा जीवन और मृत्यु के मध्य संघर्ष कर रही है, इसका जीना और मरना भी संशय के बीच ही है। इस साखी में अनुप्रास और अन्योक्ति अलंकार का उपयोग हुआ है। भाव है की एक और तो सांसारिकता का आकर्षण है तो दूसरी तरफ हरी मिलन की आस यही द्वन्द है जिसके मध्य में जीवात्मा झूल रही है।
जबहूँ मार्या खैंचि करि, तब मैं पाई जाँणि।
लांगी चोट मरम्म की, गई कलेजा जाँणि॥
Jabahoon Maarya Khainchi Kari, Tab Main Paee Jaanni.
Laangee Chot Maramm Kee, Gaee Kaleja Jaanni.
गुरु देव ने जब विरह / प्रेम का बाण पूर्ण शक्ति के साथ खींच कर मारा तो मुझे ज्ञान हुआ की मर्म की चोट किसे कहते हैं जो मेरे हृदय के आर पार हो गई। भाव है की गुरु ही इश्वर के आदेश से साधक पर ज्ञान के बाण का प्रहार करता है जिससे उसकी भौतिकता वादी सोच हिलकर रह जाती है। इस साखी में विरोधाभाष और अतिश्योक्ति अलंकार का उपयोग हुआ है।
जिहि सर मारी काल्हि सो सर मेरे मन बस्या।
तिहि सरि अजहूँ मारि, सर बिन सच पाऊँ नहीं॥
Jihi Sar Maaree Kaalhi So Sar Mere Man Basya.
Tihi Sari Ajahoon Maari, Sar Bin Sach Paoon Nahin.
जिस विरह बाण से मैं कल मारी गई थी, कल जिस बाण से मुझपे गुरुदेव ने चोट की है, वह मेरे मन में बस गई है और उससे मेरी आसक्ति भी हो गई है। भाव है की ज्ञान की बाण से साधक का तन मन बिंध गया है। इस दोहे में विरोधाभास अलंकार का उपयोग हुआ है क्योंकि जो बाण चोट पहुंचा रहा है वही प्रिय भी लग रहा है।
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्रा न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै त बौरा होइ॥
Birah Bhuvangam Tan Basai, Mantra Na Laagai Koi.
Raam Biyogee Na Jivai, Jivai Ta Boura Hoi.
विरह का सांप/सर्प तन (बाम्बी) में रह रहा है जिसके ऊपर उपचार के लिए कोई मन्त्र काम नहीं कर रहा है। राम का वियोगी जीवित नहीं रह पाता है और यदि वह जीवित भी बच जाता है तो वह पागल के साद्रश्य हो जाता है। जो वियोगी होता है, भक्त होता है, वह इस संसार से प्रथक व्यावहार करता है इसलिए लोग उसे पागल समझते हैं। इस दोहे में सांगरूपक अलंकार का उपयोग हुआ है।
बिरह भुवंगम पैसि करि, किया कलेजै घाव।
साधू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव॥
Birah Bhuvangam Paisi Kari, Kiya Kalejai Ghaav.
Saadhoo Ang Na Modahee, Jyoon Bhaavai Tyoon Khaav.
विरह रूपी सांप/सर्प ने हृदय में प्रवेश करके हृदय में घाव कर दिया है । साधू अपने शरीर को अलग नहीं करता है, मोड़ता नहीं है, बल्कि वह अपने शरीर को विरह के सांप के समक्ष प्रस्तुत कर देता है की जैसे वो चाहे वैसे ही इस तन को खा लें। भाव है की साधक कठोर यातनाओं से विचलित नहीं होते हैं और उनका सामना करते हैं।
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साई के चित्त॥
Sab Rag Tant Rabaab Tan, Birah Bajaavai Nitt.
Aur Na Koee Suni Sakai, Kai Saee Ke Chitt.
विरह के कारण आत्मा रबाब में तब्दील हो गई है और समस्त शरीर की शिराएं तांत बन चुकी हैं। इस तन रूपी रबाब को विरह रोग ही बजाता है, प्रेम राग बजाता है, लेकीन यह राग सभी को सुनाई नहीं देता है, इस राग को या तो साधक सुन सकता है या फिर इश्वर इसे सुन सकता है।
बिरहा बिरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान।
जिह घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा मसान॥
Biraha Biraha Jini Kahau, Biraha Hai Sulitaan.
Jih Ghati Birah Na Sancharai, So Ghat Sada Masaan.
साधक को सीख है की तुम बिरह को बुरा मत समझो/बुरा मत कहो, वह तो राजा के समान उच्च है, जिस घट में बिरह का संचार नहीं होता है वह सदा ही शमशान ही रहता है। शुद्ध और पूर्ण प्रेम के अभाव में विरह अधुरा रहता है, जिस घट में इश्वर के प्रति विरह का भाव नहीं है वह मुर्दे के समान ही है, यहाँ पर विरह के महत्त्व को समझाया गया है।
अंषड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि निहारि
जीभड़ियाँ छाला पड़्या, राम पुकारि पुकारि॥
Anshadiyaan Jhaee Padee, Panth Nihaari Nihaari.
Jeebhadiyaan Chhaala Padya, Raam Pukaari Pukaari.
विरहनी आत्मा का अपने प्रियतम का राह देखते देखते आँखों के आगे काली झाइयां पड़ने लगी हैं और आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा है। जिव्हा में छाले पड़ गए हैं राम राम पुकारते पुकारते। यहाँ पर विरहनी की उत्कंठा का चित्रण किया गया है की कैसे वह विरह की अग्नि में जल रही है और उसकी मानसिक और शारीरिक स्थिति क्या है।
इस तन का दीवा करौं, बाती मेल्यूँ जीव।
लोही सींचौ तेल ज्यूँ, कब मुख देखौं पीव॥
Is Tan Ka Deeva Karaun, Baatee Melyoon Jeev.
Lohee Seenchau Tel Jyoon, Kab Mukh Dekhaun Peev.
इस शरीर रूपी दीपक मैं अपने प्राणों की बाती को प्रज्वलित कर रही हूँ तथा अपने रुधिर रक्त को तेल के रूप में डालकर सींचती रहे। जा जाने कब हरी के दर्शन हो जाएं, पीव का मुख कब देखने को मिल जाए। अपने प्राणों को भी समाप्त कर विरहनी अपने प्रियतम से मिलना चाहती हैं।
नैंना नीझर लाइया, रहट बहै निस जाम।
पपीहा ज्यूँ पिव पिव करौं, कबरू मिलहुगे राम॥
Nainna Neejhar Laiya, Rahat Bahai Nis Jaam.
Papeeha Jyoon Piv Piv Karaun, Kabaroo Milahuge Raam.
अपने पूर्ण परमात्मा से बिछड़ चुकी आत्मा विरह में तड़प रही है और उसके आँखों से निरंतर आसुओं की झड़ी लगी है। रहट के जल पात्र की भाँती उसमे से दिन रात पानी गिर रहा है वह पपीहा की भांति पीव पीव कर रही है, ना जाने उससे प्रियतम कब आकर मिलेंगे।
अंषड़िया प्रेम कसाइयाँ, लोग जाँणे दुखड़ियाँ।
साँई अपणैं कारणै, रोइ रोइ रतड़िया॥
Anshadiya Prem Kasaiyaan, Log Jaanne Dukhadiyaan.
Saanee Apanain Kaaranai, Roi Roi Ratadiya.
विरह की अग्नि में जलते हुए, आँखें लाल पड गई हैं और सभी को मेरे दुखों के विषय में पता चल गया है। मेरी आँखे मेरे साईं के रो रोकर दुखने चले हैं।
सोई आँसू सजणाँ, सोई लोक बिड़ाँहि।
जे लोइण लोंहीं चुवै, तौ जाँणों हेत हियाँहि॥
Soee Aansoo Sajanaan, Soee Lok Bidaanhi.
Je Loin Lonheen Chuvai, Tau Jaannon Het Hiyaanhi.
सच्चे हृदय से जो आंसू गिरते हैं और जो अपनों के लिए होते हैं और गैरों के लिए भी अश्रु तो समान रूप से ही गिरते हैं, लेकिन अश्रु को देख कर उसकी भावना का पता लगाना कठिन हैं। लेकिन जिन आंसुओं से लहू गिरता है वही सच्चे आंसू होते हैं। भाव है की सच्चे बिरह की पहचान करना मुश्किल तो होता है लेकिन बिरह के आंसुओं को देखकर बिरह की स्थिति का पता लगाया जा सकता है।
कबीर हसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त।
बिन रोयाँ क्यूँ पाइये, प्रेम पियारा मित्त॥
Kabeer Hasanaan Doori Kari, Kari Rovan Saun Chitt.
Bin Royaan Kyoon Paiye, Prem Piyaara Mitt.
कबीर साहेब की वाणी है की तुम हंसना बंद कर दो, सुखमय और विलासिता के जीवन को छोड़ दो और रुदन करो, बिरह की अग्नि में जलो। बगैर बिरह की वेदना के तुम अपने प्रियतम को कैसे प्राप्त कर पाओगे। भाव है की सांसारिक सुखो को छोडकर इश्वर से मिलन की अग्नि, बिरह में रहने से ही इश्वर की प्राप्ति संभव हो पाती है। सुखों को छोडकर अपने प्रिय से अलग होने की तड़प में रहना श्रेयकर है।
जौ रोऊँ तो बल घटे, हँसौं तो राम रिसाइ।
मनही माँहि बिसूरणाँ, ज्यूँ घुंण काठहि खाइ॥
Jau Rooon To Bal Ghate, Hansaun To Raam Risai.
Manahee Maanhi Bisooranaan, Jyoon Ghunn Kaathahi Khai.
यदि साधक बिरह में रोता है तो उसके शरीर क्षीण पड़ने लगता है और यदि वह विषय वासनाओं में लिप्त होकर हँसता है, खुश होता है तो हरी क्रोधित होते हैं इसी चिंता में वह अन्दर ही अन्दर चिंता करता रहता है। इस चिंता से उसका शरीर अन्दर ही अंदर खोखला हो रहा है जैसे घुन लकड़ी को अन्दर ही अन्दर से खाकर खोखला कर देता है। बिरह की अग्नि में जलने पर अजीब स्थिति हो रही है जिसका चित्रण किया गया है, बिरह की अग्नि साधक को अन्दर ही अन्दर से खाए जा रही है।
हंसि हंसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ।
जो हाँसेही हरि मिलै, तो नहीं दुहागनि कोइ॥
Hansi Hansi Kant Na Paie, Jini Paaya Tini Roi.
Jo Haansehee Hari Milai, To Nahin Duhaagani Koi.
हंस हंस कर सांसारिक सुखों में लिप्त होकर रहने से हरी की प्राप्ति संभव होती है। जिन जिन ने हरी को प्राप्त किया है वह विरह में रुदन करके ही प्राप्त किया है, उन्होंने विरह को महसूस किया है। यदि विषय वासनाओं में लिप्त होकर जीवात्मा सुखी रहती को कोई भी जीवात्मा दुहागीन नहीं होती और सदा सुहागन ही रहती। आत्मा के दुहागन से अभिप्राय है की जो जीवात्मा हरी का सुमिरन नहीं करती है वह अनेको अनेक योनियों में भटकती ही रहती है, उसकी मुक्ति नहीं होती है।
हाँसी खेलौ हरि मिलै, तौ कौण सहे षरसान।
काम क्रोध त्रिष्णाँ तजै, ताहि मिलैं भगवान॥
Haansee Khelau Hari Milai, Tau Kaun Sahe Sharasaan.
Kaam Krodh Trishnaan Tajai, Taahi Milain Bhagavaan.
हँसते खेलते और विषय वासनाओं में लिप्त रहकर यदि हरी की प्राप्ति संभव हो जाए तो कौन सांन पर चढ़ें ? यदि सुखों से हरी की प्राप्ति संभव हो जाए तो कौन तलवार की धार के समान तीक्ष्ण विरह वेदना को सहन करे। भाव है की हरी की प्राप्ति हेतु बिरह को सहन करना पड़ता है यही भक्ति मार्ग है।
पूत पियारो पिता कौं, गौंहनि लागा धाइ।
लोभ मिठाई हाथ दे, आपण गया भुलाइ॥
Poot Piyaaro Pita Kaun, Gaunhani Laaga Dhai.
Lobh Mithaee Haath De, Aapan Gaya Bhulai.
आत्मा पुत्र है और इश्वर पिता के समान हैं, वह अपने पिता के साथ रहने (मिलने ) के लिए दौड़ पड़ा है। पिता अपने पुत्र को मिठाई थमा कर, मिठाई का लोभ देकर छिप गया है। भाव है की भक्ति मार्ग में अनेकों व्यवधान एंव बाधाएं आती है।
डारि खाँड़ पटकि करि, अंतरि रोस उपाइ।
रोवत रोवत मिलि गया, पिता पियारे जाइ॥
Daari Khaand Pataki Kari, Antari Ros Upai.
Rovat Rovat Mili Gaya, Pita Piyaare Jai.
उपरोक्त दोहे के अनुसार परमात्मा जो पिता है अपने पुत्र को मिठाई के लालच में फंसा लेता है वहीँ जब पुत्र को मिठाई की सत्यता का भान होता है तो उसके अन्दर रोष उत्पन्न होता है और वह उस मिठाई को उठाकर फेंक देता है और रुदन करते हुए अपने पिता के पास पहुँच जाता है।
नैना अंतरि आचरूँ, निस दिन निरषौं तोहि।
कब हरि दरसन देहुगे सो दिन आवै मोंहि॥33॥
Naina Antari Aacharoon, Nis Din Nirashaun Tohi.
Kab Hari Darasan Dehuge So Din Aavai Monhi.
जीवात्मा अपने स्वामी से विनती कर रही है की ना जाने वह दिवस कब आएगा जब वह अपने स्वामी की आँखों में काजल की तरह से आँखों में लगेगी और अपने स्वामी के दर्शन पाएगी। जिस रोज हरी दर्शन होंगे वह सुदिवस ना जाने कब आएगा। भाव है की जीवात्मा अपने स्वामी से मिलने को बहुत ही आतुर है और वह निरंतर अपने मालिक को ही देखना चाहती है। आत्मा बिरह की अग्नि में निरंतर जल रही है।
कबीर देखत दिन गया, निस भी देखत जाइ।
बिरहणि पीव पावे नहीं, जियरा तलपै भाइ॥
Kabeer Dekhat Din Gaya, Nis Bhee Dekhat Jai.
Birahani Peev Paave Nahin, Jiyara Talapai Bhai.
बिरह में तड़प रही आत्मा का रुदन है की हरी मिलन की आस में दिवस भी चला गया और अब देखते ही देखते रात्री भी बीत जाने को है। बिरह की अग्नि में जल रही आत्मा को हरी के दर्शन नहीं हो पाए हैं और इस अग्नि में उसका हृदय / तन मन जल रहा है।
कै बिरहनि कूं मींच दे, कै आपा दिखलाइ।
आठ पहर का दाझणां, मोपै सह्या न जाइ॥
Kai Birahani Koon Meench De, Kai Aapa Dikhalai.
Aath Pahar Ka Daajhanaan, Mopai Sahya Na Jai.
जीवात्मा जो बिरह की अग्नि में जल रही है अपनी स्वामी से प्रार्थना करती है की या तो उसे आकर हरी अपने दर्शन दिखलाएं या फिर उसकी जान ही ले लें। आठों पहर की यह वेदना अब उससे सहन नहीं हो पा रही है। भाव है की बिरह की अग्नि में जल रही आत्मा अब जीवन से विरक्त हो चुकी है और चाहती है की यह जीवन लीला अब समाप्त हो जाए।
बिरहणि थी तो क्यूँ रही, जली न पीव के नालि।
रहु रहु मुगध गहेलड़ी, प्रेम न लाजूँ मारि॥
Birahani Thee To Kyoon Rahee, Jalee Na Peev Ke Naali.
Rahu Rahu Mugadh Gaheladee, Prem Na Laajoon Maari.
बिरह की अग्नि में जल रही/तड़प रही जीवात्मा स्वंय से प्रश्न करती है की यदि तू सच्ची बिरहनी है तो अभी तक तुम जीवित क्यों हो। तुम (जीवात्मा ) अपने पिय के साथ चिता में क्यों नहीं जल गई ? तुम प्रेम को लज्जित क्यों कर रही हो ? तुम देरी करने वाली मुग्धा ही हो। भाव है की तुमको अपने प्रिय मिलन में देरी नहीं करनी चाहिए और अपने प्राणों को भी सर्वश्व न्योछावर कर देने चाहिए।
हौं बिरहा की लाकड़ी, समझि समझि धूंधाउँ।
छूटि पड़ौं यों बिरह तें, जे सारीही जलि जाउँ॥
Haun Biraha Kee Laakadee, Samajhi Samajhi Dhoondhaun.
Chhooti Padaun Yon Birah Ten, Je Saareehee Jali Jaun.
बिरह की अग्नि में जल रही जीवात्मा अपनी तुलना उस लकड़ी से कर रही है जो रह रह कर जल रही है, सुलग रही है। अब वह चाहती है की वह पूर्ण रूप से जल जाए/समाप्त हो जाए तो इस बिरह की अग्नि से उसे मुक्ति मिले। भाव है की बिरह की अग्नि असहनीय है।
कबीर तन मन यों जल्या, बिरह अगनि सूँ लागि।
मृतक पीड़ न जाँणई, जाँणैगि यहूँ आगि॥
Kabeer Tan Man Yon Jalya, Birah Agani Soon Laagi.
Mrtak Peed Na Jaannee, Jaannaigi Yahoon Aagi.
बिरह की अग्नि में जीवात्मा का शरीर और आत्मा जल कर समाप्त हो गई है। जिस प्रकार मृतक सांसारिक पीडाओं से मुक्त रहता है वैसे ही जीवात्मा जो बिरह की अग्नि में जल रही है वह बिरह की अग्नि के सिवाय कुछ भी महसूस नहीं कर पा रही है।
बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जल हरि जाउँ।
मो देख्याँ जल हरि जलै, संतौं कहीं बुझाउँ॥
Birah Jalaee Main Jalaun, Jalatee Jal Hari Jaun.
Mo Dekhyaan Jal Hari Jalai, Santaun Kaheen Bujhaun.
बिरह की स्थिति वर्नानातीत है जिसमे जीवात्मा जो बिरह की अग्नि में जल रही है वह जब इस अग्नि को बुझाने के लिए अपने गुरु के पास जाती है तो वह भी इस अगन में जलने लग पड़ता है। भाव है की बिरह की अग्नि में जलने वाली आत्मा को अपने गुरु के पास जाने पर भी इसका हल नहीं मिल पाता है।
परबति परबति में फिर्या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातें जीवनि होइ॥
Parabati Parabati Mein Phirya, Nain Ganvaaye Roi.
So Bootee Paoon Nahin, Jaaten Jeevani Hoi.
बिरहनी जीवात्मा कहती है की वह पर्वत पर्वत डौल रही है और उसने अपने नेत्र भी हरी मिलन की आशा में खो दिए हैं लेकिन उसने हरी के दर्शन रूपी बूटी को पाया नहीं है, यदि वह बूटी मिल जाए तो यह जीवन सफल हो जाए।
फाड़ि फुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउँ।
जिहि जिहिं भेषा हरि मिलैं, सोइ सोइ भेष कराउँ॥
Phaadi Phutola Dhaj Karaun, Kaamaladee Pahiraun.
Jihi Jihin Bhesha Hari Milain, Soi Soi Bhesh Karaun.
यदि बिरहनी के रेशमी वस्त्र हरी / पिया को अच्छे नहीं लग रहे हैं तो वह इन रेशमी वस्त्रों को फाड़ कर चीर चीर करके साधुओं की भाँती कम्बल को पहन ले। जिस भेष से हरी की प्राप्ति होती हो वह उसी वेश को धारण करने के लिए तैयार है। भाव है की जिस भी माध्यम से हरी की प्राप्ति होती हो वह उसी तरह से इश्वर की प्राप्ति करने के लिए तैयार है।
नैन हमारे जलि गये, छिन छिन लोड़ै तुझ।
नां तूं मिलै न मैं खुसी, ऐसी बेदन मुझ॥
Nain Hamaare Jali Gaye, Chhin Chhin Lodai Tujh.
Naan Toon Milai Na Main Khusee, Aisee Bedan Mujh
हरी की प्राप्ति में जीवात्मा के नयन क्षण क्षण बाट देखते हुए (लौड़े) / इन्तजार करते हुए नष्ट हो गए हैं। जब तक हरी के दर्शन नहीं होंगे जीवात्मा सुखी नहीं रह पाएगी, ऐसी वेदना जीवात्मा को सता रही है।
भेला पाया श्रम सों, भौसागर के माँह।
जो छाँड़ौ तौ डूबिहौ, गहौं त डसिये बाँह॥
Bhela Paaya Shram Son, Bhausaagar Ke Maanh.
Jo Chhaandau Tau Doobihau, Gahaun Ta Dasiye Baanh.
भवसागर में डूबता हुए उसे प्रेम रूपी बेडा प्राप्त किया है, लेकिन इस पर बिरह रूपी सर्प बैठा है जो कभी उसे डस सकता है। जो मैं इसे छोड़ता हूँ तो वह (प्रेम रूपी बेडा) डूबने का डर है और यदि इसपे चढ़ता हूँ तो यह सर्प मुझे काट सकता है। भाव है की बिरह से मुक्त होने का एकमात्र साधन प्रेम है लेकिन इसके लिए उसे बिरह का दंश झेलना ही पड़ेगा।
रैणा दूर बिछोहिया, रह रे संषम झूरि।
देवलि देवलि धाहड़ी, देखी ऊगै सूरि॥
Raina Door Bichhohiya, Rah Re Sansham Jhoori.
Devali Devali Dhaahadee, Dekhee Oogai Soori.
रात्री ने चकवा पक्षी को अपने प्रिय से वियोग कर दिया है। अब वह मंदिर मंदिर (घर - घर ) पर जाकर अपने प्रिय के वियोग में रुदन कर रहा है लेकिन उसके प्रिय से तो उसे सूर्योदय ही मिला पायेगा।
सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै॥
Sukhiya Sab Sansaar Hai, Khaaye Aru Sovai.
Dukhiya Daas Kabeer Hai, Jaage Aru Rovai.
जो जीवात्मा अज्ञान में पड़ी हैं वे खुश हैं और आराम से अपना जीवन यापन कर रही हैं। वे तो खाकर आराम से सोते हैं, लेकिन दुखिया तो दास कबीर है जो ज्ञान प्राप्ति के लिए बेचैन है, वह जाग रहा है और रो रहा है। भाव है की ज्ञान प्राप्ति के लिए बिरह की अग्नि में जलना ही पड़ता है।
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