गुरु किया है देह का सतगुरु चीन्हा नाहिं मीनिंग
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं,
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि।
Guru Kiya Hai Deh Ka, Satguru Chinha Nahi,
Bhavsagar Ke Jal Me Phir Phir Gota Khai. गुरु किया है देह का सतगुरु चीन्हा नाहिं हिंदी शब्दार्थ
- गुरु किया है : गुरु बना लिया है।
- देह का : बाह्य रूप में, शरीर का।
- सतगुरु : गुरु जो आत्मिक है और सत्य की राह दिखाता है।
- चीन्हा : चिन्हित, ढूँढना।
- नाहिं : नहीं (सतगुरु को नहीं ढूँढा है )
- भवसागर : आवागमन / जन्म मृत्यु का चक्र।
- के जाल में : आवागमन के फेर में।
- फिर फिर : बार बार, पुनः।
- गोता खाहि : गोता खाना, चक्कर लगाना।
गुरु किया है देह का सतगुरु चीन्हा नाहिं अर्थ/भावार्थ मीनिंग
कबीर साहेब कहते हैं की साधन ने गुरु तो बना लिया लेकिन उसने गुरु की पहचान नहीं की है। उसके द्वारा बनाया गया गुरु शरीर तक ही सीमित है। उसने सतगुरु की खोज नहीं की है। सतगुरु के अभाव में वह बार बार/पुनः जन्म लेता है और मर जाता है, भव सागर में गोता खाता है।
कबीर साहेब के इस दोहे का अर्थ है की साधक सतगुरु देह रूप में करता है, वह सतगुरु को चिन्हित नहीं करता है जो आत्मिक रूप से होता है। ऐसी में वह भवसागर में गोता ही खाता रहता है। देह का गुरु करना यानी किसी मनुष्य को गुरु धारण करना व्यर्थ ही होता है, सच्चा गुरु तो वो है जो हरेक के अंदर विद्यमान है, हृदय में स्थापित है जिसे अंतर आत्मा या शब्द कहते हैं जो सदा अमर है, उस सच्चे गुरु को न जान के जो मनुष्य झूठे देही गुरुओं को धारण करता है वो मनुष्य कभी पार नही हो सकता वो भवसागर में ही डूब जाता है, जन्म मरण का चक्र चलता ही रहता है। भावार्थ है की गुरु ऐसा नहीं होना चाहिये जो बाह्य प्रदर्शन युक्त भक्ति का ज्ञान दे। माला, तिलक कपडे, केश, तीर्थ, जप तप ये सभी बाह्य प्रदर्शन हैं और वास्तविक भक्ति से इनका कोई लेना देना नहीं होता है। भक्ति के लिए सतगुरु ही सच्चा मार्ग दिखाता है जो आंतरिक/आत्मिक होता है। आत्मा और हृदय से सच्ची भक्ति पर कबीर साहेब ने बहुत जोर दिया है।
गुरु किया है देह का,
सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में,
फिर फिर गोता खाहि ॥
पूरा सतगुरु न मिला,
सुनी अधूरी सीख ।
स्वाँग यती का पहिनि के,
घर घर माँगी भीख ॥
कबीर गुरु है घाट का,
हाँटू बैठा चेल ।
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ ,
गुरु सबेरे ठेल ॥
गुरु-गुरु में भेद है,
गुरु-गुरु में भाव ।
सोइ गुरु नित बन्दिये,
शब्द बतावे दाव ॥
जो गुरु ते भ्रम न मिटे,
भ्रान्ति न जिसका जाय ।
सो गुरु झूठा जानिये,
त्यागत देर न लाय ॥
झूठे गुरु के पक्ष की,
तजत न कीजै वार ।
द्वार न पावै शब्द का,
भटके बारम्बार ॥
सद्गुरु ऐसा कीजिये,
लोभ मोह भ्रम नाहिं ।
दरिया सो न्यारा रहे,
दीसे दरिया माहि ॥
कबीर बेड़ा सार का,
ऊपर लादा सार ।
पापी का पापी गुरु,
यो बूढ़ा संसार ।।
जो गुरु को तो गम नहीं,
पाहन दिया बताय ।
शिष शोधे बिन सेइया,
पार न पहुँचा जाए ॥
साच्चे गुरु के पक्ष में,
मन को दे ठहराय ।
चंचल से निश्चल भया,
नहिं आवै नहीं जाय ॥
गु अँधियारी जानिये,
रु कहिये परकाश ।
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे,
गुरु नाम है तास ।।
गुरु नाम है गम्य का,
शीष सीख ले सोय ।
बिनु पद बिनु मरजाद नर,
गुरु शीष नहिं कोय ॥
गुरुवा तो घर फिरे,
दीक्षा हमारी लेह ।
कै बूड़ौ कै ऊबरो,
टका परदानी देह ॥
गुरुवा तो सस्ता भया,
कौड़ी अर्थ पचास ।
अपने तन की सुधि नहीं,
शिष्य करन की आस ॥
जानीता बूझा नहीं ,
बूझि किया नहीं गौन ।
अन्धे को अन्धा मिला,
राह बतावे कौन ॥
जाका गुरु है आँधरा,
चेला खरा निरन्ध ।
अन्धे को अन्धा मिला,
पड़ा काल के फन्द ॥
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