नमस्कार दोस्तों, आज हम बात करेंगे एक महान कवि, सेनापति, और विद्वान अब्दुर रहीम ख़ानख़ाना जी के जीवन की, जिन्हें हम सभी ‘रहीम’ के नाम से जानते हैं। रहीम, अकबर के नवरत्नों में से एक थे और उन्होंने अपने समय में भारतीय साहित्य को अद्भुत रचनाओं से समृद्ध किया। उनके जीवन के कई पहलू, उनकी रचनाओं की विशेषताएँ और उनकी नीति के दोहे आज भी हमारे दिलों में विशेष स्थान बनाए हुए हैं। आइए जानते हैं रहीम के जीवन की कहानी और उनकी काव्य-शैली की खासियतें।
रहीम का प्रारंभिक जीवन
अब्दुर रहीम ख़ानख़ाना का जन्म 17 दिसंबर 1556 को दिल्ली में हुआ था। वे अकबर के संरक्षक बैरम खाँ के पुत्र थे। जब रहीम केवल पाँच साल के थे, उनके पिता की हत्या कर दी गई थी। इसके बाद अकबर ने रहीम और उनकी माँ सुल्ताना बेगम की जिम्मेदारी ली और उनका पालन-पोषण किया। अकबर के दरबार में शिक्षा ग्रहण करने के बाद रहीम ने अपने पिता के नक्शे-कदम पर चलते हुए एक कुशल योद्धा, सेनापति और कवि के रूप में अपनी पहचान बनाई।
विवाह और पारिवारिक जीवन
रहीम की योग्यता और कार्यकुशलता को देखते हुए मुगल सम्राट अकबर ने उन्हें अपने परिवार से जोड़ने का निर्णय लिया। अकबर ने अपनी धाय माहम अनगा की बेटी माहबानो से रहीम का विवाह करवा दिया, ताकि रहीम को राजनैतिक खतरों से बचाया जा सके। यह विवाह लगभग उनके सोलहवें वर्ष में हुआ। माहबानो से रहीम के तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। रहीम के पुत्रों का नाम इरीज़, दाराब, और करन अकबर ने स्वयं रखा था। उनकी पुत्री जाना बेगम का विवाह 1599 में शहज़ादा दानियाल से हुआ, और दूसरी पुत्री का विवाह मीर अमीनुद्दीन से हुआ।रहीम के जीवन में अन्य महिलाएँ भी आईं। सौधा जाति की एक महिला से उन्हें रहमान दाद नामक पुत्र हुआ, और उनकी एक नौकरानी से मिर्ज़ा अमरुल्ला का जन्म हुआ। रहीम के एक अन्य पुत्र, हैदर क़ुली, का बचपन में ही निधन हो गया था। उनके पारिवारिक जीवन में विभिन्न रिश्तों का महत्व था, जिसने उनके जीवन में अनेक मोड़ लाए।
रहीम का भाग्योदय
रहीम का भाग्योदय 1573 से शुरू हुआ और उन्होंने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। अकबर के साथ गुजरात विजय में भाग लेते हुए, 16 वर्षीय रहीम ने अपनी बहादुरी का परिचय दिया और दुश्मनों को परास्त किया। यह उनके लिए पहला युद्ध था और इसमें उन्होंने अकबर के नेतृत्व में मध्य कमान का कार्यभार संभाला। इसके बाद, उन्हें राजस्थान के दुर्गम क्षेत्रों में राणा प्रताप के खिलाफ अभियान में भेजा गया। इन युद्धों ने रहीम को एक कुशल और अनुभवी सेनापति बना दिया, जिससे उनके भाग्य का सितारा चमकता गया।
1580 में रहीम को पहली बार एक स्वतंत्र पद मिला, जिससे उन्हें अकबर के दरबार में एक अलग पहचान मिली। बाद में उन्हें अकबर के बेटे शहज़ादा सलीम के शिक्षक के रूप में भी नियुक्त किया गया, जो उनके लिए एक सम्मानजनक जिम्मेदारी थी। इस उपलब्धि पर उन्होंने एक भव्य दावत का आयोजन किया, जिसमें स्वयं अकबर भी शामिल हुए और उन्हें उपहारों से सम्मानित किया। रहीम की निष्ठा और योग्यता ने उन्हें मुगल दरबार में एक विशेष स्थान दिलाया, और वे अकबर के समय के सबसे प्रभावशाली और सम्मानित दरबारियों में गिने जाने लगे।
रहीम की काव्य-शैली और साहित्यिक योगदान
रहीम का काव्य विशेष रूप से उनके नीति, शृंगार और भक्ति संबंधी दोहों के लिए प्रसिद्ध है। उनकी नीति की मार्मिक अभिव्यक्तियाँ और जीवन की सच्चाइयों पर आधारित उपदेश देने वाले दोहे लोगों के दिलों में गहरी छाप छोड़ते हैं। रहीम की काव्य भाषा ब्रज और अवधी थी, जिसमें सरलता, सरसता और प्रभावशीलता थी। उनकी रचनाओं में अनुप्रास, रूपक, उपमा जैसे अलंकारों का सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है।
उनकी प्रमुख रचनाओं में बरवै नायिका भेद, रहीम दोहावली, और मदनाष्टक शामिल हैं। उनके दोहे सरल शब्दों में गहरी बातें कहने का अद्भुत उदाहरण हैं, जो लोगों की जीवनशैली और सोच को प्रभावित करते हैं।
ख़ानख़ाना की उपाधि
रहीम को "ख़ानख़ाना" की उपाधि अकबर ने उनकी बहादुरी और नेतृत्व क्षमता के सम्मान में दी। मालवा के युद्ध में रहीम ने अपने कौशल से दुश्मनों को परास्त किया, जिससे मुज़फ़्फ़र ख़ाँ को भी भागना पड़ा। इस विजय के बाद, रहीम का नाम दरबार में अधिक सम्मान के साथ लिया जाने लगा और उनके विरोधियों के मुँह बंद हो गए। इस सम्मान के साथ उन्हें कई जागीरें भी दी गईं, जिससे उनके प्रतिष्ठित स्थान और अधिक मजबूत हो गया।
1589 में, अकबर की कश्मीर और काबुल यात्रा के दौरान, रहीम ने बाबर की आत्मकथा 'तज़ुके बाबरी' का तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद किया और इसे अकबर को भेंट किया। अकबर उनकी इस साहित्यिक उपलब्धि से प्रभावित हुए और उन्हें साम्राज्य के वकील के पद पर नियुक्त कर दिया, जो कि उनके पिता बैरम ख़ाँ का पद भी था। रहीम को इस पद के साथ जौनपुर का सूबा भी जागीर के रूप में मिला। यद्यपि यह उच्च पद था, पर बड़े अमीरों की जिम्मेदारियाँ निभाने और प्रतिष्ठा बनाए रखने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई थी।
रहीम का दरबारी जीवन और पद
अकबर के शासनकाल में रहीम का योगदान महत्वपूर्ण था। उन्हें 'मीर अर्ज' का पद और 'खानख़ाना' की उपाधि से नवाजा गया। रहीम ने अनेक युद्धों में भाग लिया और अपनी वीरता का परिचय दिया। अकबर ने उन्हें गुजरात की सूबेदारी का पद भी सौंपा, जहाँ उन्होंने अपने अद्वितीय कौशल से शासन संभाला।
रहीम का साहित्यिक प्रभाव
रहीम की मृत्यु
रहीम का साहित्यिक प्रभाव
रहीम के काव्य का मुख्य उद्देश्य नीति और शृंगार को सरल भाषा में प्रस्तुत करना था। उनके शृंगारिक दोहों में भारतीय प्रेमजीवन की झलक दिखती है। उनकी नीति संबंधी उक्तियों पर संस्कृत साहित्य का गहरा प्रभाव था, जो उनके संस्कृत ज्ञान को दर्शाता है। उनकी रचनाएँ तुलसीदास, बिहारी, और मतिराम जैसे अन्य कवियों को भी प्रेरणा देती हैं। रहीम का नाम आज भी हिंदी साहित्य में आदर के साथ लिया जाता है।
रहीम की मृत्यु
रहीम का जीवन संघर्षपूर्ण था, लेकिन उन्होंने हमेशा अपनी सच्ची भावना और सरल भाषा से लोगों का दिल जीता। 1627 में उनका निधन हुआ और उन्हें दिल्ली में दफनाया गया। उनकी काव्य-शैली, नीति, शृंगार और भक्ति से परिपूर्ण उनके दोहे आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं और उनकी दानशीलता और विद्वत्ता के किस्से हर किसी को प्रभावित करते हैं।
रहीम दास का संक्षिप्त परिचय
- नाम: रहीम दास
- पूरा नाम: अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना
- जन्म: 17 दिसम्बर, 1556
- जन्मस्थान: लाहौर, पाकिस्तान
- मृत्यु: 1 अक्टूबर, 1627 (उम्र 70)
- मृत्यु स्थान: चित्रकूट, उत्तर प्रदेश, भारत
- समाधि: अब्दुर्रहीम खान-ए-ख़ाना का मकबरा, दिल्ली
- पेशा: कवि, सेनापति, प्रशासक
- स्थिति: अकबर के नवरत्नों में से एक
- माता: सुल्ताना बेगम
- पिता: बैरम खाँ
- पत्नी: मह बानू बेगम (माहबानों)
- धर्म: इस्लाम (मुसलमान)
- प्रमुख रचनाएँ: रहीम दोहावली, बरवै नायिका भेद, मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, नगर शोभा
- विधा: दोहा, कविता
- भाषा: अवधी, ब्रजभाषा (सरल, स्वाभाविक और प्रवाहपूर्ण)
- साहित्य काल: भक्ति काल
रहीम के काव्य में शृंगार, वीरता, भक्ति, और नीति जैसे विषय प्रमुखता से देखने को मिलते हैं। उनके दोहे सरल और प्रभावशाली होने के कारण सर्वसाधारण को आसानी से याद हो जाते थे। भाषा की दृष्टि से उन्होंने संस्कृत और बृजभाषा में रचनाएँ कीं, जो उनकी सरल, स्वाभाविक, और प्रवाहपूर्ण शैली को प्रदर्शित करती हैं।
रहीम की प्रमुख साहित्यिक रचनाएँ निम्नलिखित हैं:
रहीम की भाषा शैली
रहीम की भाषा शैली और काव्य में उनकी अद्भुत पकड़ को सरल शब्दों में समझ सकते हैं। उनके काव्य में भाषा के विविध रूप देखने को मिलते हैं, जिनमें उनकी गहरी साहित्यिक समझ और कला कौशल साफ झलकता है।
- रहीम सतसई: इसमें नीति और जीवन से जुड़े दोहे संग्रहित हैं, जो आज भी लोकप्रिय हैं।
- रास पंचाध्यायी: कृष्ण लीला पर आधारित एक उत्कृष्ट काव्य।
- रहीम रत्नावली: विविध विषयों पर रहीम के विचारों का संकलन।
- भाषिक भेदवर्णन: भाषा और उसके विविध रूपों का वर्णन करती रचना।
- दोहावली: नीति, भक्ति, और जीवन के कई आयामों को दोहों के माध्यम से व्यक्त करती रचना।
- नगर शोभा: नगर की संस्कृति और उसके सौंदर्य का वर्णन करने वाली काव्य रचना।
- बरवै नायिका भेद: नायिका के विभिन्न रूपों का सजीव चित्रण।
- शृंगार सोरठा: प्रेम और सौंदर्य से ओत-प्रोत सोरठाओं का संकलन।
- मदनाष्टक: प्रेम पर आधारित आठ पंक्तियों की काव्य रचना।
- खेट कौतुक जातकम: विविध घटनाओं और किस्सों का वर्णन, जो नीति और शिक्षा से भरपूर हैं।
रहीम की भाषा शैली
रहीम की भाषा शैली और काव्य में उनकी अद्भुत पकड़ को सरल शब्दों में समझ सकते हैं। उनके काव्य में भाषा के विविध रूप देखने को मिलते हैं, जिनमें उनकी गहरी साहित्यिक समझ और कला कौशल साफ झलकता है।भाषा का चयन: रहीम ने ब्रज भाषा, अवधी और खड़ी बोली को अपने काव्य की मुख्य भाषा बनाया, जिसमें ब्रज भाषा का प्रयोग अधिक था। उन्होंने सरल और सहज शब्दों में अपनी बात कही, ताकि आम लोग भी उनकी गहराई को समझ सकें।
भाषाओं का ज्ञान: रहीम अरबी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत और हिंदी के अच्छे जानकार थे। उनकी कविताओं पर संस्कृत साहित्य और हिंदू संस्कृति की गहरी छाप थी, जिससे उनकी रचनाएँ नीति और भक्ति की ओर झुकी रहीं।
प्रमुख रचनाएँ: रहीम की 11 काव्य रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनमें उनके दोहों का संग्रह "दोहावली" खास है, जिसमें लगभग 300 दोहे शामिल हैं। "नगर शोभा" नामक रचना में विभिन्न जातियों की स्त्रियों का श्रृंगार वर्णन है।
- वाक़यात बाबरी - तुर्की ग्रंथ का फ़ारसी में अनुवाद किया। यह उनकी भाषाई दक्षता का उत्कृष्ट उदाहरण है।
- खेट कौतुक जातकम् - ज्योतिष ग्रंथ जिसमें फ़ारसी और संस्कृत का अनूठा संयोजन है।
- बरवै नायिका भेद - इसमें भारतीय गार्हस्थ्य जीवन और नायिका-भेद का सूक्ष्म चित्रण है, जो रहीम की रचनात्मकता को दर्शाता है।
- प्रकाशित संग्रह:
- रहीम रत्नावली - सं. मायाशंकर याज्ञिक (1928 ई.) द्वारा संकलित, एक प्रमाणिक कृति मानी जाती है।
- रहीम विलास - सं. ब्रजरत्नदास (1948 ई.) द्वारा संकलित, रहीम के काव्य का
- रहिमन विनोद - हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा संकलित।
- रहीम कवितावली - सं. सुरेन्द्रनाथ तिवारी द्वारा संकलित काव्य संग्रह।
- रहीम - सं. रामनरेश त्रिपाठी द्वारा संकलित।
- रहिमन चंद्रिका - सं. रामनाथ सुमन द्वारा संकलित।
- रहिमन शतक - सं. लाला भगवानदीन द्वारा संकलित।
बरवै छंद में महारत: रहीम बरवै छंद में प्रसिद्ध थे, जिनकी रचना "बरवै नायिका भेद" अवधी भाषा में नायिकाओं का श्रेष्ठ विवरण है। उन्होंने गोपियों के विरह और श्रृंगार का सुंदर चित्रण भी बरवै छंद में किया है।
संस्कृत और हिंदी मिश्रण: उनकी एक कृति "मदनाष्टक" संस्कृत और हिंदी का मिश्रण है, जिसमें कृष्ण की रासलीला का वर्णन किया गया है। इसके साथ उन्होंने "वाकेआत बाबरी" नामक बाबर की आत्मकथा का तुर्की से फ़ारसी में अनुवाद भी किया।
काव्य विषय: रहीम के काव्य का मुख्य विषय श्रृंगार, नीति और भक्ति था। उनकी रचनाएँ वैष्णव भक्ति आंदोलन से प्रभावित थीं और उनकी नीति संबंधी रचनाओं का प्रभाव बिहारी और मतिराम जैसे कवियों पर भी पड़ा।
विविध छंदों का प्रयोग: रहीम ने दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया और मालिनी जैसे विभिन्न छंदों में अपनी बात कही, जिससे उनकी रचनाएँ विविधता और आकर्षण से भरी हैं।
यहाँ रहीम के जीवन के कुछ विशेष बिंदु संक्षेप में दिए गए हैं-
- पिता की हत्या (1561 ई.) - जब रहीम 5 वर्ष के थे, उनके पिता की हत्या पाटन नगर, गुजरात में कर दी गई। इसके बाद उनका पालन-पोषण बादशाह अकबर ने अपनी देखरेख में किया।
- पाटन की जागीर (1572 ई.) - अकबर ने रहीम की कार्यकुशलता से प्रभावित होकर उन्हें गुजरात चढ़ाई के समय पाटन की जागीर प्रदान की।
- गुजरात सूबेदारी (1576 ई.) - गुजरात विजय के बाद अकबर ने उन्हें गुजरात की सूबेदारी सौंप दी।
- मीर अर्जु का पद (1579 ई.) - अकबर ने रहीम को उनकी सेवाओं के सम्मान में मीर अर्जु का पद प्रदान किया।
- गुजरात उपद्रव का दमन (1583 ई.) - रहीम ने बड़ी योग्यता से गुजरात के उपद्रव को शांत किया।
- ख़ानख़ाना की उपाधि (1584 ई.) - रहीम की सफलता से प्रसन्न होकर अकबर ने उन्हें 'ख़ानख़ाना' की उपाधि और पंचहज़ारी का मनसब प्रदान किया।
- वकील की पदवी (1589 ई.) - रहीम को उनकी सेवाओं के सम्मान में अकबर ने 'वकील' की उपाधि से सम्मानित किया।
- दक्षिण का अधिकार (1604 ई.) - शहज़ादा दानियाल की मृत्यु और अबुलफ़ज़ल की हत्या के बाद रहीम को दक्षिण का पूरा अधिकार मिल गया।
- जहाँगीर के शासन में सम्मान - जहाँगीर के शासनकाल के आरंभिक दिनों में उन्हें पूर्ववत सम्मान मिलता रहा।
- शाहजहाँ का विद्रोह (1623 ई.) - शाहजहाँ के विद्रोही होने पर रहीम ने जहाँगीर के पक्ष में उनका साथ दिया।
- क्षमा याचना (1625 ई.) - बाद में रहीम ने शाहजहाँ से क्षमा याचना की और उन्हें पुनः 'ख़ानख़ाना' की उपाधि मिली।
- मृत्यु (1626 ई.) - 70 वर्ष की आयु में रहीम का निधन हो गया।
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Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं एक विशेषज्ञ के रूप में रोचक जानकारियों और टिप्स साझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें। |