कहानी गंगा स्नान भक्ति की पराकाष्ठा
गोकुल के एक संत, महात्मा वासुदेव, श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे। उन्होंने अपने जीवन को श्रीकृष्ण की सेवा में समर्पित कर दिया था। उन्होंने संसार को त्यागकर एक विशेष भाव अपनाया—वे स्वयं नंद बाबा बन गए और श्रीकृष्ण को अपना बालक मानने लगे।
महात्मा वासुदेव हर समय अपने लाला को गोद में खिलाने, स्नान कराने और भोजन कराने की मानसिक सेवा करते। जब वे भोजन करते, तो लाला को भी अपने साथ बिठाते। जब यमुना स्नान को जाते, तो अपनी कल्पना में बालकृष्ण को भी संग ले जाते। उनकी भक्ति इतनी गहरी थी कि उन्हें यह आभास होता मानो श्रीकृष्ण सच में उनकी गोद में खेल रहे हों।
महात्मा का पूरा दिन श्रीकृष्ण की लीलाओं के चिंतन में बीतता। निष्क्रिय ब्रह्म का ध्यान करना कठिन होता है, परंतु साकार श्रीकृष्ण का ध्यान करना सरल था। इसीलिए उन्होंने परमात्मा को पुत्र रूप में अपनाकर उन्हें अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया।
महात्मा वासुदेव कभी-कभी अपने शिष्यों से कहते, "मेरा जीवन व्यर्थ जाएगा यदि मैंने गंगा स्नान नहीं किया।" शिष्य उनसे काशी जाने का अनुरोध करते, परंतु उनका वात्सल्य भाव ऐसा था कि उन्हें लगता कि उनका नन्हा कन्हैया उन्हें जाने नहीं देगा।
समय बीतता गया और महात्मा वृद्ध हो गए, परंतु उनके मन में श्रीकृष्ण सदैव एक बालक ही बने रहे। एक दिन, वे अपने लाला का स्मरण करते-करते देह त्याग कर गए। उनके शिष्य भजन-कीर्तन करते हुए उन्हें श्मशान ले गए और अंतिम संस्कार की तैयारी करने लगे।
तभी वहाँ एक सात वर्ष का सुंदर बालक आया, जिसके कंधे पर गंगाजल से भरा घड़ा था। उसने शिष्यों से कहा, "ये मेरे पिता हैं। मैं इनका मानस-पुत्र हूँ, और पुत्र के नाते अंतिम संस्कार करने का अधिकार मेरा है। मेरे पिता गंगा-स्नान की इच्छा रखते थे, परंतु मेरे कारण वे नहीं जा सके। इसीलिए मैं गंगाजल लाया हूँ।"
बालक ने प्रेमपूर्वक महात्मा के पार्थिव शरीर को गंगा-स्नान कराया, उनके माथे पर तिलक किया और पुष्पमाला पहनाई। फिर उसने अग्नि-संस्कार संपन्न किया। वहाँ उपस्थित सभी साधु-महात्मा यह दृश्य देख आश्चर्यचकित रह गए। अग्नि-संस्कार के तुरंत बाद वह बालक अंतर्धान हो गया।
तब सबको बोध हुआ कि महात्मा वासुदेव के तो कोई संतान नहीं थी—वह स्वयं श्रीकृष्ण ही थे, जो पुत्र रूप में प्रकट होकर अपनी प्रिय भक्त की अंतिम इच्छा पूरी करने आए थे। महात्मा ने जैसा संबंध बांधा था, वैसा ही अनुभव प्राप्त किया।
महात्मा वासुदेव ने श्रीकृष्ण को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर उनकी मानसिक सेवा की। उनकी भक्ति इतनी प्रबल थी कि अंत समय में स्वयं बालकृष्ण उनके मानस-पुत्र बनकर प्रकट हुए और उनकी अंतिम इच्छा पूरी की। यह कथा दर्शाती है कि भक्ति जब संपूर्ण समर्पण के साथ की जाती है, तो ईश्वर स्वयं अपने भक्त की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं।