प्रेरणादायक कबीर के दोहे अर्थ सहित
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक ।
और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह ।
जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ ।
मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड ।
जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥
कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।
बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग ।
राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥
पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥
जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल ।
पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥
काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ ।
दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक। और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि छोटी नदियों का पानी सूख गया है, और समुद्र पर कलंक लग गया है। अन्य पक्षी तो पानी पी रहे हैं, लेकिन हंस (जो मोती चुनता है) अब चंचल नहीं रहा। यह संसार की अस्थिरता और माया के प्रभाव को दर्शाता है।
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह। जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि यह संसार झूठे माया-मोह से भरा है। जिस दिशा में हम अधिक आसक्ति रखते हैं, उसी दिशा में हमें अधिक दुख और कष्ट मिलता है।
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ। मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ॥
अर्थ: यदि हमने माया (धन-संपत्ति) का त्याग कर दिया, लेकिन अहंकार (मान) का त्याग नहीं किया, तो उसका कोई लाभ नहीं। अहंकार के कारण बड़े-बड़े मुनि भी गिर गए, और यह सभी को नष्ट करता है।
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड। जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि कुछ लोग ऊँची आवाज में कीर्तन करते हैं, लेकिन वे वास्तव में कुछ नहीं जानते। वे अज्ञान के अंधे हैं, जो केवल दिखावा करते हैं।
कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ। बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि उन्होंने पुस्तकों का अध्ययन छोड़ दिया और उन्हें बहा दिया। अब वे 52 अक्षरों (अक्षरमाला) के पीछे नहीं भागते, बल्कि अपने चित्त को मर्म (सत्य) में लगाते हैं।
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग। राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि उन्होंने सोचा कि पढ़ना अच्छा है, लेकिन पढ़ने से भी अच्छा है योग (आत्म-साधना)। राम-नाम से प्रीति करके, लोग वास्तव में अच्छे होते हैं।
पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद। सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद॥
अर्थ: लोग भजन गाते हैं और मन में हर्षित होते हैं, साक्षी (दर्शक) आनंदित होते हैं। लेकिन वे वास्तविक सत्य को नहीं जानते, और इस अज्ञानता के कारण उनके गले में फंदा पड़ जाता है।
जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल। पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जैसा व्यक्ति के मुख से निकलता है, वैसा ही उसका आचरण होता है। परम ब्रह्म (ईश्वर) निकट ही हैं, और पल भर में आनंदित कर सकते हैं।
काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ। दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि काजी और मुल्ला (धार्मिक नेता) भ्रम में हैं, और उन्होंने अपने दिल से दीन (धर्म) को भुला दिया है, जब उन्होंने तलवार हाथ में ली।
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