प्रेरणादायक कबीर के दोहे अर्थ सहित
सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।
तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।
मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।
जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ ।
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ ।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥
कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥
कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास ।
पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई। तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि सभी रसायनों (आध्यात्मिक साधनों) में हरि (ईश्वर) का नाम सर्वोत्तम है। यदि यह नाम हमारे हृदय में थोड़ा सा भी बस जाए, तो हमारा संपूर्ण अस्तित्व स्वर्ण के समान मूल्यवान हो जाता है।
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार। मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार॥
अर्थ: वह व्यक्ति जिसने हरि-रस (ईश्वर के प्रेम का अमृत) पिया है, उसकी मस्ती कभी कम नहीं होती। वह अहंकार से मुक्त होकर संसार में घूमता है, और उसे अपने शरीर की कोई चिंता नहीं रहती।
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि। पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि उन्होंने हरि-रस इस प्रकार पिया है कि अब कोई बाकी नहीं बची। जैसे कुम्हार का पका हुआ घड़ा फिर से चाक पर नहीं चढ़ता, वैसे ही वे अब संसारिक चक्र में नहीं फंसते।
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई। सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि मदिरा की भट्टी पर कई लोग बैठे हैं, लेकिन वही पी सकता है जिसने अपना सिर (अहंकार) समर्पित कर दिया हो; अन्यथा, वह मदिरा नहीं पी सकता।
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ। जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ॥
अर्थ: तृष्णा (इच्छा) को सींचने से भी वह बुझती नहीं, बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। यह उस जवासा (एक पौधा) के समान है, जो अधिक वर्षा में भी मुरझा जाता है।
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ। सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि वही धन संचित करो, जो आगे (परलोक में) काम आए। सिर पर गठरी रखकर जाते हुए (मृत्यु के समय) किसी को नहीं देखा गया है।
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़। सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि माया (मोह) बहुत मीठी खांड (चीनी) के समान है। यदि सतगुरु की कृपा न हो, तो यह हमें नष्ट कर देती है।
कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि। सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि माया (मोह) पापिनी है, जो जाल लेकर बाजार में बैठी है। सारा संसार उसके जाल में फंसा हुआ है, लेकिन कबीर ने उस जाल को काट दिया है।
कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास। पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जो लोग संसार की बातों में लगे रहते हैं, वे भय के जल में डूब जाते हैं। वे परमब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर मान (अहंकार) की आशा करते हैं।
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