शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय। भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥
अर्थ: शब्द ही गुरु का रूप है, और शरीर ही गुरु का शरीर है। निरंतर शब्द की भक्ति करने से, सत्गुरु हमें इसका सही अर्थ समझाते हैं।
बलिहारी गुर अपनैं, द्यौंहाडी कै बार। जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥
अर्थ: मैं अपने गुरु पर निछावर हूँ, जिन्होंने मनुष्य को देवता बना दिया। उनके आशीर्वाद से, मुझे कोई भी बाधा नहीं लगती।
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और। हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर॥
अर्थ: जो व्यक्ति गुरु को नहीं पहचानता, वह अंधा है। यदि भगवान नाराज हों, तो गुरु के पास शरण है; लेकिन यदि गुरु नाराज हों, तो कोई ठिकाना नहीं।
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय। सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥
अर्थ: जो गुरु भ्रम को दूर नहीं कर पाता और जिसकी भ्रांति नहीं जाती, उसे झूठा समझना चाहिए और उसे तुरंत छोड़ देना चाहिए।
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान। सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
अर्थ: यह शरीर विषयों की बेल है, जबकि गुरु अमृत की खान है। यदि गुरु के मिलन के लिए सिर भी देना पड़े, तो भी वह सस्ता है।
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव। दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥
अर्थ: गुरु का लोभ और शिष्य का लालच दोनों मिलकर खेलते हैं। दोनों ही बुरे हैं, जैसे पत्थर की नाव पर चढ़ना।