आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥
धर्म और समाज के बीच में आम आदमी पिसता जा रहा है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य गौण जो चुका है। वैश्विक स्तर पर देखें तो आज भी धर्म के नाम पर राष्ट्रों में संघर्ष होता रहता है। विलासिता के इस युग में ज्यादा से ज्यादा संसाधन जुटाने की फिराक में मानसिक शांति कहीं नजर नहीं आती है। ईश्वर की भक्ति ही सत्य का मार्ग है। कबीर की मानव के प्रति संवेदनशीलता इस दोहे में देखी जा सकती है।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥
ऊंचे कुल का जनमिया करनी ऊंच न होय ।
सुबरन कलश सुरा भरा साधू निन्दत सोय
सुबरन कलश सुरा भरा साधू निन्दत सोय
कबीर ने सदैव स्वंय के विश्लेषण पर जोर दिया। स्वंय की कमियों को पहचानने
के बाद हम शांत हो जाते है। पराये दोष और उपलब्धियों और दोष को देखकर हम
कुढ़ते हैं जो मानसिक रुग्णता का सूचक यही। यही कारन हैं की आज कल "पीस ऑफ़
माइंड" जैसे कार्यकर्म चलाये जाते हैं।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
धर्म और समाज के बीच में आम आदमी पिसता जा रहा है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य गौण जो चुका है। वैश्विक स्तर पर देखें तो आज भी धर्म के नाम पर राष्ट्रों में संघर्ष होता रहता है। विलासिता के इस युग में ज्यादा से ज्यादा संसाधन जुटाने की फिराक में मानसिक शांति कहीं नजर नहीं आती है। ईश्वर की भक्ति ही सत्य का मार्ग है। कबीर की मानव के प्रति संवेदनशीलता इस दोहे में देखी जा सकती है।
चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय ।
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ॥
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ॥
जहाँ एक और हर एक सुविधा और विलासिता प्राप्त करने की दौड़ मची है, सब
आपाधापी छोड़कर कबीर का मानना है की संतोष ही सुखी जीवन की कुंजी है जो आज
भी प्रासंगिक है। कबीर ने मानव जीवन का गहराई से अध्ययन किया और पाया की धन
और माया के जाल में फंसकर व्यक्ति दुखी है।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये
दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये
दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।
ज्ञान प्राप्ति पर ही भ्रम की दिवार गिरती है। ज्ञान प्राप्ति के बाद ही
यह बोध होता है की "माया " क्या है। माया के भ्रम की दिवार ज्ञान की
प्राप्ति के बाद ही गिरती है। माया से हेत छूटने के बाद ही राम से प्रीत
लगती है।
आंधी आयी ज्ञान की, ढ़ाहि भरम की भीति
माया टाटी उर गयी, लागी राम सो प्रीति।
माया जुगाबै कौन गुन, अंत ना आबै काज
सो राम नाम जोगबहु, भये परमारथ साज।
माया टाटी उर गयी, लागी राम सो प्रीति।
माया जुगाबै कौन गुन, अंत ना आबै काज
सो राम नाम जोगबहु, भये परमारथ साज।
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