उठो देव बैठो देव भजन Utho Dev Baitho Dev Gurjar Bhajan

उठो देव बैठो देव भजन Utho Dev Baitho Dev

उठो देव बैठो देव लिरिक्स Utho Dev Baitho Dev Lyrics

उठो देव बैठो देव
हाथ-पाँव फटकारो देव
उँगलियाँ चटकाओ देव
सिंघाड़े का भोग लगाओ देव
गन्ने का भोग लगाओ देव
सब चीजों का भोग लगाओ देव ॥
उठो देव बैठो देव
उठो देव, बैठो देव
देव उठेंगे कातक मोस

देवताओं के विषय में कथन है की वे कार्तिक मॉस / महीने में जागृत होते हैं. देव उठनी ग्यारस का महत्त्व इसी से सम्बंधित है.

नयी टोकरी , नयी कपास
ज़ारे मूसे गोवल जा  

ऐसे अवसर पर नयी टोकरी होगी और नया ही कपास कटेगा। चूहे तुम जाओ, घूम कर आओ।

गोवल जाके, दाब कटा  
दाब कटाके, बोण बटा
बोण बटाके, खाट बुना
खाट बुनाके, दोवन दे
दोवन देके दरी बिछा
दरी बिछाके लोट लगा
लोट लगाके मोटों हो, झोटो हो
 
चूहे तुम जाओ और दाब को कटवाओ। दाब जिससे खाट की बुनाई की जाती है, तुम जाओ और दाब कटवाओ और बोण को बँटवाओ/गोल गोल घुमा कर रस्सी की तरह से गूंथना। इसके बाद तुम दरी को बिछाओ। अब तुम दरी पर लोट पलेटा करो और खा पीकर मोटे हो जाओ जैसे की भैंसा होता है।

गोरी गाय, कपला गाय
जाको दूध, महापन होए,
सहापन होए I
जितनी अम्बर, तारिइयो
इतनी या घर  गावनियो
 
गोरी गाय, कपला एक गाय की नस्ल से सबंधित है। हमें इसका पावन दूध हर महीने मिले और घर परिवार से सुख हो। हमारे घर परिवार में समृद्धि आकाश के तारों की भाँती असंख्य हो। जितने आकाश में तारे हों, उतने ही हमारे घर में गाने वाले हों।

जितने जंगल  सीख सलाई
इतनी या घर  बहुअन आई
जितने जंगल हीसा रोड़े
इतने याघर बलधन घोड़े,

जंगल में जितनी घास हो, उतनी ही हमारे घर में बहु हों। जंगल में जितने घोड़े हों उतने ही हमारे घर में बैल हों।

जितने जंगल झाऊ झुंड
इतने याघर जन्मो पूत
ओले क़ोले , धरे चपेटा

ओले क़ोले , धरे अनार
ओले क़ोले , धरे मंजीरा

जितने जंगल में झाऊ के झुण्ड हों, (झाऊ मूसा) उतने ही हमारे घर में पुत्र रत्न उत्पन्न हों।  आस पास में अनार रखें हों और पास में ही मंजीरा रखा हो। 


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ईश्वर की भक्ति : सामाजिक जीवन में रहते हुए भी ईश्वर का सुमिरन किया जा सकता है। भजन के लिए जरुरी नहीं की सब नाते रिश्ते तोड़ कर व्यक्ति किसी पहाड़ पर जाकर ही मालिक को याद करें। ईश्वर को किसी स्थान विशेष में ढूढ़ने की भी आवश्यकता नहीं है, वो तो घट घट में निवास करता है। स्वंय के अंदर ना झाँक कर उसे बाहर ढूंढने पर कबीर साहब की वाणी है -
ना तीरथ में ना मूरत में ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलाश में
ना मैं जप में ना मैं तप में ना मैं व्रत उपास में
ना मैं क्रिया क्रम में रहता ना ही योग संन्यास में
नहीं प्राण में नहीं पिंड में ना ब्रह्माण्ड आकाश में
ना मैं त्रिकुटी भवर में सब स्वांसो के स्वास में
खोजी होए तुरत मिल जाऊं एक पल की ही तलाश में
कहे कबीर सुनो भाई साधो मैं तो हूँ विशवास में 

सद्कार्य करते हुए जितना भी वक़्त मिले ईश्वर की भक्ति ही काफी है। वस्तुतः सद्कार्यों में जीवन बिताते हुए ईश्वर का स्मरण ही काफी है। पुरे दिन मंदिर में बैठकर पूजा पाठ करने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा यदि मन में लोगों के प्रति कल्याण की भावना ही ना हो। असहाय की मदद करे, निर्धन की सहायता करें, बुजुर्गों का ख़याल रखें तो ईश्वर की भक्ति स्वतः ही हो जाती है। मानवता की सेवा ही सच्ची भक्ति है। मंदिर में दान पुण्य करने का अपना महत्त्व है लेकिन यह कहाँ तक उचित है की कोई व्यक्ति समर्थ होने पर सिर्फ मंदिरों में चढ़ावा दे और उसके आस पास बढ़ते हाथों को नजर अंदाज करता रहे। दोनों का अपने स्थान पर महत्त्व है।
 
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