चिंता तौ हरि नाँव की और न चितवै दास हिंदी मीनिंग कबीर के दोहे

चिंता तौ हरि नाँव की और न चितवै दास हिंदी मीनिंग Chinta To Hari Naav Ki Aur Chitave Daas Meaning

चिंता तौ हरि नाँव की, और न चितवै दास।
जे कछु चितवै राम बिन, सोइ काल की पास॥

Chinta Tau Hari Naanv Kee, Aur Na Chitavai Daas.
Je Kachhu Chitavai Raam Bin, Soi Kaal Kee Paas.
 
चिंता तौ हरि नाँव की और न चितवै दास हिंदी मीनिंग Chinta To Hari Naav Ki Aur Chitave Daas Hindi Meaning

चिंता तौ हरि नाँव की और न चितवै दास शब्दार्थ : Word Meaning Chinta To Hari Naav Ki Aur Chitave Daas

  • चिंता तौ : चिंता जिस विषय की है।
  • हरि नाँव की : चिंता तो केवल हरी नाम की है।
  • और न चितवै दास: हरी भक्त को और कोई चिंता नहीं है।
  • जे कछु : जो कुछ भी।
  • राम बिन : ईश्वर के बगैर, ईश्वर के अतरिक्त।
  • सोइ काल की पास : वही काल का भागी होता है।
राम भक्त साधक को यदि चिंता है तो वह केवल मालिक की है, ईश्वर की है, राम की है। यहां राम से आशय निर्गुण पूर्ण परम् ब्रह्म से है। वह ब्रह्म जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का रचियता है और ब्रह्माण्ड का स्वामी है। मालिक की चिंता कैसी ? मालिक की चिंता से आशय है भक्ति से। यह मानव जीवन अनेकों योनियों के भोगने के उपरान्त मिला है। मानव ही सृष्टि का एक ऐसा प्राणी है जिसके पास समझ है। सभी योनियों में मानव रूप में जीवन को श्रेष्ठ माना गया है। श्रेष्ठ इस आशय में की हम ईश्वर की महिमा को समझने और उसकी भक्ति करने में समर्थ हैं, अन्य जीव नहीं।

साधक को केवल राम की भक्ति की चिंता है और किसी भी सांसारिक भौतिक वस्तुएं और स्वार्थों की आवश्यकता नहीं है। कोई साधक जो राम के अतिरिक्त किसी भी वस्तु और विषय की चिंता करता है वह काल का भागी बंनता है। चिंता के सम्बन्ध में उल्लेखनीय है की साहेब ने स्पष्ट किया है की यह जगत हमारा स्थाई घर नहीं है। एक रोज सभी को अर्जित माया और सांसारिक सबंधों को छोड़ कर अकेले ही जाना है इसलिए हरी भक्ति के अतिरिक्त किसी भी विषय की चिंता का औचित्य भी क्या है।

 सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥
या
सतगुर की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार॥
Satagur Kee Mahima, Anant, Anant Kiya Upagaar.
Lochan Anant Ughaadiya, Anant Dikhaavanahaar.


गुरुदेव की महिमा का वर्णन करते हुए साहेब की वाणी है की उन्होंने अपने ज्ञान से इस जीवन को सफल कर दिया है, सतगुरु की कृपा से ही ज्ञान के नेत्र खुल गए हैं और उन्ही ने पूर्ण ब्रह्म के दर्शन करवाएं हैं। भाव है की गुरु ही माया के भ्रम को दूर करते हैं।

रात्यु रूनी बिरहनी, ज्यू बंचोकूं कुञ्ज।
कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगटया बिरहा पुंज।।
 Raatyu Roonee Birahanee, Jyoo Banchokoon Kunj.
Kabeer Antar Prajalya, Pragataya Biraha Punj.

परम तत्व की बिरहनी पूरी रात्री रोती है, जैसे बिछड़ा हुआ कौंच पंछी करूँन पुकार करता है, विलाप करता है। विरह के प्रगट होने पर हृदय में वियोग की ज्वाला दग्ध हो रही है। भाव है भक्ति मार्ग में आत्मा अपने ईश्वर से, मालिक से बिछड़ जाने पर वियोग की अग्नि में दग्ध हो रही है और अपने प्रियतम को याद करके करूँन पुकार करती है।
अम्बर कुंजा कुरलियाँ, गरजि भरे सब ताल।
जिनि थे गोबिंद बिछुटे, तिनके कौन हवाल।।
Ambar Kunja Kuraliyaan, Garaji Bhare Sab Taal.
Jini The Gobind Bichhute, Tinake Kaun Havaal.

विरह अग्नि का वर्णन करते हुए साहेब की वाणी है की आकाश में कौंच एंव कुररी पक्षियों की बिरहानुभुती पर करुना दिखाकर बरस पड़े हैं और तालाबों को जल से परिपूर्ण कर दिए हैं। इन विरहनीयों की आवाज तो ईश्वर ने सुन ली लेकिन जिनके मालिक बिछड़ गए हैं उनका कौन हवाल है ? भाव है की जीवात्मा अपने मालिक से बिछड़ गई है।
 
चकवा बिछुटी रैनी की, आई मिली परिभाति।
जे जन बिछुटे राम सू, ते दिन मिले ना राति।।
Chakava Bichhutee Rainee Kee, Aaee Milee Paribhaati.
Je Jan Bichhute Raam Soo, Te Din Mile Na Raati.


बिरह अग्नि से सबंधित इस दोहे में साहेब की वाणी है की बिरह से दग्ध चकवा और चकवी प्रभात होने पर आपस में मिल जाते हैं लेकिन जो जन राम से बिछड़ जाते हैं वे कभी आपस में दिन या रात्री को मिल नहीं पाते हैं। भाव है की बिरह की अग्नि में आत्मा अपने पूर्ण ब्रह्म से मिलने के लिए व्याकुल है और उसकी मिलन की अग्नि में जलती रहती है। भक्ति मार्ग से सबंधित इस दोहे में साहेब ने बिरह अग्नि के विषय में वर्णन किया है। 

बासुरी सुख ना रैनी सुख, ना सुख सुपने माहिं।
कबीर बीछुट्याराम स्यूं, ना सुख धूप ना छाह।।
Baasuree Sukh, Na Rainee Sukh, Na Sukh Supane Maahin.
Kabeer Beechhutyaaraam Syoon, Na Sukh Dhoop Na Chhaah.


राम के वियोगी को ना तो दिन में चैन मिलता है और नाहिं रात्री में ही सुख मिलता है। वियोग की अग्नि में उसे धुप और छाँव में कहीं भी सुख नहीं मिलता है। भाव है की जीवात्मा जब अपने प्रियतम/पूर्णब्रह्म से बिछड़ जाती है तो उसे कभी भी चैन नहीं मिलता है और वह दुखी ही रहती है। वह येन केन प्रकारेण अपने प्रियतम से मिलने को व्याकुल रहती है।
बिरहनी उबी पथ सिरि पंथी बुझे धाई।
एक सबब कही पीव का, कबर मिलेंगे आई।।
Birahanee Ubee Path Siri Panthee Bujhe Dhaee.
Ek Sabab Kahee Peev Ka, Kabar Milenge Aaee.


जीवात्मा जो अपने पूर्ण ब्रह्म से बिछड़ चुकी है वह मार्ग के मध्य में खड़ी है और वह आते जाते लोगों से / पथिक से अपने पूर्ण परम ब्रह्म का हाल पूछती रहती है। सतगुर सवाँन को सगा, सोधी सईं न दाति।

हरिजी सवाँन को हितू, हरिजन सईं न जाति॥
Satagur Savaann Ko Saga, Sodhee Saeen Na Daati.
Harijee Savaann Ko Hitoo, Harijan Saeen Na Jaati.

इस संसार में कोई भी निकट सबंधी नहीं है, केवल सतगुरु ही एक सच्चे रखवाले हैं। प्रभु की भक्ति करने वाला कोई ऐसा नहीं है जो गुरु के समान दाता हो। इस संसार में केवल गुरु ही दाता और शिक्षा देने वाला है और कोई नहीं है। 

बलिहारी गुर आपणैं द्यौं हाड़ी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥
Balihaaree Gur Aapanain Dyaun Haadee Kai Baar.
Jini Maanish Tain Devata, Karat Na Laagee Baar.


 गुरु के ज्ञान प्रदान करने और जीवन सफल करने के लिए मैं गुरु के ऊपर सौ सौ बार बलिहारी जाता हूँ। मैं अपने शरीर को सौ सौ बार गुरु पर न्योछावर करता हूँ, जिसने मनुष्य जीवन को देवता के तुल्य बना दिया है। भाव है की गुरु के बताये ज्ञान और मुक्ति मार्ग के कारण मेरा जीवन सफल हो गया है और मैं गुरु को अपना शरीर/जीवन सौ सौ बार अर्पित करता हूँ। इस दोहे में गुरु की महिमा का वर्णन किया गया है की कैसे गुरु के आशीर्वाद के कारण मानव जीवन सफल होता है और तुच्छ व्यक्ति को भी गुरु अपने ज्ञान से देवता के तुल्य बना देता है। मनुष्य जीवन मोह और माया में फँसा रहता है जिसके कारण वह भ्रम वश अपने उद्देश्य के प्रति उदासीन हो जाता है और संसार के व्यर्थ के कार्यों में ही पड़ा रहता है, गुरु ही अपने ज्ञान से उसे भव सागर से निकलने का मार्ग बताते हैं। 

राम नाम के पटतरे, देबे कौ कुछ नाहिं।
क्या ले गुर सन्तोषिए, हौंस रही मन माहिं॥
raam naam ke patatare, debe kau kuchh naahin.
kya le gur santoshie, hauns rahee man maahin.


गुरु ने जो ज्ञान रूपी मन्त्र दिया है, उसके बदले में मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। गुरु को क्या दिया जाए क्योंकि गुरु को देने लायक वस्तुएं नहीं हैं, सांसारिक वस्तुएं तो तुच्छ हैं जो गुरु के ज्ञान के बदले कोई महत्त्व नहीं रखते हैं। भाव है की जीव / साधक मोह और माया के भ्रम में पड़ा रहता है और इस संसार को ही अपना घर मान बैठता है। सतगुरु ही उसे यह शिक्षा देते हैं की यह घर उसका नहीं है, उसका जीवन इस कार्य के लिए नहीं हुआ है जो वह समझ रहा है। इस चेतना के परिणामस्वरूप ही जीव जागता है और अपनी मुक्ति के लिए अग्रसर होता है। साधक के पास इतने अमूल्य ज्ञान के बदले में कुछ भी देने के लिए नहीं है और वह मन ही मन झेंप कर रह जाता है, मन में एक कसक रह जाती है की हमने गुरु को कुछ भी बदले में नहीं दिया है। 

सतगुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ।
कलिकाल हम स्यूँ लड़ि पड़ा महकम मेरा बाछ॥
Satagur Ke Sadakai Karoon, Dil Apanee Ka Saachh.
kalikaalr Ham Syoon Ladi Pada Mahakam Mera Baachh.


साहेब की वाणी है की सतगुरु देव जी के सदके करता हूँ, अपने दिल को साक्षी मान कर गुरुदेव को प्राण न्योछावर करता हूँ। कलिकाल, कलियुग का काल हमसे लड़ रहा है लेकिन हमारे रक्षक तो गुरुदेव हैं, वे ही हमारे रक्षक और सहाय हैं। भाव है की कलियुग में गुरदेव जी का ज्ञान ही हमारे लिए रक्षक बन कर खड़ा रहता है और वही हमारी रक्षा करता है। कलियुग में माया का भ्रम है और वह चारों तरफ फैला हुआ है, इस भ्रम के कारण ही हम इस संसार को स्थाई रूप से अपना घर समझने लग जाते हैं और भूल जाते हैं की अन्य कई जन्मों के उपरात मानव जीवन हरी के सुमिरण के लिए मिला है जिसका रहस्योद्घाटन सदगुरुदेव जी ही करते हैं जिन पर साधक के प्राण भी न्योछावर हैं।
सतगुर लई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर।
एक जु बाह्यां प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर॥
Satagur Laee Kamaann Kari, Baanhan Laaga Teer.
Ek Ju Baahyaan Preeti Soon, Bheetari Rahya Sareer. 
 
सतगुरु देव जी ने अपने हाथों में ज्ञान रूपी धनुष को धारण कर लिया है और वह ज्ञान से प्रेम का बाण चला रहे हैं। एक बाण साधक को भेदकर अन्दर तक चला गया है और हृदय में घर कर गया है। भाव है की गुरु अपने साधक को प्रेम का बाण चलाता है जिससे वह स्थाई रूप से घायल हो जाता है और मोह माया और भ्रम को समझने लग जाता है, हरी के चरणों में अपना ध्यान लगाता है। 
 
सतगुर साँवा सूरिवाँ, सबद जू बाह्या एक।
लागत ही में मिलि गया, पढ़ा कलेजै छेक
Satagur Saanva Soorivaan, Sabad Joo Baahya Ek.
Laagat Hee Mein Mili Gaya, Padha Kalejai Chhek


सद्गुरु सच्चे सूरमा हैं जिन्होंने ज्ञान रूपी शबद बाण को चलाकर साधक को ज्ञान से घायल कर दिया है। यह बाण ज्ञान रूपी शबद का बाण है। सत्गुरुदेव जी का बाण लगते अहम् नष्ट हो गया है और कलेजे में स्थाई रूप से छेक पड गया है, ज्ञान ने अपना स्थान बना लिया है। भाव है की सतगुरु देव जी ही साधक को जीवन के वास्तविक उद्देश्य से परिचित करवाते हैं और साधक को हरी भक्ति के चरणों में लगाए रखते हैं। 

सतगुर मार्‌या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि।
अंगि उघाड़ै लागिया, गई दवा सूँ फूंटि॥
Satagur Maar‌ya Baan Bhari, Dhari Kari Soodhee Moothi.
Angi Ughaadai Laagiya, Gaee Dava Soon Phoonti.


सतगुरु देव जी ने ज्ञान का बाण चलाया है, मूठ (तंत्र शक्ति से मन्त्र मारना ) मारी है जिससे साधक अपना शरीर को उघाड़ कर/वस्त्र को उतारकर फेंकने लगे और इनके शरीर में दावाग्नि सी फूटने लगी है। भाव है की सतगुरु देव जी ने जो ज्ञान दिया है की उसके परिणाम स्वरुप साधक को मोह माया से भ्रम विछिन्न हो गया है।

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1 टिप्पणी

  1. Chinta to har nav ki aur na chinta Das Ji kuchh Chitra mein Ram bin soi kal ke pass