
भोले तेरी भक्ति का अपना ही
हिरदा भीतरि दौ बलै धूंवां प्रगट न होइ मीनिंग Hirada Bhitari Dou Bale Kabir Ke Dohe
हिरदा भीतरि दौ बलै, धूंवां प्रगट न होइ।
Hrida Bhitari Do Bale, Dhua Pragat Na Hoi,
Jaake Laagi So Lakhe, Ke Jihi Laai Soi.
कबीर साहेब इस साखी में हृदय में अनवरत रूप से विरह की दावाग्नि जलती रहती है. इस निरंतर जलने वाली आग का धुआ बाहर किसी को द्रष्टिगोचर नहीं होता है. ईश्वर प्रेम अद्भुद होता है जिसका वर्णन अकथनीय होता है और नितांत ही व्यक्तिगत भी होता है। इसे या तो साधक समझ सकता है या फिर ईश्वर ही। ईश्वर प्रेमी के हृदय में जो दावाग्नि जलती रहती है।
इसका धुआँ बाहर प्रकट नहीं होता है जिससे भाव है की उसका प्रदर्शन, पीड़ा बाहर किसी को पता नहीं चल पाती है। गुरु ही ईश्वर का रूप होता है, अतः इसे गुरु/ईश्वर या भक्त ही जान
सकता है। विरह की पीड़ा को कोई अन्य समझ नहीं सकता है। कबीर साहेब ने इस साखी में भक्ति और विरह को नितांत व्यक्तिगत बताया है।
आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं