ऐसी जालम बजाई मुरलिया मेरी यमुना
ऐसी जालम बजाई मुरलिया मेरी यमुना
मेरी यमुना बह गई गागरिया।
सुध बुध खो गई बावरी हो गई,
कहा हो गई पाओ की पायलिया।
मेरी.......
कभी भागूं इधर, कभी भागूं उधर,
मैं तो भूल गई घर की डगरिया।
मेरी.......
श्याम आजाओ ना, अब तड़पाओ ना,
ऐसी तड़प मैं जल बिन मछरिया।
मेरी.......
श्याम आये वहाँ, बैठी राधा जहाँ,
मिल के रास रचाए सावरिया।
मेरी.......
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जब प्रेम अपनी चरम अवस्था को प्राप्त करता है, तो वह साधक के मन, बुद्धि और चेतना को पूरी तरह अपने वश में कर लेता है। यह प्रेम सांसारिक सीमाओं से परे, आत्मा की गहराइयों तक उतर जाता है, जहाँ न कोई तर्क बचता है, न कोई भय, न ही कोई संकोच। ऐसे में प्रिय के एक संकेत, एक मधुर स्मृति या उसकी अनुपस्थिति भी साधक के भीतर एक अनोखी तड़प और बेचैनी भर देती है। यह तड़प साधारण दुख नहीं, बल्कि आत्मा की परम उत्कंठा है, जो उसे अपने प्रिय की ओर बार-बार खींचती है। जीवन की सारी दिशाएँ, सारी राहें और सारी पहचानें उसी एक मिलन की चाह में विलीन हो जाती हैं।
इस अवस्था में साधक का मन हर क्षण अपने प्रिय के स्मरण में डूबा रहता है, और उसकी सारी क्रियाएँ, विचार और भावनाएँ उसी के इर्द-गिर्द घूमती हैं। यह विरह और तड़प, साधक को भीतर से शुद्ध और निर्मल बना देती है, क्योंकि उसमें अब केवल मिलन की प्यास, समर्पण और प्रेम की गूंज रह जाती है। जब यह प्रेम अपने चरम पर पहुँचता है, तो साधक को संसार की कोई भी वस्तु, सुख या उपलब्धि आकर्षित नहीं करती—उसके लिए बस एक ही अभिलाषा शेष रह जाती है: अपने प्रिय के दर्शन और मिलन की। यही विरह, यही तड़प, अंततः आत्मा को परमात्मा से एकाकार कर देती है, और जीवन को दिव्य आनंद से भर देती है।
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Author - Saroj Jangir
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