शिक्षक दिवस पर कबीर के दोहे अर्थ सहित Shikshak Diwas Par Kabir Dohe
गुरु (शिक्षक) और शिष्य (छात्र) का सम्बन्ध अत्यंत ही प्राचीन समय से आदर का सम्बन्ध रहा है। कबीर साहेब ने शिष्य की मर्यादा और दायित्व का जहां विस्तार से वर्णन किया है वहीँ पर गुरु के लक्षण और महत्त्व को भी समझाया है, टीचर्स डे पर कबीर साहेब के कुछ दोहे अर्थ सहित निचे दिए गए हैं।गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥
व्याख्या: कबीर साहेब इस दोहे में सन्देश देते हैं की गुरु के महत्त्व को समझते हुए गुरु से ज्ञान लेना चाहिए। शीश देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। शीश से आशय स्वंय के अभिमान को त्यागकर, स्वंय के अहम को छोड़कर गुरु के ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए। बहुत से भोंदू/मूर्ख अपने अहम को नहीं छोड़ते हैं ऐसे में वे भव सागर की धारा में बह गए। अतः किताबी ज्ञान के अतिरिक्त गुरु की शिक्षाओं को अपने आचरण में उतारना चाहिए।
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥
व्याख्या: गुरु के आदेशों का पूर्णता से पालन करना चाहिए। गुरु की आज्ञा से आना चाहिए, गुरु की आज्ञा से जाना चाहिए। कबीर साहेब कहते हैं की वही संत स्वभाव का साधक है और ऐसे शिष्य का आवागमन मिट जाता है। आशय है की गुरु के निर्देशों की पालना करने वाला साधक जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर अमरापुर में स्थान पाता है।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥
व्याख्या: गुरु साहेब की अनंत महिमा है की गुरु और पारस पत्थर में अंतर है, भेद है। गुरु और पारस के मध्य में जो अंतर है वह सभी संत जानते हैं। पारस पत्थर लोहे को स्वर्ण बना देता है और ऐसे ही गुरु अपने शिष्य को ज्ञानी और अपने समान महान बना देते हैं। अतः गुरु साधक के समस्त अवगुण दूर करके उसे ज्ञानी बना देते हैं।
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥
व्याख्या: गुरु की महिमा है की वह साधक के समस्त अवगुणों को करता है। कुमति/दुर्बुद्धि के कीचड़ से शिष्य (चेला) भरा पड़ा है, उसे गुरु अपने ज्ञान रूपी जल से धो देता है। गुरु ही अपने ज्ञान से शिष्य के अवगुणों को दूर करता है। अनेकों जन्म के अवगुण गुरु साहेब पल में ही धो डालते हैं।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
व्याख्या: गुरु अपने शिष्य के अवगुणों को दूर करके उसे एक आकार में ढालता है और अच्छाइयों को उभारता है। गुरु कुम्भकार (बर्तन बनाने वाला ) शिष्य को घड़े की भाँती आकार देता है जैसे कुम्भकार कच्ची मिटटी से घड़ा बनाते समय अंदर से हाथ का सहारा देकर ऊपर से चोट देकर उसे घड़े का आकार देता है। ऐसे ही गुरु शिष्य को सहारा भी देता है और ज्ञान रूपी चोट से उसे अवगुण भी दूर करता है।
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥
व्याख्या: गुरु ही महान दाता है और शिष्य याचक (मांगने वाला ) है। तीनों लोकों की सम्पदा को गुरु शिष्य को दान में दे देते हैं। गुरु अपने अमूल्य ज्ञान को शिष्य को दान स्वरुप दे देते हैं, ज्ञान रूपी अमूल्य प्रदार्थ को गुरु अपने शिष्य को देते हैं।
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥
व्याख्या: गुरु को सर्वोच्च मानना चाहिए और उनकी आज्ञा में ही चलना चाहिए। कबीर साहेब कहते हैं की ऐसा शिष्य जो गुरु को सरमौर रखते हैं उनको तीनों लोकों का भी नहीं होता है। गुरु के सानिध्य में साधक के समस्त अवगुण दूर होते हैं और वह माया के भरम से मुक्त होता है।
गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥
व्याख्या: साधक को सदा ही अपने गुरु के प्रति समर्पित होना चाहिए। गुरु से प्रीत का निर्वहन करना चाहिए। जैसे भी संत से निभे, निभाना चाहिए। यदि साधक प्रेम से रहित है तो वह निकट होकर भी दूर ही है। यदि प्रेम है तो दूर होने पर भी साधक निकट ही होता है। आशय है की प्रेम भाव अत्यंत ही आवश्यक है।
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥
व्याख्या: गुरु के सम्बन्ध में कबीर साहेब का कथन है की गुरु की मूर्ति चन्द्रमा के सादृश्य है। सेवक के नेत्र / आँखें चकोर पक्षी के जैसे हैं। आठों पहर शिष्य अपने गुरु की तरफ देखता रहता है। आशय है की शिष्य को चाहिए की वह आठों पहर अपने गुरु का ध्यान करे, उसी की आज्ञा का पालन करे।
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥
व्याख्या: गुरु मूर्ति सामने खड़ी है और उसमे कोई भेद नहीं है कोई शंका नहीं है। दतिया से आशय दोयम या भेद से है। गुरु मूर्ति को प्रणाम करने से समस्त अज्ञान रूपी अन्धकार मिट जाता है।
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥
व्याख्या: गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कबीर साहेब कहते हैं की ज्ञान, संत समागम, प्रेम और दया का भाव, भक्ति आदि सभी गुरु की सेवा से ही प्राप्त किये जा सकते हैं। सद्गुरु के चरणों में रहने से ही गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
व्याख्या: गुरु की महिमा शब्दातीत है जिसके सम्बन्ध में कबीर साहेब कहते हैं की धरती को कागज बना लिया जाय, समस्त वन के वृक्षों की लकड़ी बना ली जाए और सातों समुद्र की स्याही बना कर भी यदि हरी गुण लिखने का प्रयास किया जाए तो भी हरी के गुणों का वर्णन सम्भव नहीं है। आशय है की गुरु के गुण अत्यंत ही महान हैं, जिन्हे शब्दों में नहीं कहा जा सकता है। गुरु ही है जो साधक को निश्चित आकार देता है, उसके अवगुणों को दूर करता है और उसे भक्ति मार्ग पर अग्रसर करता है, अतः गुरु की महिमा को कहा नहीं जा सकता है।
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥
व्याख्या: गुरु के अभाव में ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, इसके सम्बन्ध में कबीर साहेब का कथन है की पंडित (किताबी ज्ञान रखने वाले ) पढ़ पढ़ कर मर गए हैं लेकिन गुरु के बिना ज्ञान / शिक्षा को प्राप्त नहीं किया जा सका है। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती है। अतः गुरु के शब्द को ही प्रणाम करना चाहिए।
कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥
व्याख्या: भरम और अहम को छोड़कर मासूम बनकर छोटे बच्चे की भाँती गुरु के ज्ञान रूपी दूध का पान करो। अहम का त्याग करके गुरु के चरणों में रहो जिससे यम के प्रभाव से जीव बच सकता है।
सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥
व्याख्या: गुरु से निबाह करने में जो भी कियाएं करनी पड़े करनी चाहिए। वैसे वैसे नाचो जिससे गुरु प्रेम का निबाह हो सके। गुरु से प्रेम के अभाव में कहीं भी कुशल और क्षेम नहीं है, कहीं भला नहीं होने वाला है।
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥
व्याख्या: शिष्य के हृदय में / चित्त में जब प्रेम बढ़ जाता है तो उसे देखकर गुरु प्रिय वचन कहता है। अतः गुरु के सन्मुख रहना चाहिए और गुरु से विमुख नहीं होना चाहिए। पीठ देने से आशय है गुरु को अनदेखा करना, विमुख हो जाना।
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥
व्याख्या: माता पिता अपने निर्बुधि-बुद्धिमान/ बुद्धिमान और मूर्ख, सभी बच्चों का पालन पोषण करते हैं। ऐसे ही गुरु अपने शिष्य को मर्यादा की चाल से निभाते हैं।
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥
व्याख्या: गुरु ज्ञान के सम्बन्ध में साहेब का कथन है की गुरु ही अज्ञानता को दूर करने वाले हैं। ज्ञान का अंजन लगाकर वे शिष्य/छात्र के सभी अवगुणों को / दोष को दूर करते हैं। ऐसे गुरु को न्योछावर है, नमन है जो हंस रूपी जीवात्मा को भव से उबार लेते हैं।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
व्याख्या: गुरु की महिमा शब्दातीत है जिसके सम्बन्ध में कबीर साहेब कहते हैं की धरती को कागज बना लिया जाय, समस्त वन के वृक्षों की लकड़ी बना ली जाए और सातों समुद्र की स्याही बना कर भी यदि हरी गुण लिखने का प्रयास किया जाए तो भी हरी के गुणों का वर्णन सम्भव नहीं है। आशय है की गुरु के गुण अत्यंत ही महान हैं, जिन्हे शब्दों में नहीं कहा जा सकता है। गुरु ही है जो साधक को निश्चित आकार देता है, उसके अवगुणों को दूर करता है और उसे भक्ति मार्ग पर अग्रसर करता है, अतः गुरु की महिमा को कहा नहीं जा सकता है।
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥
व्याख्या: गुरु के अभाव में ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, इसके सम्बन्ध में कबीर साहेब का कथन है की पंडित (किताबी ज्ञान रखने वाले ) पढ़ पढ़ कर मर गए हैं लेकिन गुरु के बिना ज्ञान / शिक्षा को प्राप्त नहीं किया जा सका है। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती है। अतः गुरु के शब्द को ही प्रणाम करना चाहिए।
कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥
व्याख्या: भरम और अहम को छोड़कर मासूम बनकर छोटे बच्चे की भाँती गुरु के ज्ञान रूपी दूध का पान करो। अहम का त्याग करके गुरु के चरणों में रहो जिससे यम के प्रभाव से जीव बच सकता है।
सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥
व्याख्या: गुरु से निबाह करने में जो भी कियाएं करनी पड़े करनी चाहिए। वैसे वैसे नाचो जिससे गुरु प्रेम का निबाह हो सके। गुरु से प्रेम के अभाव में कहीं भी कुशल और क्षेम नहीं है, कहीं भला नहीं होने वाला है।
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥
व्याख्या: शिष्य के हृदय में / चित्त में जब प्रेम बढ़ जाता है तो उसे देखकर गुरु प्रिय वचन कहता है। अतः गुरु के सन्मुख रहना चाहिए और गुरु से विमुख नहीं होना चाहिए। पीठ देने से आशय है गुरु को अनदेखा करना, विमुख हो जाना।
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥
व्याख्या: माता पिता अपने निर्बुधि-बुद्धिमान/ बुद्धिमान और मूर्ख, सभी बच्चों का पालन पोषण करते हैं। ऐसे ही गुरु अपने शिष्य को मर्यादा की चाल से निभाते हैं।
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥
व्याख्या: गुरु ज्ञान के सम्बन्ध में साहेब का कथन है की गुरु ही अज्ञानता को दूर करने वाले हैं। ज्ञान का अंजन लगाकर वे शिष्य/छात्र के सभी अवगुणों को / दोष को दूर करते हैं। ऐसे गुरु को न्योछावर है, नमन है जो हंस रूपी जीवात्मा को भव से उबार लेते हैं।
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥
व्याख्या: साबुन क्या कर सकता है, यदि उसे गाँठ में बांधकर रखा जाय ? जल से स्पर्श नहीं करने पर कपड़ा कैसे शुद्ध/उज्ज्वल हो सकता है, मैल दूर हो सकता है ? अतः गुरु ज्ञान को अपने आचरण में शामिल करना चाहिए, तभी कल्याण होने वाला है।
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥
व्याख्या: साबुन क्या कर सकता है, यदि उसे गाँठ में बांधकर रखा जाय ? जल से स्पर्श नहीं करने पर कपड़ा कैसे शुद्ध/उज्ज्वल हो सकता है, मैल दूर हो सकता है ? अतः गुरु ज्ञान को अपने आचरण में शामिल करना चाहिए, तभी कल्याण होने वाला है।
राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥
व्याख्या: राजा की चोरी करके कोई दरिद्र/गरीब की शरण में कैसे जा सकता है। राजा शक्तिशाली होता गरीब कमजोर। ऐसे में काल की कठिन चोट से कोई कैसे बच सकता है। आशय है की काल के प्रभाव से ईश्वर की भक्ति और गुरु की शरण में रहने से ही सम्भव है।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥
व्याख्या: राजा की चोरी करके कोई दरिद्र/गरीब की शरण में कैसे जा सकता है। राजा शक्तिशाली होता गरीब कमजोर। ऐसे में काल की कठिन चोट से कोई कैसे बच सकता है। आशय है की काल के प्रभाव से ईश्वर की भक्ति और गुरु की शरण में रहने से ही सम्भव है।
शिक्षक दिवस : शिक्षक दिवस का आयोजन भारत में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन के रूप में होता है, जो 5 सितंबर को मनाया जाता है। इस दिन के महत्व को समझते हुए, शिक्षकों को सम्मान और आदर्शता के साथ याद किया जाता है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने जीवन में शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया और उन्हें भारतीय समाज में एक आदर्श शिक्षाविद् और विचारक के रूप में स्थापित किया गया।
शिक्षक दिवस पर विभिन्न कार्यक्रम और समारोह आयोजित किए जाते हैं, जिनमें विद्यालयों और कॉलेजों में छात्र-छात्राएं अपने शिक्षकों को सम्मानित करते हैं। शिक्षा से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत और पूर्व-शिक्षकों को भी याद किया जाता है। शिक्षक दिवस का उद्देश्य शिक्षकों के महत्वपूर्ण योगदान को मान्यता देना और उन्हें समर्थन और प्रेरणा प्रदान करना है। इस दिन के माध्यम से समाज में शिक्षा के महत्व को बढ़ावा दिया जाता है और लोगों को शिक्षा के प्रति आदर्श भावना से प्रेरित किया जाता है।
शिक्षक दिवस पर विभिन्न कार्यक्रम और समारोह आयोजित किए जाते हैं, जिनमें विद्यालयों और कॉलेजों में छात्र-छात्राएं अपने शिक्षकों को सम्मानित करते हैं। शिक्षा से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत और पूर्व-शिक्षकों को भी याद किया जाता है। शिक्षक दिवस का उद्देश्य शिक्षकों के महत्वपूर्ण योगदान को मान्यता देना और उन्हें समर्थन और प्रेरणा प्रदान करना है। इस दिन के माध्यम से समाज में शिक्षा के महत्व को बढ़ावा दिया जाता है और लोगों को शिक्षा के प्रति आदर्श भावना से प्रेरित किया जाता है।
उल्लेखनीय है की शिक्षक दिवस लगभग हम सब के लिए बेहद खास होता है क्योंकि, हर किसी के जिंदगी में कोई न कोई एक ऐसा व्यक्ति जरूर होता है जो प्रिय गुरु यानि शिक्षक होता है, जिसको हम ताउम्र याद रखते हैं। शिक्षक दिवस 5 सितंबर को मनाया जाता है क्योंकि कि 5 सितंबर को भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन (Dr.Sarvepalli Radhakrishna) का जन्म हुआ था। उसी उपलक्ष्य में देश में इस दिन शिक्षक दिवस मनाया जाता है।