महाभिक्षु महेन्द्र की शिक्षाप्रद कहानी MahaBhikshu Mahaend Ki Kahani
सम्राट अशोक ने जब कलिंग पर आक्रमण किया, तब उसकी सेना ने एक लाख से अधिक लोगों की हत्या कर दी। युद्ध का मैदान लाशों से भर गया, और घायल लोगों की चीख-पुकार ने अशोक का दिल द्रवित कर दिया। उसे महसूस हुआ कि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए उसने कितना विनाश कर डाला। यह सोचते हुए उसे एहसास हुआ कि लोगों की हत्या कर किसी भूमि पर अधिकार पाना कोई सच्ची विजय नहीं है। असली विजय तो आत्मा में है, और यह आत्मिक विजय ही किसी का वास्तविक अधिकार हो सकता है।
यही विचार आते ही अशोक ने शस्त्रों का इस्तेमाल न करने और लोक सेवा, दया और धर्म के मार्ग पर चलने का संकल्प लिया। उसने अपनी शक्ति को जनकल्याण के कार्यों में समर्पित कर दिया। समय के साथ, विद्वान और संतों ने उसे ‘प्रियदर्शी’ और ‘देवताओं का प्रिय’ जैसे संबोधन दिए। अशोक का यह बदलाव उसके पुत्र महेन्द्र पर भी असर डालने लगा।
महल में आने वाले भिक्षुओं की साधना और उनकी गंभीर वाणी से महेन्द्र प्रभावित होता रहा। एक दिन उसने पीत वस्त्र धारण किए भिक्षु के बारे में अपने पिता से पूछा। अशोक ने बताया कि ये महान भिक्षु महास्थविर मोग्गालि पुत्र पुत्तत्तिस हैं, जो पूरी निष्ठा से धर्म का प्रचार कर रहे हैं। महेन्द्र ने धर्म का सच्चा अनुयायी बनने की इच्छा जताई, पर अशोक ने पुत्र मोह में उसे मना कर दिया। महेन्द्र ने फिर भी अपने संकल्प को नहीं छोड़ा और सिद्धांतों के प्रति उसकी निष्ठा ने उसे माता-पिता को भी चकित कर दिया।
महल में आने वाले भिक्षुओं की साधना और उनकी गंभीर वाणी से महेन्द्र प्रभावित होता रहा। एक दिन उसने पीत वस्त्र धारण किए भिक्षु के बारे में अपने पिता से पूछा। अशोक ने बताया कि ये महान भिक्षु महास्थविर मोग्गालि पुत्र पुत्तत्तिस हैं, जो पूरी निष्ठा से धर्म का प्रचार कर रहे हैं। महेन्द्र ने धर्म का सच्चा अनुयायी बनने की इच्छा जताई, पर अशोक ने पुत्र मोह में उसे मना कर दिया। महेन्द्र ने फिर भी अपने संकल्प को नहीं छोड़ा और सिद्धांतों के प्रति उसकी निष्ठा ने उसे माता-पिता को भी चकित कर दिया।
महास्थविर के मार्गदर्शन में महेन्द्र ने चार वर्षों तक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन किया। 20 वर्ष की आयु में महेन्द्र ने भिक्षु बनने का मार्ग अपनाया, और उसकी बहन संघमित्रा भी उसके साथ धर्म प्रचार में जुट गईं। दोनों ने भारत की सीमाओं के बाहर भी बौद्ध धर्म का प्रचार किया और सिंहल (अब श्रीलंका) का रुख किया।
सिंहल की यात्रा आसान नहीं थी, लेकिन महेन्द्र और संघमित्रा ने कठिनाइयों को पार करते हुए अपनी यात्रा पूरी की। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान बुद्ध की वाणी का प्रचार किया और लोगों को अहिंसा व करुणा का मार्ग दिखाया। सिंहल के राजा तिष्य भी उनके शिष्य बने और बौद्ध धर्म को अपनाया। राजा ने उन्हें अपने दरबार में रहने का निमंत्रण दिया, लेकिन महेन्द्र ने तपस्वी जीवन का मार्ग चुना और धर्म के प्रचार के लिए गाँव-गाँव गए।
महाभिक्षु महेन्द्र ने बौद्ध मठों और विहारों में सुधार के लिए आवश्यक कदम उठाए। उन्होंने समाज को धर्म के प्रति जागरूक किया और भिक्षुओं को उनके कर्तव्यों का महत्व समझाया। महेन्द्र के द्वारा किए गए इन सुधारों से लोगों की बौद्ध धर्म में आस्था और गहरी हुई।
महाभिक्षु महेन्द्र ने अपने जीवन का आधा हिस्सा सिंहल वासियों की सेवा में बिताया। 60 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने जीवन का अंतिम वर्ष अनुराधापुर में बिताया और यहीं उनका देहांत हुआ। उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी शिक्षाएँ और त्यागमय जीवन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहे।
आज भी महेन्द्र द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म श्रीलंका का प्रमुख धर्म है। अनुराधापुर में लाखों लोग उनकी स्मृति में श्रद्धा सुमन अर्पित करने आते हैं। सम्राट अशोक के अन्य पुत्रों की तरह महेन्द्र ने राज्य सिंहासन का मोह नहीं किया और अपने त्याग और आदर्शों के कारण इतिहास में अमर हो गए।
सिंहल की यात्रा आसान नहीं थी, लेकिन महेन्द्र और संघमित्रा ने कठिनाइयों को पार करते हुए अपनी यात्रा पूरी की। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान बुद्ध की वाणी का प्रचार किया और लोगों को अहिंसा व करुणा का मार्ग दिखाया। सिंहल के राजा तिष्य भी उनके शिष्य बने और बौद्ध धर्म को अपनाया। राजा ने उन्हें अपने दरबार में रहने का निमंत्रण दिया, लेकिन महेन्द्र ने तपस्वी जीवन का मार्ग चुना और धर्म के प्रचार के लिए गाँव-गाँव गए।
महाभिक्षु महेन्द्र ने बौद्ध मठों और विहारों में सुधार के लिए आवश्यक कदम उठाए। उन्होंने समाज को धर्म के प्रति जागरूक किया और भिक्षुओं को उनके कर्तव्यों का महत्व समझाया। महेन्द्र के द्वारा किए गए इन सुधारों से लोगों की बौद्ध धर्म में आस्था और गहरी हुई।
महाभिक्षु महेन्द्र ने अपने जीवन का आधा हिस्सा सिंहल वासियों की सेवा में बिताया। 60 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने जीवन का अंतिम वर्ष अनुराधापुर में बिताया और यहीं उनका देहांत हुआ। उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी शिक्षाएँ और त्यागमय जीवन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहे।
आज भी महेन्द्र द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म श्रीलंका का प्रमुख धर्म है। अनुराधापुर में लाखों लोग उनकी स्मृति में श्रद्धा सुमन अर्पित करने आते हैं। सम्राट अशोक के अन्य पुत्रों की तरह महेन्द्र ने राज्य सिंहासन का मोह नहीं किया और अपने त्याग और आदर्शों के कारण इतिहास में अमर हो गए।
धर्म की सूक्ष्म गति पर शिक्षाप्रद कहानी Motivational Story Dharma Ki Sukshma Gati
कश्मीर में महाराज यशस्करदेव का शासन था, जो धर्म, सत्य, और न्याय की नींव पर आधारित था। महाराज हमेशा प्रजा के भले की सोचते और किसी भी अन्याय को सहन नहीं करते थे। एक दिन, जब वे संध्या वंदन के बाद भोजन करने ही जा रहे थे, तभी द्वारपाल ने आकर बताया कि एक ब्राह्मण राजद्वार पर आमरण अनशन पर बैठा है। यह सुन महाराज ने भोजन का विचार छोड़कर तुरंत बाहर जाने का निश्चय किया।
बाहर पहुँचने पर महाराज ने ब्राह्मण को दुखी देखा और उनका हृदय करुणा से भर गया। ब्राह्मण ने कहा, “महाराज! आपके राज्य में अन्याय का बोलबाला हो रहा है। प्रजा अधर्म को ही अपना सुख मान रही है। यदि आप न्याय नहीं करेंगे, तो यह राजद्वार मेरी समाधि का स्थान बन जाएगा।”
महाराज ने विनम्रता से कहा, “ब्राह्मण देवता! आपके कहने का आशय मुझे समझ नहीं आ रहा। मुझे अपने न्याय-विधान पर भरोसा है। आप अपनी बात कहिए, मैं आपकी समस्या समझना चाहता हूँ।”
ब्राह्मण ने अपनी कहानी बतानी शुरू की, “महाराज, मैं विदेश में कमाने गया था और वहां से सौ स्वर्ण मुद्राएँ कमा कर आपके राज्य में आया। मार्ग में थकान के कारण लवणोत्स गाँव के पास एक वृक्ष के नीचे सो गया। वहाँ अंधेरे में मुझे पता नहीं चला, पर मेरे सोने की जगह के पास एक कुआँ था, जिसमें मेरी स्वर्ण मुद्राओं की गठरी गिर गई। जब सुबह हुई, मैंने उस कुएँ में कूदकर अपनी जान देने का सोचा क्योंकि मेरी मेहनत की कमाई खो गई थी। तभी गाँव के लोग वहाँ आ गए। उनमें से एक व्यक्ति ने कहा, ‘अगर मैं तुम्हारी गठरी निकाल दूं, तो क्या दोगे?’”
ब्राह्मण ने जवाब दिया, “उस धन पर अब मेरा अधिकार ही क्या रह गया है। तुम्हें जो उचित लगे, वह दे देना।”
उस व्यक्ति ने कुएँ से गठरी निकाल ली और मुझे केवल दो मुद्राएँ दीं। मैंने इसका विरोध किया, तो उसने कहा कि महाराज यशस्करदेव के राज्य में व्यवहार लोगों की वचनबद्धता पर चलते हैं। मेरे वचन का फायदा उठाकर उसने मेरी मेहनत की कमाई रख ली, जो कि अन्याय है।”
महाराज यशस्करदेव ने ब्राह्मण की पूरी बात सुनी और कहा कि इस मामले का निर्णय कल किया जाएगा। उन्होंने ब्राह्मण को अपने साथ भोजन करने के लिए बुला लिया।
अगले दिन, महाराज ने लवणोत्स गाँव के लोगों को राजमहल में बुलाया। वहाँ ब्राह्मण ने उस व्यक्ति को भी पहचाना जिसने उसकी पोटली निकाली थी। महाराज यशस्करदेव ने उस व्यक्ति से घटना के बारे में पूछा, तो उसने सच स्वीकार करते हुए कहा, “महाराज! ब्राह्मण ने जो कुछ कहा वह सत्य है। मैंने वचन के अनुसार ही उसे दो मुद्राएँ दीं।”
महाराज ने गंभीर होकर कुछ समय विचार किया और फिर कहा, “98 मुद्राएँ ब्राह्मण को वापस दी जाएँ और दो मुद्राएँ पोटली निकालने वाले की होंगी।” यह सुनकर वहाँ उपस्थित लोग हैरान रह गए।
महाराज ने आगे समझाया, “ब्राह्मण ने कहा था कि जो ठीक लगे, वह दो। इस व्यक्ति को अपने लिए 98 मुद्राएँ ठीक लगीं, परंतु न्याय और धर्म के अनुसार वह धन ब्राह्मण का है।”
महाराज के इस निर्णय को सुनकर सभा भवन में जयजयकार गूंज उठी। यशस्करदेव का यह निर्णय दर्शाता है कि सच्चा धर्म और न्याय कैसे किसी भी राज्य के स्तंभ बनते हैं।
इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि न्याय और धर्म का पालन किसी भी परिस्थिति में आवश्यक होता है। चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, सच और धर्म की राह पर चलते हुए किसी का हक नहीं मारना चाहिए।
बाहर पहुँचने पर महाराज ने ब्राह्मण को दुखी देखा और उनका हृदय करुणा से भर गया। ब्राह्मण ने कहा, “महाराज! आपके राज्य में अन्याय का बोलबाला हो रहा है। प्रजा अधर्म को ही अपना सुख मान रही है। यदि आप न्याय नहीं करेंगे, तो यह राजद्वार मेरी समाधि का स्थान बन जाएगा।”
महाराज ने विनम्रता से कहा, “ब्राह्मण देवता! आपके कहने का आशय मुझे समझ नहीं आ रहा। मुझे अपने न्याय-विधान पर भरोसा है। आप अपनी बात कहिए, मैं आपकी समस्या समझना चाहता हूँ।”
ब्राह्मण ने अपनी कहानी बतानी शुरू की, “महाराज, मैं विदेश में कमाने गया था और वहां से सौ स्वर्ण मुद्राएँ कमा कर आपके राज्य में आया। मार्ग में थकान के कारण लवणोत्स गाँव के पास एक वृक्ष के नीचे सो गया। वहाँ अंधेरे में मुझे पता नहीं चला, पर मेरे सोने की जगह के पास एक कुआँ था, जिसमें मेरी स्वर्ण मुद्राओं की गठरी गिर गई। जब सुबह हुई, मैंने उस कुएँ में कूदकर अपनी जान देने का सोचा क्योंकि मेरी मेहनत की कमाई खो गई थी। तभी गाँव के लोग वहाँ आ गए। उनमें से एक व्यक्ति ने कहा, ‘अगर मैं तुम्हारी गठरी निकाल दूं, तो क्या दोगे?’”
ब्राह्मण ने जवाब दिया, “उस धन पर अब मेरा अधिकार ही क्या रह गया है। तुम्हें जो उचित लगे, वह दे देना।”
उस व्यक्ति ने कुएँ से गठरी निकाल ली और मुझे केवल दो मुद्राएँ दीं। मैंने इसका विरोध किया, तो उसने कहा कि महाराज यशस्करदेव के राज्य में व्यवहार लोगों की वचनबद्धता पर चलते हैं। मेरे वचन का फायदा उठाकर उसने मेरी मेहनत की कमाई रख ली, जो कि अन्याय है।”
महाराज यशस्करदेव ने ब्राह्मण की पूरी बात सुनी और कहा कि इस मामले का निर्णय कल किया जाएगा। उन्होंने ब्राह्मण को अपने साथ भोजन करने के लिए बुला लिया।
अगले दिन, महाराज ने लवणोत्स गाँव के लोगों को राजमहल में बुलाया। वहाँ ब्राह्मण ने उस व्यक्ति को भी पहचाना जिसने उसकी पोटली निकाली थी। महाराज यशस्करदेव ने उस व्यक्ति से घटना के बारे में पूछा, तो उसने सच स्वीकार करते हुए कहा, “महाराज! ब्राह्मण ने जो कुछ कहा वह सत्य है। मैंने वचन के अनुसार ही उसे दो मुद्राएँ दीं।”
महाराज ने गंभीर होकर कुछ समय विचार किया और फिर कहा, “98 मुद्राएँ ब्राह्मण को वापस दी जाएँ और दो मुद्राएँ पोटली निकालने वाले की होंगी।” यह सुनकर वहाँ उपस्थित लोग हैरान रह गए।
महाराज ने आगे समझाया, “ब्राह्मण ने कहा था कि जो ठीक लगे, वह दो। इस व्यक्ति को अपने लिए 98 मुद्राएँ ठीक लगीं, परंतु न्याय और धर्म के अनुसार वह धन ब्राह्मण का है।”
महाराज के इस निर्णय को सुनकर सभा भवन में जयजयकार गूंज उठी। यशस्करदेव का यह निर्णय दर्शाता है कि सच्चा धर्म और न्याय कैसे किसी भी राज्य के स्तंभ बनते हैं।
इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि न्याय और धर्म का पालन किसी भी परिस्थिति में आवश्यक होता है। चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, सच और धर्म की राह पर चलते हुए किसी का हक नहीं मारना चाहिए।
गौतम बुद्ध और चौथी पत्नी की कहानी सच्चे साथ का अर्थ
गौतम बुद्ध ने एक बार कहा था कि जीवन के अंत में केवल “चौथी पत्नी” ही साथ देती है। इस कथन के पीछे एक गहरी और शिक्षाप्रद कहानी है, जो हमें जीवन के असली साथियों और उनकी सीमाओं को समझने का संदेश देती है। यह कहानी बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों में से एक है, जो वैशाख पूर्णिमा (बुद्ध पूर्णिमा) पर सुनाई जाती थी।
इस कहानी में एक आदमी था, जिसने चार पत्नियां रखी थीं। प्राचीन काल में पुरुष कई पत्नियां रख सकते थे, और इस आदमी की भी चार पत्नियां थीं। एक दिन वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया, और उसे अपनी मृत्यु निकट लगने लगी। उस समय उसने अपनी चारों पत्नियों को बुलाया और उनसे अनुरोध किया कि वे उसके साथ मृत्यु के बाद भी चलें।
पहली पत्नी, जिसे उसने सबसे अधिक प्रेम किया था, ने कहा, “मुझे पता है कि तुम मुझसे प्यार करते हो, लेकिन मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती। अलविदा, प्रिय।” यह सुनकर व्यक्ति को गहरा धक्का लगा, क्योंकि उसने जीवनभर उसी को सबसे अधिक महत्व दिया था।
दूसरी पत्नी ने कहा, “यदि पहली पत्नी ही तुम्हारे साथ नहीं जा रही, तो मैं कैसे जा सकती हूं?” इस जवाब से उसे और भी निराशा हुई।
तीसरी पत्नी ने थोड़ा सहानुभूति के साथ कहा, “मुझे तुम्हारे लिए दुख है, इसलिए मैं तुम्हारे अंतिम संस्कार तक तुम्हारे साथ रहूंगी, लेकिन इसके आगे नहीं।” उसने यह वादा किया कि वह अंतिम क्षण तक साथ रहेगी, लेकिन उससे आगे नहीं बढ़ पाएगी।
चौथी पत्नी, जिसके साथ वह हमेशा एक दासी की तरह व्यवहार करता था, उसने उसके प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया। उसने कहा, “मैं तुम्हारे साथ जाऊंगी, चाहे कुछ भी हो जाए। मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ सकती।” व्यक्ति को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह पत्नी, जिसे उसने सबसे कम महत्व दिया था, उसके जीवन के सबसे कठिन समय में उसके साथ चलने के लिए तैयार थी।
इस कहानी में एक आदमी था, जिसने चार पत्नियां रखी थीं। प्राचीन काल में पुरुष कई पत्नियां रख सकते थे, और इस आदमी की भी चार पत्नियां थीं। एक दिन वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया, और उसे अपनी मृत्यु निकट लगने लगी। उस समय उसने अपनी चारों पत्नियों को बुलाया और उनसे अनुरोध किया कि वे उसके साथ मृत्यु के बाद भी चलें।
पहली पत्नी, जिसे उसने सबसे अधिक प्रेम किया था, ने कहा, “मुझे पता है कि तुम मुझसे प्यार करते हो, लेकिन मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती। अलविदा, प्रिय।” यह सुनकर व्यक्ति को गहरा धक्का लगा, क्योंकि उसने जीवनभर उसी को सबसे अधिक महत्व दिया था।
दूसरी पत्नी ने कहा, “यदि पहली पत्नी ही तुम्हारे साथ नहीं जा रही, तो मैं कैसे जा सकती हूं?” इस जवाब से उसे और भी निराशा हुई।
तीसरी पत्नी ने थोड़ा सहानुभूति के साथ कहा, “मुझे तुम्हारे लिए दुख है, इसलिए मैं तुम्हारे अंतिम संस्कार तक तुम्हारे साथ रहूंगी, लेकिन इसके आगे नहीं।” उसने यह वादा किया कि वह अंतिम क्षण तक साथ रहेगी, लेकिन उससे आगे नहीं बढ़ पाएगी।
चौथी पत्नी, जिसके साथ वह हमेशा एक दासी की तरह व्यवहार करता था, उसने उसके प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया। उसने कहा, “मैं तुम्हारे साथ जाऊंगी, चाहे कुछ भी हो जाए। मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ सकती।” व्यक्ति को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह पत्नी, जिसे उसने सबसे कम महत्व दिया था, उसके जीवन के सबसे कठिन समय में उसके साथ चलने के लिए तैयार थी।
गौतम बुद्ध ने इस कहानी के माध्यम से यह सिखाया कि असली साथ देने वाला हमारा मन और चेतना ही है। हम अपने कर्मों के प्रभाव से कभी पीछा नहीं छुड़ा सकते। हमारे द्वारा किए गए अच्छे और बुरे कर्म ही हमारे सच्चे साथी होते हैं, जो हमेशा हमारे साथ रहते हैं।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि बाहरी चीजों, संपत्ति, और रिश्तों से अधिक महत्व अपने मन और आत्मा को देना चाहिए। हमें अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि यही हमारे सच्चे साथी हैं। बुद्ध ने यह सिखाया कि सच्चा सुख और शांति हमारे कर्मों में ही है, और केवल सही कर्म ही हमें जीवन के अंत में सच्चा साथ देते हैं।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि बाहरी चीजों, संपत्ति, और रिश्तों से अधिक महत्व अपने मन और आत्मा को देना चाहिए। हमें अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि यही हमारे सच्चे साथी हैं। बुद्ध ने यह सिखाया कि सच्चा सुख और शांति हमारे कर्मों में ही है, और केवल सही कर्म ही हमें जीवन के अंत में सच्चा साथ देते हैं।
कहानी: भिक्षु चक्षुपाल की शिक्षा
भगवान बुद्ध एक बार जेतवन विहार में रह रहे थे, तभी भिक्षु चक्षुपाल उनके दर्शन के लिए आए। भिक्षु चक्षुपाल ने अपनी सरलता, संयम और उच्च आदर्शों के कारण सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा। वे अंधे थे, फिर भी उनकी दिनचर्या और साधना प्रेरणादायक थी।
एक दिन कुछ भिक्षुओं ने चक्षुपाल की कुटी के बाहर मरे हुए कीड़े देखे। इस पर वे चक्षुपाल की आलोचना करने लगे कि उन्होंने इन जीवों की हत्या की है। वे निंदा करने लगे कि एक भिक्षु होकर उन्होंने जीवहत्या का पाप किया है।
भगवान बुद्ध को इस बात की जानकारी मिली। उन्होंने उन निंदा कर रहे भिक्षुओं को बुलाकर पूछा, “क्या तुमने स्वयं चक्षुपाल को कीड़े मारते हुए देखा है?” भिक्षुओं ने उत्तर दिया, “नहीं, भगवान।” तब बुद्ध ने कहा, “जैसे तुमने उन्हें ऐसा करते हुए नहीं देखा, वैसे ही चक्षुपाल ने भी उन्हें मरते हुए नहीं देखा, क्योंकि वे अंधे हैं। उन्होंने जान-बूझकर किसी भी जीव का वध नहीं किया है, इसलिए उनकी भर्त्सना करना उचित नहीं है।”
यह सुनकर भिक्षुओं ने बुद्ध से पूछा, “भगवान, चक्षुपाल अंधे क्यों हैं? क्या उन्होंने किसी पाप का परिणाम भुगता है?”
तब बुद्ध ने उनके पूर्व जन्म की कथा सुनाई। बुद्ध ने बताया कि पिछले जन्म में चक्षुपाल एक कुशल चिकित्सक थे। उनके पास एक अंधी स्त्री इलाज के लिए आई थी। उसने उनसे वादा किया था कि यदि उसकी आँखें ठीक हो जाती हैं, तो वह और उसका परिवार उनकी सेवा में सदैव दास बनकर रहेंगे।
चक्षुपाल ने अपनी योग्यता से उस स्त्री की आँखें ठीक कर दीं। परंतु, आँखों की रोशनी वापस पाने के बाद उस स्त्री ने अपना वादा निभाने से इंकार कर दिया और झूठ बोलने लगी कि उसकी आँखें ठीक नहीं हुई हैं। उस स्त्री के छल और विश्वासघात से क्रोधित होकर चक्षुपाल ने उसे सबक सिखाने का निश्चय किया। उन्होंने उसे एक दूसरी दवा दी, जिससे वह फिर से अंधी हो गई। उस स्त्री ने बहुत रो-पीटकर प्रायश्चित किया, पर चक्षुपाल का हृदय नहीं पसीजा।
बुद्ध ने कहा, “अपने उसी क्रूर कर्म के फलस्वरूप, आज चक्षुपाल को अंधेपन का कष्ट सहना पड़ रहा है। कर्म के नियम को कोई टाल नहीं सकता। जैसे हम अच्छे कर्मों का फल पाते हैं, वैसे ही बुरे कर्मों का भी दंड अवश्य मिलता है।”
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि हमारे हर कर्म का परिणाम होता है। जैसे भिक्षु चक्षुपाल ने अपनी पूर्व जन्म की गलतियों का फल भुगता, वैसे ही हमें भी अपने कर्मों का परिणाम झेलना पड़ता है। भगवान बुद्ध के उपदेश से हमें यह समझने का अवसर मिलता है कि हमें किसी भी स्थिति में क्रूरता, छल, और बदले की भावना से बचना चाहिए, क्योंकि जीवन के नियम में कर्मों का फल अटल है।
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एक दिन कुछ भिक्षुओं ने चक्षुपाल की कुटी के बाहर मरे हुए कीड़े देखे। इस पर वे चक्षुपाल की आलोचना करने लगे कि उन्होंने इन जीवों की हत्या की है। वे निंदा करने लगे कि एक भिक्षु होकर उन्होंने जीवहत्या का पाप किया है।
भगवान बुद्ध को इस बात की जानकारी मिली। उन्होंने उन निंदा कर रहे भिक्षुओं को बुलाकर पूछा, “क्या तुमने स्वयं चक्षुपाल को कीड़े मारते हुए देखा है?” भिक्षुओं ने उत्तर दिया, “नहीं, भगवान।” तब बुद्ध ने कहा, “जैसे तुमने उन्हें ऐसा करते हुए नहीं देखा, वैसे ही चक्षुपाल ने भी उन्हें मरते हुए नहीं देखा, क्योंकि वे अंधे हैं। उन्होंने जान-बूझकर किसी भी जीव का वध नहीं किया है, इसलिए उनकी भर्त्सना करना उचित नहीं है।”
यह सुनकर भिक्षुओं ने बुद्ध से पूछा, “भगवान, चक्षुपाल अंधे क्यों हैं? क्या उन्होंने किसी पाप का परिणाम भुगता है?”
तब बुद्ध ने उनके पूर्व जन्म की कथा सुनाई। बुद्ध ने बताया कि पिछले जन्म में चक्षुपाल एक कुशल चिकित्सक थे। उनके पास एक अंधी स्त्री इलाज के लिए आई थी। उसने उनसे वादा किया था कि यदि उसकी आँखें ठीक हो जाती हैं, तो वह और उसका परिवार उनकी सेवा में सदैव दास बनकर रहेंगे।
चक्षुपाल ने अपनी योग्यता से उस स्त्री की आँखें ठीक कर दीं। परंतु, आँखों की रोशनी वापस पाने के बाद उस स्त्री ने अपना वादा निभाने से इंकार कर दिया और झूठ बोलने लगी कि उसकी आँखें ठीक नहीं हुई हैं। उस स्त्री के छल और विश्वासघात से क्रोधित होकर चक्षुपाल ने उसे सबक सिखाने का निश्चय किया। उन्होंने उसे एक दूसरी दवा दी, जिससे वह फिर से अंधी हो गई। उस स्त्री ने बहुत रो-पीटकर प्रायश्चित किया, पर चक्षुपाल का हृदय नहीं पसीजा।
बुद्ध ने कहा, “अपने उसी क्रूर कर्म के फलस्वरूप, आज चक्षुपाल को अंधेपन का कष्ट सहना पड़ रहा है। कर्म के नियम को कोई टाल नहीं सकता। जैसे हम अच्छे कर्मों का फल पाते हैं, वैसे ही बुरे कर्मों का भी दंड अवश्य मिलता है।”
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि हमारे हर कर्म का परिणाम होता है। जैसे भिक्षु चक्षुपाल ने अपनी पूर्व जन्म की गलतियों का फल भुगता, वैसे ही हमें भी अपने कर्मों का परिणाम झेलना पड़ता है। भगवान बुद्ध के उपदेश से हमें यह समझने का अवसर मिलता है कि हमें किसी भी स्थिति में क्रूरता, छल, और बदले की भावना से बचना चाहिए, क्योंकि जीवन के नियम में कर्मों का फल अटल है।
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Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं एक विशेषज्ञ के रूप में रोचक जानकारियों और टिप्स साझा करती हूँ। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें। |