थें बिण म्हारे कोण खबर ले
थें बिण म्हारे कोण खबर ले, गोबरधन गिरधारी। मोर मुकुट पीतांबर शोभाँ, कुंडल री छव न्यारी।
भरी सभाँ मा द्रुपद सुताँरी, राख्या लाज मुरारी।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, चरण केवल बलिहारी।।
(थें बिण=तुम्हारे बिना, पीताम्बर=पीले वस्त्र)
--------------------------- अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी। ऎसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती। नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी। जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण। उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी। ऎसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी। हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी। दास मीरां तरै सोई, ऎसी प्रीति करै जोइ। पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।
अजब सलुनी प्यारी मृगया नैनों। तें मोहन वश कीधो रे॥ध्रु०॥ गोकुळ मां सौ बात करेरे बाला कां न कुबजे वश लीधो रे॥१॥ मनको सो करी ते लाल अंबाडी अंकुशे वश कीधो रे॥२॥ लवींग सोपारी ने पानना बीदला राधांसु रारुयो कीनो रे॥३॥ मीरां कहे प्रभु गिरिधर नागर चरणकमल चित्त दीनो रे॥४॥
अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥ आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥ ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥ बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत। मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
अब तो निभायाँ सरेगी, बांह गहेकी लाज। समरथ सरण तुम्हारी सइयां, सरब सुधारण काज॥ भवसागर संसार अपरबल, जामें तुम हो झयाज। निरधारां आधार जगत गुरु तुम बिन होय अकाज॥ जुग जुग भीर हरी भगतन की, दीनी मोच्छ समाज। मीरां सरण गही चरणन की, लाज रखो महाराज॥
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥ माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई। साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥ सतं देख दौड आई, जगत देख रोई। प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥ मारग में तारग मिले, संत राम दोई। संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥ अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई। राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥ अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई। दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥
अब तौ हरी नाम लौ लागी। सब जगको यह माखनचोरा, नाम धर्यो बैरागीं॥ कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी। मूड़ मुड़ाइ डोरि कटि बांधी, माथे मोहन टोपी॥ मात जसोमति माखन-कारन, बांधे जाके पांव। स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चैतन्य जाको नांव॥ पीतांबर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै। गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बसै॥
बंसीवारा आज्यो म्हारे देस। सांवरी सुरत वारी बेस।। ॐ-ॐ कर गया जी, कर गया कौल अनेक। गिणता-गिणता घस गई म्हारी आंगलिया री रेख।। मैं बैरागिण आदिकी जी थांरे म्हारे कदको सनेस। बिन पाणी बिन साबुण जी, होय गई धोय सफेद।। जोगण होय जंगल सब हेरूं छोड़ा ना कुछ सैस। तेरी सुरत के कारणे जी म्हे धर लिया भगवां भेस।। मोर-मुकुट पीताम्बर सोहै घूंघरवाला केस। मीरा के प्रभु गिरधर मिलियां दूनो बढ़ै सनेस।।
अरज करे छे मीरा रोकडी। उभी उभी अरज॥ध्रु०॥ माणिगर स्वामी मारे मंदिर पाधारो सेवा करूं दिनरातडी॥१॥ फूलनारे तुरा ने फूलनारे गजरे फूलना ते हार फूल पांखडी॥२॥ फूलनी ते गादी रे फूलना तकीया फूलनी ते पाथरी पीछोडी॥३॥ पय पक्कानु मीठाई न मेवा सेवैया न सुंदर दहीडी॥४॥ लवींग सोपारी ने ऐलची तजवाला काथा चुनानी पानबीडी॥५॥ सेज बिछावूं ने पासा मंगावूं रमवा आवो तो जाय रातडी॥६॥ मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तमने जोतमां ठरे आखडी॥७॥
आज मारे साधुजननो संगरे राणा। मारा भाग्ये मळ्यो॥ध्रु०॥ साधुजननो संग जो करीये पियाजी चडे चोगणो रंग रे॥१॥ सीकुटीजननो संग न करीये पियाजी पाडे भजनमां भंगरे॥२॥ अडसट तीर्थ संतोनें चरणें पियाजी कोटी काशी ने कोटी गंगरे॥३॥ निंदा करसे ते तो नर्क कुंडमां जासे पियाजी थशे आंधळा अपंगरे॥४॥ मीरा कहे गिरिधरना गुन गावे पियाजी संतोनी रजमां शीर संगरे॥५॥
आज मेरेओ भाग जागो साधु आये पावना॥ध्रु०॥ अंग अंग फूल गये तनकी तपत गये। सद्गुरु लागे रामा शब्द सोहामणा॥ आ०॥१॥ नित्य प्रत्यय नेणा निरखु आज अति मनमें हरखू। बाजत है ताल मृदंग मधुरसे गावणा॥ आ०॥२॥ मोर मुगुट पीतांबर शोभे छबी देखी मन मोहे। हरख निरख आनंद बधामणा॥ आ०॥३॥
होरी खेलनकू आई राधा प्यारी हाथ लिये पिचकरी॥ध्रु०॥ कितना बरसे कुंवर कन्हैया कितना बरस राधे प्यारी॥ हाथ०॥१॥ सात बरसके कुंवर कन्हैया बारा बरसकी राधे प्यारी॥ हाथ०॥२॥ अंगली पकड मेरो पोचो पकड्यो बैयां पकड झक झारी॥ हाथ०॥३॥ मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तुम जीते हम हारी॥ हाथ०॥४॥
मेरो मनमोहना, आयो नहीं सखी री॥ कैं कहुं काज किया संतन का, कै कहुं गैल भुलावना॥ कहा करूं कित जाऊं मेरी सजनी, लाग्यो है बिरह सतावना॥ मीरा दासी दरसण प्यासी, हरिचरणां चित लावना॥
हरिनाम बिना नर ऐसा है। दीपकबीन मंदिर जैसा है॥ध्रु०॥ जैसे बिना पुरुखकी नारी है। जैसे पुत्रबिना मातारी है। जलबिन सरोबर जैसा है। हरिनामबिना नर ऐसा है॥१॥ जैसे सशीविन रजनी सोई है। जैसे बिना लौकनी रसोई है। घरधनी बिन घर जैसा है। हरिनामबिना नर ऐसा है॥२॥ ठुठर बिन वृक्ष बनाया है। जैसा सुम संचरी नाया है। गिनका घर पूतेर जैसा है। हरिनम बिना नर ऐसा है॥३॥ कहे हरिसे मिलना। जहां जन्ममरणकी नही कलना। बिन गुरुका चेला जैसा है। हरिनामबिना नर ऐसा है॥४॥
हरि तुम हरो जन की भीर। द्रोपदी की लाज राखी, तुम बढायो चीर॥ भक्त कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर। हिरणकश्यपु मार दीन्हों, धरयो नाहिंन धीर॥ बूडते गजराज राखे, कियो बाहर नीर। दासि 'मीरा लाल गिरिधर, दु:ख जहाँ तहँ पीर॥