जोग ठगोरी बृज न बिकेहे मीनिंग Jog Thagori Braj Na Bikahe Meaning : Soordas

जोग ठगोरी बृज न बिकेहे मीनिंग Jog Thagori Braj Na Bikahe Meaning : Soordas

 

जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥
यह जापे लै आये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै।
दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥
मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै।
सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥

ऊधो, मन माने की बात।
 दाख छुहारो छांड़ि अमृतफल, बिषकीरा बिष खात॥
जो चकोर कों देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।
मधुप करत घर कोरि काठ में, बंधत कमल के पात॥
ज्यों पतंग हित जानि आपुनो दीपक सो लपटात।
सूरदास, जाकौ जासों हित, सोई ताहि सुहात॥

उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥

ऊधो, कर्मन की गति न्यारी।
सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥
उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥
सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥
मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥
सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी॥

ऊधो, हम लायक सिख दीजै।
यह उपदेस अगिनि तै तातो, कहो कौन बिधि कीजै॥
तुमहीं कहौ, इहां इतननि में सीखनहारी को है।
जोगी जती रहित माया तैं तिनहीं यह मत सोहै॥
कहा सुनत बिपरीत लोक में यह सब कोई कैहै।
देखौ धौं अपने मन सब कोई तुमहीं दूषन दैहै॥
चंदन अगरु सुगंध जे लेपत, का विभूति तन छाजै।
सूर, कहौ सोभा क्यों पावै आंखि आंधरी आंजै॥

ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
बृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृनन की छाहीं॥
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दह्यो सजायौ अति हित साथ खवावत॥
गोपी ग्वाल बाल संग खेलत सब दिन हंसत सिरात।
सूरदास, धनि धनि ब्रजबासी जिनसों हंसत ब्रजनाथ॥

कहां लौं कहिए ब्रज की बात।
 सुनहु स्याम, तुम बिनु उन लोगनि जैसें दिवस बिहात॥
गोपी गाइ ग्वाल गोसुत वै मलिन बदन कृसगात।
परमदीन जनु सिसिर हिमी हत अंबुज गन बिनु पात॥
जो कहुं आवत देखि दूरि तें पूंछत सब कुसलात।
चलन न देत प्रेम आतुर उर, कर चरननि लपटात॥
पिक चातक बन बसन न पावहिं, बायस बलिहिं न खात।
सूर, स्याम संदेसनि के डर पथिक न उहिं मग जात॥

कहियौ जसुमति की आसीस।
जहां रहौ तहं नंदलाडिले, जीवौ कोटि बरीस॥
मुरली दई, दौहिनी घृत भरि, ऊधो धरि लई सीस।
इह घृत तौ उनहीं सुरभिन कौ जो प्रिय गोप-अधीस॥
ऊधो, चलत सखा जुरि आये ग्वाल बाल दस बीस।
अबकैं ह्यां ब्रज फेरि बसावौ सूरदास के ईस॥

अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥
 
सूरदास हिंदी साहित्य के भक्तिकाल के महान कवि थे। वे भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि थे। हिंदी साहित्य में उन्हें "सूर्य" कहा जाता है। सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में मथुरा के पास रुनकता नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम रामदास था, जो एक सारस्वत ब्राह्मण थे। सूरदास बचपन से ही अंधे थे, लेकिन उनकी वाणी में अद्भुत माधुर्य था।

सूरदास का विवाह बाल्यकाल में ही हुआ था, लेकिन उनकी पत्नी भी जल्दी ही चल बसी। सूरदास ने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद गृहस्थ जीवन त्याग दिया और अपना जीवन भगवान कृष्ण की भक्ति में लगा दिया। सूरदास की भक्ति में लीनता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन करते हुए पदों की रचना की। इन पदों को "सूरसागर" नाम से जाना जाता है। सूरदास के पदों में वात्सल्य रस की प्रधानता है। उन्होंने भगवान कृष्ण के बाल रूप का अत्यंत सुंदर और भावपूर्ण वर्णन किया है। उनके पदों में कृष्ण की माँ यशोदा, राधा और अन्य गोपियों के प्रेम का भी सुंदर वर्णन मिलता है।

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