खंभा एक गइंद दोइ क्यूँ करि बंधिसि बारि हिंदी मीनिंग Khamba Ek Dandai Dou Meaning Kabir Dohe, Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit (Hindi Meaning/Bhavarth)
खंभा एक गइंद दोइ, क्यूँ करि बंधिसि बारि।
मानि करै तो पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि॥
Khamba Ek Gandai Dou, Kyu Kari Bandhi
Mani Kare To Peev nahi, Peev
मानि करै तो पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि॥
Khamba Ek Gandai Dou, Kyu Kari Bandhi
Mani Kare To Peev nahi, Peev
खंभा एक : खम्बा एक है. खम्बा-हाथी को बाँधने का मोटा खूंटा.
गइंद : हाथी.
दोइ : दो.
क्यूँ करि : कैसे (कैसे बंधोगे)
बंधिसि : बांधना.
बारि : द्वार पर, बारने (घर का मुख्य द्वार)
मानि करै तो : मान, अभिमान करना.
पीव नहीं : स्वामी, इश्वर नहीं है.
मानि : अहम्, अहंकार.
निवारि : छोड़ दे, त्याग कर दे.
दोइ : दो.
क्यूँ करि : कैसे (कैसे बंधोगे)
बंधिसि : बांधना.
बारि : द्वार पर, बारने (घर का मुख्य द्वार)
मानि करै तो : मान, अभिमान करना.
पीव नहीं : स्वामी, इश्वर नहीं है.
मानि : अहम्, अहंकार.
निवारि : छोड़ दे, त्याग कर दे.
कबीर साहेब की वाणी है की हाथी दो हैं और खम्बा एक है तो एक ही खंबे पर दो हाथियों को कैसे बाँधा जाएगा. एक खम्बे पर दो हाथियों को बाँध पाना संभव नहीं है, ऐसे ही यदि कोई भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता है तो उसे व्यर्थ के अभिमान का त्याग करना होगा. उसे मान, अभिमान, अहम का पूर्ण रूप से त्याग करना ही होगा. यदि वह स्वंय के अहम् को रखेगा तो प्रिय (पीव) इश्वर की प्राप्ति नहीं हो पाएगी.
जब तक व्यक्ति अहम् रखता है तो समझना चाहिए की वह सांसारिक क्रियाओं में अभी भी लिप्त है. माया के भ्रम से वह दूर नहीं हुआ है. स्वंय के होने का भाव साधक को भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ने से रोकता है. मैं यह हूँ, मैंने यह किया है, यह सब भाव अहम् ही है. करने वाला वह पूर्ण परमात्मा ही, जबकि साधक को लगता है की उसने ही सब कुछ किया है, वह करने में सक्षम है. जीवात्मा कुछ भी कर पाने में संभव नहीं है. जो है वह उसी पूर्ण का है, जिस रोज यह भाव उत्पन्न होने लगता है, समस्त संताप स्वतः ही दूर होने लगते हैं.
धार्मिक संस्थान, महंत और धर्म के जानकार भी इससे अछूते नहीं हैं. यदि उनमे भी अहम् है, मैं का भाव है तो सब कुछ व्यर्थ है. यह मेरा बनाया हुआ मंदिर है, इसकी शिलान्यास मैंने किया है ! इनसे ऊपर उठकर ही कुछ देख पाना संभव है.
जब तक व्यक्ति अहम् रखता है तो समझना चाहिए की वह सांसारिक क्रियाओं में अभी भी लिप्त है. माया के भ्रम से वह दूर नहीं हुआ है. स्वंय के होने का भाव साधक को भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ने से रोकता है. मैं यह हूँ, मैंने यह किया है, यह सब भाव अहम् ही है. करने वाला वह पूर्ण परमात्मा ही, जबकि साधक को लगता है की उसने ही सब कुछ किया है, वह करने में सक्षम है. जीवात्मा कुछ भी कर पाने में संभव नहीं है. जो है वह उसी पूर्ण का है, जिस रोज यह भाव उत्पन्न होने लगता है, समस्त संताप स्वतः ही दूर होने लगते हैं.
धार्मिक संस्थान, महंत और धर्म के जानकार भी इससे अछूते नहीं हैं. यदि उनमे भी अहम् है, मैं का भाव है तो सब कुछ व्यर्थ है. यह मेरा बनाया हुआ मंदिर है, इसकी शिलान्यास मैंने किया है ! इनसे ऊपर उठकर ही कुछ देख पाना संभव है.