दुर्गा नवरात्रि की व्रत कथा Durga Pujan Navratri Vrat Katha Kahani

दुर्गा नवरात्रि की व्रत कथा Durga Pujan Navratri Vrat Katha Kahani

बहुत समय पहले की बात है। एक नगर के राजा थे जिनका नाम सूरथ था। राजा अपनी प्रजा की सुरक्षा के प्रति बहुत ही उदासीन थे। जिसके फलस्वरुप पड़ोसी राजाओं ने उनके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। राजा सूरथ की सेना भी पड़ोसी राजा से मिलकर राजा सूरथ के विरुद्ध हो गई। जिसके फल स्वरुप राजा सूरथ की हार हुई। राजा सूरथ अपनी जान बचाकर जंगल की तरफ भाग गए। जिस जंगल में राजा सूरथ ने भाग कर अपनी जान बचाई थी, उसी जंगल में समाधि नाम का एक वणिक रहता था। वणिक अपनी पत्नी और संतान से दुखी होकर वन में रहता था। जब राजा सूरथ और समाधि नाम के वणिक का परिचय हुआ तो दोनों एक साथ वन में विचरण करने लगे। थोड़ी देर बाद वे दोनों महर्षि मेघा के आश्रम में पहुंच गए। महर्षि मेघा ने उन दोनों को जंगल में आने का कारण बताने के लिए कहा। राजा सूरथ और वणिक बोले कि हम अपने सगे संबंधियों से अपमानित और तिरस्कृत होने पर भी उनके प्रति मोह बनाए हुए हैं, इसका क्या कारण है।
 
दुर्गा नवरात्रि की व्रत कथा Durga Pujan Navratri Vrat Katha Kahani
 
महर्षि मेघा ने उन्हें बताया कि मन शक्ति के अधीन होता है। आदिशक्ति के दो रूप होते हैं विद्या और अविद्या। विद्या ज्ञान स्वरूप है और अविद्या अज्ञान स्वरूप। जो व्यक्ति अविद्या अर्थात अज्ञान के आदि कारण रूप में उपासना करते हैं उन्हें वे विद्या स्वरूप प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं।
जब राजा सूरथ ने यह सब सुना तो उन्होंने महर्षि से पूछा कि हे महर्षि, यह देवी कौन है, और इनका जन्म कैसे हुआ?

महर्षि मेघा ने उन्हें बता कि आप जिस देवी के बारे में जानना चाहते हैं वह देवी नित्य स्वरूपा और विश्व व्यापिनी है। आप उनके बारे में ध्यान पूर्वक सुने। कल्पांत के समय भगवान विष्णु क्षीर सागर में अनंत शैय्या पर विश्राम कर रहे थे। तब उनके दोनों कानों से मधु और कैटभ नाम के दो दानव उत्पन्न हुए। वे दोनों विष्णु जी की नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्मा जी को मारने के लिए आगे बढ़े। ब्रह्मा जी ने जब उन दोनों राक्षसों को अपनी तरफ आते देखा तो वह विष्णु जी की शरण में जाने लगे। लेकिन भगवान विष्णु उसे समय शयन कर रहे थे। तो ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु को जगाने के लिए उनके नैनों में निवास करने वाली योग निद्रा की स्तुति की।

इसके पश्चात तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान जी के नेत्र, नासिका, मुख तथा हृदय से निकलकर ब्रह्मा जी के सामने उपस्थित हो गई। योग निद्रा के निकलते ही भगवान विष्णु जी जाग कर बैठ गए। भगवान विष्णु और उन राक्षसों में 5000 वर्षों तक युद्ध चला रहा। अंत में मधु और कैटभ नाम के दोनों रक्षा मारे गए।
ऋषि बोले अब ब्रह्मा जी की स्तुति से उत्पन्न महामाया देवी की वीरता तथा प्रभाव का वर्णन करता हूं। उसे आप ध्यान से सुने। एक समय देवताओं के स्वामी इंद्र तथा दैत्यों के स्वामी महिषासुर में सैकड़ो वर्षों तक घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में देवराज इंद्र की हार हुई तथा महिषासुर इंद्रलोक का स्वामी बन गया। अब देवतागण ब्रह्मा जी के नेतृत्व में भगवान विष्णु और शंकर जी की शरण में गए। देवताओं की बातें सुनकर भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर जी बहुत ही क्रोधित हो गए। भगवान विष्णु के मुख तथा ब्रह्मा शिव जी तथा इंद्र आदि के शरीर से एक तेज पुंज निकला जिससे समस्त दिशायें जलने लगी। अंत में यही तेज पुंज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया। 

देवी ने सभी देवताओं से आयुध एवं शक्ति प्राप्त करके उच्च स्वर में अट्टहास किया। जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गई। महिषासुर अपनी सेवा लेकर इस सिंह नाद की और आया। उसने देखा की देवी के प्रभाव से तीनों लोक आलोकित हो रहे हैं। 

महिषासुर की देवी के सामने एक भी चाल सफल नहीं हुई और वह देवी के हाथों मारा गया। आगे चलकर यही देवी शुभ और निशुंभ राक्षसों का वध करने के लिए गौरी देवी के रूप में अवतरित हुई।
इन सभी व्याख्यानों को सुना कर मेघा ऋषि ने राजा सूरथ और वणिक से देवी स्तवन की विधिवत व्याख्या की। राजा और वणिक नदी पर जाकर देवी की तपस्या करने लगे। 3 वर्ष घोर तपस्या करने के बाद देवी ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया। इससे वणिक संसार के मुंह से मुक्त होकर आत्म चिंतन में लग गया और राजा ने शत्रु पर विजय प्राप्त कर अपने राज्य को वापस प्राप्त कर लिया तथा वैभव से रहने लगा।
 

द्वितीय कथा 

एक समय बृहस्पति जी ने ब्रह्माजी से नवरात्रि व्रत के बारे में पूछा। ब्रह्माजी ने बताया कि यह व्रत संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इस व्रत को करने से पुत्र, धन, विद्या और सुख प्राप्त होता है। रोग दूर होता है, घर में समृद्धि आती है, बन्ध्या को पुत्र प्राप्त होता है और समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है।

ब्रह्मा जी ने बृहस्पति जी को नवरात्रि व्रत की कथा भी सुनाई। प्राचीन काल में मनोहर नगर में पीठत नाम का एक अनाथ ब्राह्मण रहता था। उसकी सुमति नाम की एक कन्या थी। सुमति बहुत सुंदर और पतिव्रता थी। वह प्रतिदिन दुर्गा जी की पूजा करती थी।

एक दिन सुमति के पिता ने उसे क्रोधित होकर कुष्टी के साथ विवाह कर दिया। सुमति को अपने पति के साथ वन में जाना पड़ा। वन में रहने के दौरान सुमति को बहुत कष्ट हुए। वह अपने पति के कुष्ठ रोग से भी बहुत दुखी थी।

एक दिन सुमति वन में भटक रही थी। तभी उसकी मुलाकात देवी दुर्गा से हुई। देवी दुर्गा ने सुमति को नवरात्रि व्रत करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे सभी दुख दूर हो जाएंगे।

सुमति ने देवी दुर्गा की बात मान ली। उसने नवरात्रि व्रत करना शुरू कर दिया। व्रत के दौरान वह दिन में एक बार ही भोजन करती थी। वह देवी दुर्गा की पूजा भी नियमित रूप से करती थी।

नवरात्रि के नौवें दिन सुमति ने देवी दुर्गा की कथा सुनी। उसने देवी दुर्गा से प्रार्थना की कि वह उसके सभी दुख दूर करें। देवी दुर्गा ने सुमति की प्रार्थना सुन ली। उन्होंने सुमति के पति के कुष्ठ रोग से मुक्ति दिला दी। सुमति को उदालय नाम का एक पुत्र भी हुआ।

सुमति बहुत खुश हुई। उसने देवी दुर्गा को धन्यवाद दिया। ब्रह्मा जी ने बताया कि जो व्यक्ति नवरात्रि व्रत करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। इस व्रत से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।

कथा का महत्व- नवरात्रि व्रत की कथा से यह पता चलता है कि देवी दुर्गा सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली हैं। इस व्रत को करने से व्यक्ति को सुख, समृद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

नवरात्रि व्रत की कथा

एक समय बृहस्पतिजी ब्रह्माजी से पूछते हैं कि चैत्र और आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में नवरात्रि का व्रत और उत्सव क्यों किया जाता है? इसके क्या लाभ हैं? इसका इतिहास क्या है?

ब्रह्माजी बताते हैं कि नवरात्रि व्रत संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसके करने से पुत्र की प्राप्ति होती है, धन की प्राप्ति होती है, विद्या की प्राप्ति होती है, सुख की प्राप्ति होती है। रोगी मनुष्य का रोग दूर हो जाता है, मनुष्य की संपूर्ण विपत्तियां दूर हो जाती हैं, घर में समृद्धि की वृद्धि होती है, बन्ध्या को पुत्र प्राप्त होता है। समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है और मन का मनोरथ सिद्ध हो जाता है।

ब्रह्माजी सुमति नामक एक ब्राह्मणी की कहानी सुनाते हैं। सुमति की शादी एक कुष्ठ रोगी से हो जाती है। सुमति के पिता उसे घर से निकाल देते हैं। सुमति वन में भटक रही होती है, तभी देवी दुर्गा प्रकट होती हैं। देवी दुर्गा सुमति की स्तुति से प्रसन्न होती हैं और उसे वरदान देती हैं कि उसके पति का कुष्ठ रोग दूर हो जाएगा और उसे एक पुत्र होगा।

देवी दुर्गा सुमति को नवरात्रि व्रत की विधि भी बताती हैं। नवरात्रि व्रत आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक किया जाता है। व्रत करने वाला व्यक्ति प्रतिदिन देवी दुर्गा की पूजा करता है और हवन करता है। नवें दिन हवन के बाद व्रत समाप्त होता है।

ब्रह्माजी कहते हैं कि जो व्यक्ति नवरात्रि व्रत करता है, उसके सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। इस व्रत करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।

नवरात्रि व्रत की कथा

प्राचीन काल में मनोहर नगर में पीठत नाम का एक अनाथ ब्राह्मण रहता था। वह बहुत ही धार्मिक और भक्त था। वह प्रतिदिन दुर्गा जी की पूजा करता था। उसके घर सुमति नाम की एक अत्यंत सुंदर कन्या उत्पन्न हुई। सुमति भी अपने पिता की तरह दुर्गा जी की परम भक्त थी। वह भी प्रतिदिन दुर्गा जी की पूजा में उपस्थित रहती थी।

एक दिन सुमति की पिता को एक कुष्टी को देखने के लिए बुलाया गया। कुष्टी बहुत ही दुखी और निराश थी। उसने पीठत से कहा कि वह दुर्गा जी की पूजा करके उसे ठीक कर दे। पीठत ने कुष्टी को दुर्गा जी की पूजा करने के लिए कहा। कुष्टी ने पीठत की बात मानी और दुर्गा जी की पूजा करने लगा।

कुष्टी की पूजा से दुर्गा जी प्रसन्न हुईं। उन्होंने कुष्टी को ठीक करने का वरदान दिया। कुष्टी ठीक हो गया और उसने पीठत का धन्यवाद दिया। पीठत बहुत ही खुश हुआ। उसने कुष्टी से सुमति से विवाह करने के लिए कहा। कुष्टी ने पीठत की बात मान ली और सुमति से विवाह कर लिया।

कुष्टी और सुमति एक वन में रहने लगे। एक दिन देवी दुर्गा ने सुमति को दर्शन दिए और उसे नवरात्रि व्रत करने को कहा। सुमति ने देवी दुर्गा की आज्ञा का पालन किया और नवरात्रि व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से कुष्टी का कुष्ठ रोग ठीक हो गया और उन्हें एक पुत्र हुआ।

कुष्टी और सुमति बहुत ही खुश हुए। उन्होंने देवी दुर्गा का धन्यवाद दिया। यह सुनकर पीठत भी बहुत ही खुश हुआ। उसने सुमति और कुष्टी को अपने घर बुलाया और उनका स्वागत किया।

नवरात्रि व्रत की कथा


एक समय में, मनोहर नगर में पीठत नाम का एक अनाथ ब्राह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का परम भक्त था। उसके घर सुमति नाम की एक सुंदर कन्या का जन्म हुआ। सुमति अपनी सहेलियों के साथ खेलती हुई बड़ी हुई। एक दिन, सुमति ने अपने पिता को दुर्गा की पूजा करते हुए नहीं देखा। इस पर उसके पिता को क्रोध आ गया और उसने सुमति को एक कुष्ट रोगी से विवाह करने की धमकी दी। सुमति ने अपने पिता की आज्ञा मानकर कुष्ट रोगी से विवाह कर लिया।

कुष्ट रोगी के साथ सुमति वन में चली गई। वहां एक रात, सुमति को भगवती दुर्गा ने दर्शन दिए और उसे वरदान दिया कि वह उसके पति को कुष्ट रोग से मुक्त कर देगी। सुमति ने दुर्गा के वरदान के प्रभाव से पति के कुष्ट रोग को दूर करने के लिए एक दिन का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसके पति का कुष्ट रोग दूर हो गया। सुमति ने दुर्गा की स्तुति की और उनसे नवरात्रि व्रत की विधि और फल पूछा।

दुर्गा ने सुमति को बताया कि नवरात्रि व्रत आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक किया जाता है। व्रत के दौरान विधिपूर्वक घट स्थापना करनी चाहिए और महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की पूजा करनी चाहिए। व्रत समाप्त होने पर नवें दिन हवन करना चाहिए।
दुर्गा ने सुमति को बताया कि नवरात्रि व्रत करने से मनुष्य के सभी पाप दूर हो जाते हैं और उसे सभी मनोकामनाएं प्राप्त होती हैं।

सुमति ने दुर्गा के बताए अनुसार नवरात्रि व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसे एक पुत्र हुआ। सुमति ने पुत्र का नाम उदालय रखा। उदालय एक बुद्धिमान, धनवान और पराक्रमी राजा बना।

सुमति ने अपने पिता की आज्ञा मानकर कुष्ट रोगी से विवाह कर लिया। कुष्ट रोगी का नाम चंद्रमा था। चंद्रमा एक अच्छा और दयालु व्यक्ति था। वह सुमति से बहुत प्यार करता था।

सुमति ने अपने पति को कुष्ट रोग से मुक्त करने के लिए नवरात्रि व्रत करने का निश्चय किया। उसने अपने पिता को बताया कि वह नवरात्रि व्रत करेगी। सुमति के पिता को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने सुमति को मना किया, लेकिन सुमति ने उनकी बात नहीं मानी।

सुमति ने नवरात्रि व्रत की सभी विधियों का पालन किया। उसने विधिपूर्वक घट स्थापना की और महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की पूजा की। उसने नवरात्रि के नौ दिनों तक उपवास किया और दुर्गा की कथा का श्रवण किया।

नौवें दिन, सुमति ने दुर्गा की पूजा की और उनसे प्रार्थना की कि वे उसके पति को कुष्ट रोग से मुक्त करें। दुर्गा ने सुमति की प्रार्थना स्वीकार की और चंद्रमा को कुष्ट रोग से मुक्त कर दिया।

चंद्रमा कुष्ट रोग से मुक्त हो गया तो वह बहुत खुश हुआ। उसने सुमति को धन्यवाद दिया और कहा कि वह उसे आजीवन प्यार करेगा।

चंद्रमा और सुमति एक साथ बहुत खुशी से रहने लगे। कुछ समय बाद, सुमति को एक पुत्र हुआ। सुमति ने पुत्र का नाम उदालय रखा। उदालय एक बुद्धिमान, धनवान और पराक्रमी राजा बना।

नवरात्रि व्रत की कथा

एक समय की बात है, मनोहर नगर में पीठत नाम का एक अनाथ ब्राह्मण रहता था। वह मां दुर्गा का बहुत भक्त था। उसके घर सुमति नाम की एक सुंदर कन्या का जन्म हुआ। सुमति भी मां दुर्गा की भक्त थी। वह अपने पिता के साथ रोजाना मंदिर जाती थी और मां दुर्गा की पूजा करती थी।

सुमति और चंद्रमा की प्रेम कहानी
सुमति और चंद्रमा की शादी एक छोटे से गाँव में हुई थी। चंद्रमा एक अच्छा इंसान था, लेकिन वह कुष्ठ रोग से पीड़ित था। सुमति ने उसके कुष्ठ रोग को कभी नहीं छिपाया। वह हमेशा उसके साथ खड़ी रही।

चंद्रमा एक बुद्धिमान और मेहनती व्यक्ति था। वह एक छोटा सा व्यवसाय करता था, जिससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकता था। सुमति भी एक कुशल गृहिणी थी। वह अपने घर को अच्छी तरह से सजाती और अपने परिवार की अच्छी तरह से देखभाल करती थी।

चंद्रमा और सुमति एक-दूसरे से बहुत प्यार करते थे। वे एक-दूसरे के साथ खुश थे। लेकिन चंद्रमा का कुष्ठ रोग उनके जीवन में एक बड़ी समस्या थी। लोग उन्हें घूरते थे और उनसे दूर रहते थे।

मां दुर्गा की परीक्षा

एक दिन मां दुर्गा ने सुमति की परीक्षा लेने के लिए एक बुढ़ी औरत का रूप धारण किया। वह सुमति के घर पहुंची और उससे भोजन मांगा। सुमति ने उसे भोजन दिया। बुढ़ी औरत ने भोजन करके कहा कि मां दुर्गा की कृपा से सुमति के पति का कुष्ठ रोग ठीक हो जाएगा।

सुमति को बुढ़ी औरत की बात पर विश्वास नहीं हुआ। वह सोचती थी कि यह कोई जादूगरनी है जो उसे धोखा दे रही है। लेकिन वह बुढ़ी औरत की बात मान गई और उसे भोजन दे दिया।

मां दुर्गा का वरदान
बुढ़ी औरत वास्तव में मां दुर्गा थीं। उन्होंने सुमति की परीक्षा ली थी और वह सुमति की भक्ति से बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने सुमति के पति को कुष्ठ रोग से मुक्त कर दिया।

चंद्रमा को कुष्ठ रोग से मुक्त होते देखकर सुमति बहुत खुश हुई। वह मां दुर्गा का शुक्रिया अदा करने के लिए मंदिर गई।

नवरात्रि व्रत
मंदिर में सुमति ने मां दुर्गा से नवरात्रि व्रत की विधि पूछी। मां दुर्गा ने उसे नवरात्रि व्रत की विधि बताई। सुमति ने नवरात्रि व्रत किया और मां दुर्गा की कृपा से उसे एक पुत्र हुआ।

सुमति और चंद्रमा का जीवन
चंद्रमा और सुमति का जीवन खुशहाल हो गया। उनके बेटे का नाम उदालय रखा गया। उदालय एक बुद्धिमान और सुंदर लड़का था। वह अपने माता-पिता का आज्ञाकारी और परोपकारी था।

सुमति और चंद्रमा ने अपना जीवन मां दुर्गा की सेवा में बिताया। वे हमेशा मां दुर्गा की कृपा से आशीर्वादित रहे।

दुर्गा नवरात्रि की व्रत कथा के लाभ

दुर्गा नवरात्रि की व्रत कथा के लाभ निम्नलिखित हैं:

  1. पापों का नाश होता है। नवरात्रि व्रत करने से मनुष्य के सभी पापों का नाश होता है। दुर्गा जी सभी देवताओं की जननी हैं और वे ही पापों का नाश करने में सक्षम हैं।
  2. मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। नवरात्रि व्रत करने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। दुर्गा जी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने में सक्षम हैं।
  3. आर्थिक उन्नति होती है। नवरात्रि व्रत करने से मनुष्य की आर्थिक उन्नति होती है। दुर्गा जी धन-धान्य की देवी हैं और वे ही मनुष्य को धन-धान्य प्रदान कर सकती हैं।
  4. स्वास्थ्य लाभ होता है। नवरात्रि व्रत करने से मनुष्य का स्वास्थ्य लाभ होता है। दुर्गा जी रोगों को दूर करने में सक्षम हैं।
  5. आध्यात्मिक उन्नति होती है। नवरात्रि व्रत करने से मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति होती है। दुर्गा जी ज्ञान और शक्ति की देवी हैं और वे ही मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति प्रदान कर सकती हैं।

इन लाभों के अलावा, नवरात्रि व्रत करने से मनुष्य में सकारात्मक सोच और आत्मविश्वास बढ़ता है। नवरात्रि व्रत एक ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को जीवन के सभी कष्टों से मुक्त कर सकती है।

नवरात्रि व्रत के लाभों को प्राप्त करने के लिए व्रत का विधिवत रूप से पालन करना आवश्यक है। नवरात्रि व्रत के दौरान निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

  • नवरात्रि व्रत आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक किया जाता है।
  • नवरात्रि व्रत के दौरान विधिपूर्वक घट स्थापना करनी चाहिए।
  • नवरात्रि के नौ दिनों तक उपवास करना चाहिए।
  • नवरात्रि के दौरान दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए।
  • नवरात्रि के नौ दिनों तक दुर्गा जी की पूजा-अर्चना करनी चाहिए।

नवरात्रि व्रत करने से मनुष्य के जीवन में सुख, समृद्धि और शांति आती है।

नवरात्रि में नौ देवियों की पूजा की जाती है

शैलपुत्री

शैलपुत्री का अर्थ है पर्वत की पुत्री। शैलपुत्री देवी दुर्गा का प्रथम स्वरूप हैं। वह हिमालय राजा की पुत्री हैं और उन्हें पार्वती के नाम से भी जाना जाता है। शैलपुत्री देवी शक्ति और शौर्य की प्रतीक हैं। शैलपुत्री देवी दुर्गा का प्रथम स्वरूप हैं। उनका नाम "शैलपुत्री" का अर्थ है "पर्वत की पुत्री"। वह हिमालय राजा की पुत्री हैं और उन्हें पार्वती के नाम से भी जाना जाता है। शैलपुत्री देवी शक्ति और शौर्य की प्रतीक हैं।

शैलपुत्री देवी की पूजा नवरात्रि के पहले दिन की जाती है। इस दिन, भक्त देवी की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पूजा में, भक्त देवी को फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं। वे देवी की आरती भी करते हैं।

शैलपुत्री देवी की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में शक्ति, शौर्य और साहस प्राप्त होता है। यह पूजा मनुष्य को अपने जीवन में सभी बाधाओं को दूर करने और सफलता प्राप्त करने में मदद करती है।

शैलपुत्री देवी का वाहन वृषभ है। उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का फूल होता है। उनके सिर पर अर्धचंद्र है।

शैलपुत्री देवी की कथा के अनुसार, हिमालय राजा और उनकी पत्नी मैनावती ने संतान प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान शिव ने उन्हें एक पुत्री का वरदान दिया। पुत्री का नाम पार्वती रखा गया। पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की। अंततः, भगवान शिव ने पार्वती से विवाह किया और वे माता पार्वती के रूप में पूजी जाने लगीं।
 

ब्रह्मचारिणी

ब्रह्मचारिणी का अर्थ है ब्रह्म का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी दुर्गा का द्वितीय स्वरूप हैं। वह ज्ञान और तपस्या की देवी हैं। ब्रह्मचारिणी देवी हमें सिखाती हैं कि कैसे अपने जीवन में ज्ञान और तपस्या के द्वारा सफलता प्राप्त करें। ब्रह्मचारिणी देवी दुर्गा की दूसरी शक्ति हैं। उनका नाम "ब्रह्मचारिणी" का अर्थ है "तपस्वी"। वह भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या करती थीं।

ब्रह्मचारिणी देवी की पूजा नवरात्रि के दूसरे दिन की जाती है। इस दिन, भक्त देवी की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पूजा में, भक्त देवी को फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं। वे देवी की आरती भी करते हैं।

ब्रह्मचारिणी देवी की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में तप, त्याग, सदाचार, संयम और वैराग्य जैसे गुणों में वृद्धि होती है। यह पूजा मनुष्य को अपने जीवन में सभी बाधाओं को दूर करने और सफलता प्राप्त करने में मदद करती है।

ब्रह्मचारिणी देवी का वाहन वृषभ है। उनके हाथ में जपमाला और कमंडल है। उनके सिर पर अर्धचंद्र है।

ब्रह्मचारिणी देवी की कथा के अनुसार, पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की। उन्होंने वर्षों तक बिना भोजन और पानी के तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान शिव ने उन्हें विवाह करने का वरदान दिया।
 

चंद्रघंटा

चंद्रघंटा का अर्थ है जिसके मस्तक पर चंद्रमा का आभूषण है। चंद्रघंटा देवी दुर्गा का तृतीय स्वरूप हैं। वह शक्ति और सौंदर्य की प्रतीक हैं। चंद्रघंटा देवी हमें सिखाती हैं कि कैसे अपने जीवन में शक्ति और सौंदर्य का संतुलन बनाए रखें। चंद्रघंटा देवी दुर्गा की तीसरी शक्ति हैं। उनका नाम "चंद्रघंटा" का अर्थ है "जिनके मस्तक पर अर्धचंद्र है"। वह देवी दुर्गा की शक्ति और सौंदर्य की प्रतीक हैं।

चंद्रघंटा देवी की पूजा नवरात्रि के तीसरे दिन की जाती है। इस दिन, भक्त देवी की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पूजा में, भक्त देवी को फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं। वे देवी की आरती भी करते हैं।

चंद्रघंटा देवी की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में शक्ति, सौंदर्य, साहस और ज्ञान प्राप्त होता है। यह पूजा मनुष्य को अपने जीवन में सभी बाधाओं को दूर करने और सफलता प्राप्त करने में मदद करती है।

चंद्रघंटा देवी का वाहन सिंह है। उनके हाथों में तलवार, घंटी और कमल का फूल होता है। उनके सिर पर अर्धचंद्र है।

चंद्रघंटा देवी की कथा के अनुसार, देवी दुर्गा ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की। उन्होंने वर्षों तक बिना भोजन और पानी के तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान शिव ने उन्हें विवाह करने का वरदान दिया।

कूष्मांडा

कूष्मांडा का अर्थ है ब्रह्मांड की उत्पत्ति करने वाली। कूष्मांडा देवी दुर्गा का चतुर्थ स्वरूप हैं। वह सृष्टि की आदि देवी हैं। कूष्मांडा देवी हमें सिखाती हैं कि कैसे अपने जीवन में नई शुरुआत करें और सफलता प्राप्त करें। कूष्मांडा देवी दुर्गा की चौथी शक्ति हैं। उनका नाम "कूष्मांडा" का अर्थ है "ब्रह्ांड की उत्पत्ति करने वाली"। वह सृष्टि की आदि देवी हैं। कूष्मांडा देवी की पूजा नवरात्रि के चौथे दिन की जाती है। इस दिन, भक्त देवी की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पूजा में, भक्त देवी को फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं। वे देवी की आरती भी करते हैं। कूष्मांडा देवी की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में नई शुरुआत करने और सफलता प्राप्त करने में मदद मिलती है। यह पूजा मनुष्य को अपने जीवन में सभी बाधाओं को दूर करने और आध्यात्मिक उन्नति करने में भी मदद करती है।

कूष्मांडा देवी का वाहन सिंह है। उनके हाथों में त्रिशूल, डमरू और कमल का फूल होता है। उनके सिर पर मुकुट है। कूष्मांडा देवी की कथा के अनुसार, देवी दुर्गा ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की। उन्होंने वर्षों तक बिना भोजन और पानी के तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान शिव ने उन्हें विवाह करने का वरदान दिया।
 

स्कंदमाता

स्कंदमाता का अर्थ है स्कंद की माता। स्कंदमाता देवी दुर्गा का पंचम स्वरूप हैं। स्कंद कार्तिकेय का नाम है और वे युद्ध के देवता हैं। स्कंदमाता देवी हमें सिखाती हैं कि कैसे अपने जीवन में कठिनाइयों का सामना करें और सफलता प्राप्त करें। स्कंदमाता देवी दुर्गा की पांचवीं शक्ति हैं। उनका नाम "स्कंदमाता" का अर्थ है "स्कंद की माता"। स्कंद भगवान कार्तिकेय हैं, जो देवी दुर्गा के पुत्र हैं। स्कंदमाता देवी की पूजा नवरात्रि के पांचवें दिन की जाती है। इस दिन, भक्त देवी की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पूजा में, भक्त देवी को फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं। वे देवी की आरती भी करते हैं। स्कंदमाता देवी की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में ज्ञान, बुद्धि, विवेक और एकाग्रता प्राप्त होती है। यह पूजा मनुष्य को अपने जीवन में सभी बाधाओं को दूर करने और सफलता प्राप्त करने में मदद करती है।

स्कंदमाता देवी का वाहन सिंह है। उनके हाथों में वरदमुद्रा, पाश और कमल का फूल होता है। उनके सिर पर मुकुट है। स्कंदमाता देवी की कथा के अनुसार, भगवान शिव ने देवी पार्वती को स्कंद नाम के पुत्र का वरदान दिया। देवी पार्वती ने कठोर तपस्या की और भगवान शिव से विवाह किया। भगवान शिव से विवाह करने के बाद, देवी पार्वती ने स्कंद को जन्म दिया।
 

कात्यायनी

कात्यायनी का अर्थ है महर्षि कात्यायन की पुत्री। कात्यायनी देवी दुर्गा का षष्ठ स्वरूप हैं। वह शक्ति और क्रोध की प्रतीक हैं। कात्यायनी देवी हमें सिखाती हैं कि कैसे अपने जीवन में बुराई का नाश करें और अच्छाई की रक्षा करें। कात्यायनी देवी दुर्गा की छठी शक्ति हैं। उनका नाम "कात्यायनी" का अर्थ है "महर्षि कात्यायन की पुत्री"। वह शक्ति और क्रोध की देवी हैं। कात्यायनी देवी की पूजा नवरात्रि के छठे दिन की जाती है। इस दिन, भक्त देवी की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पूजा में, भक्त देवी को फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं। वे देवी की आरती भी करते हैं।

कात्यायनी देवी की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में शक्ति, क्रोध और साहस प्राप्त होता है। यह पूजा मनुष्य को अपने जीवन में सभी बाधाओं को दूर करने और सफलता प्राप्त करने में मदद करती है। कात्यायनी देवी का वाहन सिंह है। उनके हाथों में तलवार, धनुष और कमल का फूल होता है। उनके सिर पर मुकुट है।

कात्यायनी देवी की कथा के अनुसार, महर्षि कात्यायन ने देवी दुर्गा की कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर, देवी दुर्गा ने उन्हें एक पुत्री का वरदान दिया। पुत्री का नाम कात्यायनी रखा गया।
 

कालरात्रि

कालरात्रि का अर्थ है काली रात। कालरात्रि देवी दुर्गा का सप्तम स्वरूप हैं। वह महाशक्ति की प्रतीक हैं। कालरात्रि देवी हमें सिखाती हैं कि कैसे अपने जीवन में भय और अंधकार को दूर करें और प्रकाश और सुख प्राप्त करें। कालरात्रि देवी दुर्गा की सातवीं शक्ति हैं। उनका नाम "कालरात्रि" का अर्थ है "काल को पार करने वाली"। वह मृत्यु और विनाश की देवी हैं।

कालरात्रि देवी की पूजा नवरात्रि के सातवें दिन की जाती है। इस दिन, भक्त देवी की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पूजा में, भक्त देवी को फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं। वे देवी की आरती भी करते हैं।

कालरात्रि देवी की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में मृत्यु और विनाश से मुक्ति मिलती है। यह पूजा मनुष्य को अपने जीवन में सभी बाधाओं को दूर करने और सफलता प्राप्त करने में भी मदद करती है। कालरात्रि देवी का वाहन गधा है। उनके हाथों में खड्ग, त्रिशूल और कमल का फूल होता है। उनके सिर पर चंदन का तिलक है।

कालरात्रि देवी की कथा के अनुसार, शुंभ और निशुंभ नाम के दो असुरों ने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया था कि उन्हें केवल देवी दुर्गा ही मार सकती हैं। देवी दुर्गा ने कालरात्रि रूप धारण करके शुंभ और निशुंभ का वध किया।
 

महागौरी

महागौरी का अर्थ है अत्यंत गोरी। महागौरी देवी दुर्गा का अष्टम स्वरूप हैं। वह शांति और सद्भाव की प्रतीक हैं। महागौरी देवी हमें सिखाती हैं कि कैसे अपने जीवन में शांति और सद्भाव बनाए रखें। महागौरी देवी दुर्गा की आठवीं शक्ति हैं। उनका नाम "महागौरी" का अर्थ है "महान गोरी"। वह श्वेत वर्ण की देवी हैं और उनका शरीर हिम के समान शुद्ध है।

महागौरी देवी की पूजा नवरात्रि के आठवें दिन की जाती है। इस दिन, भक्त देवी की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पूजा में, भक्त देवी को फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं। वे देवी की आरती भी करते हैं।

महागौरी देवी की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है। यह पूजा मनुष्य को अपने जीवन में सभी बाधाओं को दूर करने और सफलता प्राप्त करने में भी मदद करती है। महागौरी देवी का वाहन बैल है। उनके हाथों में त्रिशूल, डमरू और कमल का फूल होता है। उनके सिर पर मुकुट है।

महागौरी देवी की कथा के अनुसार, देवी दुर्गा ने महिषासुर नाम के असुर का वध किया। महिषासुर के वध के बाद, देवी दुर्गा ने महागौरी रूप धारण किया।
 

सिद्धिदात्री

सिद्धिदात्री का अर्थ है सभी सिद्धियों को देने वाली। सिद्धिदात्री देवी दुर्गा का नवम स्वरूप हैं। वह मोक्ष प्राप्ति की देवी हैं। सिद्धिदात्री देवी हमें सिखाती हैं कि कैसे अपने जीवन में मोक्ष प्राप्त करें और आध्यात्मिक उन्नति करें। सिद्धिदात्री देवी दुर्गा की नौवीं शक्ति हैं। उनका नाम "सिद्धिदात्री" का अर्थ है "सिद्धियां प्रदान करने वाली"। वह सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली देवी हैं।

सिद्धिदात्री देवी की पूजा नवरात्रि के नौवें दिन की जाती है। इस दिन, भक्त देवी की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पूजा में, भक्त देवी को फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करते हैं। वे देवी की आरती भी करते हैं।

सिद्धिदात्री देवी की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में सभी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। यह पूजा मनुष्य को अपने जीवन में सभी बाधाओं को दूर करने और सफलता प्राप्त करने में भी मदद करती है।

सिद्धिदात्री देवी का वाहन सिंह है। उनके हाथों में कमल का फूल, चक्र, गदा और शंख होता है। उनके सिर पर मुकुट है।

सिद्धिदात्री देवी की कथा के अनुसार, देवी दुर्गा ने महिषासुर नाम के असुर का वध किया। महिषासुर के वध के बाद, देवी दुर्गा ने सिद्धिदात्री रूप धारण किया।

नवरात्रि में इन नौ देवियों की पूजा करने से मनुष्य को जीवन में सुख, समृद्धि, शांति और मोक्ष प्राप्त होता है।

नवरात्रि पर माता रानी के पावन मंत्र और उनका अर्थ

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥
मंत्र का अर्थ:
  • सर्व मंगल मांगल्ये - हे देवी, तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली हो।
  • शिवे सर्वार्थ साधिके - तुम कल्याण दायिनी हो और सब पुरुषार्थो को सिद्ध करने वाली हो।
  • शरण्ये त्र्यम्बके गौरी - तुम शरणागत वत्सला हो और तीन नेत्रों वाली हो।
  • नारायणि नमोस्तुते - हे देवी, तुम्हें हमारा नमस्कार है।

इस मंत्र में, देवी दुर्गा को उनकी विभिन्न विशेषताओं के लिए स्तुति की जाती है। उन्हें मंगलमयी कहा जाता है क्योंकि वे सभी प्रकार का मंगल प्रदान करती हैं। उन्हें शिवा कहा जाता है क्योंकि वे कल्याण दायिनी हैं। उन्हें शरणागत वत्सला कहा जाता है क्योंकि वे अपने भक्तों पर दया करती हैं। उन्हें तीन नेत्रों वाली कहा जाता है क्योंकि वे भूत, वर्तमान और भविष्य को देख सकती हैं। और उन्हें नारायणि कहा जाता है क्योंकि वे भगवान विष्णु की पत्नी हैं।

ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते॥

मंत्र का अर्थ:
  • ॐ - यह एक पवित्र ध्वनि है जो ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती है।
  • जयंती - जो हमेशा विजय प्राप्त करती है।
  • मंगला - जो मंगल प्रदान करती है।
  • काली - जो प्रलयकाल में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट कर देती है।
  • भद्रकाली - जो भद्र, सुख और मंगल प्रदान करती है।
  • कपालिनी - जो अपने हाथ में कपाल धारण करती है।
  • दुर्गा - जो दुर्गों का नाश करती है।
  • क्षमा - जो अपने भक्तों के अपराधों को क्षमा करती है।
  • शिवा - जो कल्याण दायिनी है।
  • धात्री - जो सभी प्राणियों को पोषित करती है।
  • स्वाहा - जो यज्ञ में देवताओं को आहुति स्वीकार करती है।
  • स्वधा - जो पितरों को आहुति स्वीकार करती है।
  • नमोऽस्तु‍ते - आपको मेरा नमस्कार है।
इस मंत्र में, देवी दुर्गा को उनकी विभिन्न रूपों और शक्तियों के लिए स्तुति की जाती है। उन्हें जयंती कहा जाता है क्योंकि वे हमेशा विजय प्राप्त करती हैं। उन्हें मंगला कहा जाता है क्योंकि वे मंगल प्रदान करती हैं। उन्हें काली कहा जाता है क्योंकि वे प्रलयकाल में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट कर देती हैं। उन्हें भद्रकाली कहा जाता है क्योंकि वे भद्र, सुख और मंगल प्रदान करती हैं। उन्हें कपालिनी कहा जाता है क्योंकि वे अपने हाथ में कपाल धारण करती हैं। उन्हें दुर्गा कहा जाता है क्योंकि वे दुर्गों का नाश करती हैं। उन्हें क्षमा कहा जाता है क्योंकि वे अपने भक्तों के अपराधों को क्षमा करती हैं। उन्हें शिवा कहा जाता है क्योंकि वे कल्याण दायिनी हैं। उन्हें धात्री कहा जाता है क्योंकि वे सभी प्राणियों को पोषित करती हैं। और उन्हें स्वाहा और स्वधा कहा जाता है क्योंकि वे यज्ञ और श्राद्ध में देवताओं और पितरों को आहुति स्वीकार करती हैं।
 
ॐ गिरिजाय च विद्महे, शिवप्रियाय च धीमहि।
तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्॥

मंत्र का अर्थ:

  • ॐ - यह एक पवित्र ध्वनि है जो ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती है।
  • गिरिजाय - हिमालय की पुत्री।
  • च विद्महे - हम ध्यान करते हैं।
  • शिवप्रियाय - भगवान शिव की प्रिया।
  • च धीमहि - हम स्मरण करते हैं।
  • तन्नो दुर्गा - हे दुर्गा,
  • प्रचोदयात् - हमें प्रेरित करें।
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इस मंत्र में, देवी दुर्गा को उनकी उत्पत्ति और विशेषताओं के लिए स्तुति की जाती है। उन्हें हिमालय की पुत्री कहा जाता है क्योंकि उनका जन्म हिमालय के घर हुआ था। उन्हें भगवान शिव की प्रिया कहा जाता है क्योंकि वे भगवान शिव की पत्नी हैं। उन्हें विशेष बुद्धि की धारक कहा जाता है क्योंकि वे सभी प्रकार के ज्ञान में पारंगत हैं। और उन्हें दुर्गा कहा जाता है क्योंकि वे सभी प्रकार के दुर्गुणों का नाश करती हैं।

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