रामधारी सिंह 'दिनकर' हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि, लेखक और निबंधकार थे, जिन्हें 'राष्ट्रकवि' के रूप में सम्मानित किया जाता है। उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को इस लेख में शामिल किया गया है जो आपको उनके जीवन को जानने में मदद करेंगे.
जन्म और प्रारंभिक जीवन
रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम रवि सिंह और माता का नाम मनरूप देवी था। बचपन में ही पिता के निधन के कारण उनका जीवन संघर्षमय रहा।शिक्षा
दिनकर जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। शिक्षा के दौरान ही वे हिंदी, संस्कृत, उर्दू, बांग्ला और अंग्रेजी भाषाओं में निपुण हो गए थे।लेखन कार्य
दिनकर जी की कविताएँ राष्ट्रप्रेम, वीरता और सामाजिक चेतना से परिपूर्ण हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में 'उर्वशी', 'कुरुक्षेत्र', 'परशुराम की प्रतीक्षा' और 'रेणुका' शामिल हैं। उनकी लेखनी ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लोगों में जोश और उत्साह का संचार किया।स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
स्वतंत्रता आंदोलन के समय दिनकर जी ने अपनी कविताओं के माध्यम से अंग्रेजी शासन के खिलाफ जनजागृति फैलाई। उनकी रचनाएँ विद्रोह और आक्रोश की भावना से ओतप्रोत थीं, जिससे वे 'विद्रोही कवि' के रूप में प्रसिद्ध हुए।राजनीतिक जीवन
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दिनकर जी ने मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य किया। 1952 में वे राज्यसभा के सदस्य चुने गए और तीन कार्यकालों तक संसद में सेवा की। बाद में वे भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति और भारत सरकार के हिंदी सलाहकार भी रहे।सम्मान और पुरस्कार
दिनकर जी को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए कई सम्मान मिले, जिनमें पद्म विभूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार (पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' के लिए) और भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (कृति 'उर्वशी' के लिए) प्रमुख हैं।मृत्यु
24 अप्रैल 1974 को चेन्नई, तमिलनाडु में रामधारी सिंह दिनकर का निधन हुआ। उनकी रचनाएँ आज भी पाठकों को प्रेरित करती हैं और हिंदी साहित्य में उनका योगदान अमूल्य माना जाता है।रामधारी सिंह दिनकर का जीवन संघर्ष, साहित्यिक उत्कृष्टता और राष्ट्रप्रेम का प्रतीक है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा।
दिनकर की कवितायें
रामधारी सिंह 'दिनकर' हिंदी साहित्य के एक ऐसे सूर्य हैं, जिनकी कविताओं की चमक समय की सीमाओं को पार करती है। उनकी रचनाएँ न केवल उनके युग में प्रेरणा का स्रोत थीं, बल्कि आज भी वे नई पीढ़ियों को रोशनी प्रदान करती हैं। आइए, उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताओं के माध्यम से उनके साहित्यिक योगदान को समझें।
सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली।
जब अंग-अंग में लगे साँप हो चूस रहे,
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हाँ, लंबी-चौड़ी जीभ की वही कसम,
"जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?"
"है प्रश्न गूढ़, जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो, तभी उतार सजा लो दोनों में।
अथवा कोई दूधमुँही, जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है।
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं।
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय,
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो।
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूर्ख,
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली।
जब अंग-अंग में लगे साँप हो चूस रहे,
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हाँ, लंबी-चौड़ी जीभ की वही कसम,
"जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?"
"है प्रश्न गूढ़, जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो, तभी उतार सजा लो दोनों में।
अथवा कोई दूधमुँही, जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है।
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं।
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय,
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो।
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूर्ख,
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जला अस्थियाँ बारी-बारी,
चिटकाई जिनमें चिंगारी।
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे।
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ,
उगल रही सौ लपट दिशाएँ।
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा।
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
चिटकाई जिनमें चिंगारी।
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे।
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ,
उगल रही सौ लपट दिशाएँ।
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा।
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
कृष्ण की चेतावनी
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आए कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आए,
पांडव का संदेशा लाए।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रखो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खाएंगे,
परिजन पर असि न उठाएंगे!’
दुर्योधन वह भी दे न सका,
आशीर्वाद समाज का ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुष्य पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अंदर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चंद्र,
शत कोटि सरित, सर, सिंधु मंद्र।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दंडधर लोकपाल।
जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।
‘अंबर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जब भी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनंत गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा,
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुष्यों के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आए कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आए,
पांडव का संदेशा लाए।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रखो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खाएंगे,
परिजन पर असि न उठाएंगे!’
दुर्योधन वह भी दे न सका,
आशीर्वाद समाज का ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुष्य पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अंदर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चंद्र,
शत कोटि सरित, सर, सिंधु मंद्र।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दंडधर लोकपाल।
जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।
‘अंबर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जब भी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनंत गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा,
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुष्यों के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
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- अग्निपथ हरिवंश राय बच्चन
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जन्मते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
"देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?"
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिए, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जन्मते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
"देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?"
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिए, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"
कलम या कि तलवार
दो में से क्या तुम्हें चाहिए, कलम या कि तलवार?
मन में ऊँचे भाव, कि तन में शक्ति विजय अपार।
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान,
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान।
कलम देश की बड़ी शक्ति है, भाव जगाने वाली,
दिल की नहीं, दिमागों में भी आग लगाने वाली।
पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे।
एक भेद है और वहाँ निर्भय होते नर-नारी,
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी।
जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले।
जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार?
धुँधली हुई दिशाएँ
धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज़ रो रहा है?
दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे;
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ,
चढ़ती जवानियों का शृंगार माँगता हूँ।
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तम-वेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ,
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ।
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल-पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है।
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ, ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेरा हो रहा है।
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है;
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता है,
जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता है।
मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,
अरमान-आरजू की लाशें निकल रही हैं।
भींगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुंधरा जब तुझको पुकारते हैं।
इनके लिए कहीं से निर्भीक तेज़ ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ,
विस्फोट माँगता हूँ, तूफ़ान माँगता हूँ।
आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे श्मशान में आ शृंगी ज़रा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगानेवाली शिखा नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ,
बेचैन ज़िंदगी का मैं प्यार माँगता हूँ।
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उस पर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता, विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज़ रो रहा है?
दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे;
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ,
चढ़ती जवानियों का शृंगार माँगता हूँ।
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तम-वेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ,
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ।
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल-पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है।
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ, ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेरा हो रहा है।
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है;
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता है,
जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता है।
मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,
अरमान-आरजू की लाशें निकल रही हैं।
भींगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुंधरा जब तुझको पुकारते हैं।
इनके लिए कहीं से निर्भीक तेज़ ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ,
विस्फोट माँगता हूँ, तूफ़ान माँगता हूँ।
आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे श्मशान में आ शृंगी ज़रा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगानेवाली शिखा नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ,
बेचैन ज़िंदगी का मैं प्यार माँगता हूँ।
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उस पर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता, विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।
रामधारी सिंह 'दिनकर' का जीवन और साहित्यिक यात्रा हमें सिखाती है कि कैसे एक साधारण पृष्ठभूमि से उठकर, अपने संकल्प और मेहनत के बल पर, व्यक्ति राष्ट्रकवि के पद तक पहुँच सकता है। उनकी रचनाएँ आज भी हमें प्रेरित करती हैं कि हम अपने जीवन के संघर्षों का सामना साहस और संकल्प के साथ करें। उनकी लेखनी की ज्वाला ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को जागरूक किया, बल्कि आज भी हमारे हृदयों में उत्साह और प्रेरणा का संचार करती है। दिनकर जी की रचनाएँ हमें यह संदेश देती हैं कि जीवन एक संग्राम है, जिसमें विजय पाने के लिए हमें निरंतर संघर्षरत रहना चाहिए।
Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं एक विशेषज्ञ के रूप में रोचक जानकारियों और टिप्स साझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें। |