निर्वाण षट्कम हिंदी मीनिंग Nirvan shatkam Meaning Lyrics Hindi
निर्वाण षट्कम क्या है ? आदि गुरु शंकराचार्य के अपने गुरु बाल शंकर से सर्वप्रथम भेंट के अवसर पर उनके गुरु ने उनसे कहा की तुम्हारा परिचय क्या है, तू कौन हो ? इस पर जो शकराचार्य जी ने उत्तर दिया वही निर्वाण षट्कम के नाम से विख्यात है। आदि शंकराचार्य द्वारा लिखित एक सुंदर कविता है, जिसमें ज्ञान की स्थिति, परमार्थिक सत्य को बहुत ही खूबसूरती के साथ वर्णन किया गया है। निर्वाण षट्कम में आदि गुरु शंकराचार्य जी बताते हैं की जीव क्या है और क्या नहीं है। मूल भाव है की आत्मा जिसे जीव भी कहा जा सकता है वह किसी बंधन, आकार और मनः स्थिति में नहीं है। वह ना तो जन्म लेते है और ना ही उसका अंत होता है। वह शिव है।
मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योमभूमि- र्न तेजो न वायुः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥१॥
न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातु- र्न वा पञ्चकोशाः।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥
न च व्योमभूमि- र्न तेजो न वायुः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥१॥
सरल अर्थ : मैं (जीव ) मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ (चार प्रकार के अन्तः कारन )। मैं कान, नाक और आँख भी नहीं हूँ। मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु भी नहीं हूँ। मैं शिव हूँ। शिव से अभिप्राय शुद्ध रूप से है जिसमे कोई मिलावट नहीं है। चेतन शक्ति ही शुभ है
I am not (jiva) mind, intellect, ego and memory (four types of conscience). I am not an ear, nose and eye either. I am not even sky, land, kaanti and air. I am Shiva. The meaning of Shiva is pure, in which there is no adulteration. Conscious power is auspicious
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥
सरल अर्थ : मैं प्राण भी नहीं हूँ और ना ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में से कोई हूँ, ना मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ। जीव का निर्माण साथ धातुओं से माना जाता है। मैं ना ही पञ्च कोष (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई हूँ , न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ। भाव है की जीव अज्ञानता के कारण ही स्वंय को स्थूल रूप से जोड़ लेता है, जैसे की हाथ पैर आदि जो दिखाई देते हैं या नहीं, लेकिन जीव तो शिव ही है जो स्वंय समस्त संसार है।
I can not be called strength (prana); I can not name five different kinds of Breath (vayus), I am not the seven elements of Dhatus, nor the five pancha-kosha. I'm not the five kosha .Yes, I am the auspicious (Shivam), the everlasting wisdom and joy, devotion and true consciousness. I am Shiva of the nature of Consciousness and Beatitude.
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न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥३॥
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥३॥
सरल अर्थ : मैं राग और द्वेष नहीं हूँ (मैं आसक्ति और विरक्ति में नहीं हूँ ) और नाही मुझमे लोभ और मोह है। न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ। लगाव या विरक्ति, लोभ आदि चित्त का अशुद्ध रूप है और जीव ऐसा नहीं है। जीव शुद्ध है जो की शिव है।
Jeeva have no hatred or dislike, nor affiliation or liking, nor greed, nor delusion, nor pride or haughtiness, nor feelings of envy or jealousy too. Jeev (I) have no duty (dharma), nor any money, nor any desire (kama), nor even liberation (moksha). Jeev (I) am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness. Therefore, these life goals are given to a person who lives and is bound by the Samsara. On the contrary, a Jnani who reached Atma-Jnana and realized that Atman is all and nothing else is left to be achieved. A Jnani is therefore no longer bound by any obligations to perform or achieve any of the Purusharthas because all that he had to achieve was already achieved.
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥४॥
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥४॥
सरल अर्थ : न तो पुण्य हूँ (अच्छे कर्म) सद्कर्म हूँ, न ही मैं पापम (बुरे कर्म) हूँ। मैं सुख और दुःख दोनों ही नहीं हूँ नो की अज्ञान के कारन उत्पन्न होते हैं। ना मैं मन्त्र हूँ, न तीर्थ, ना वेद और ना यज्ञ हूँ। मैं ना भोजन हूँ, ना खाया जाने वाला हूँ और ना खाने वाला ही हूँ। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ और शिव हूँ।
Neither I Punyam (Good Karmas), nor I Papam (Bad Karmas), nor I have either joy nor sorrow. Either I (a need for or obligation to) Mantra (i.e. Mantra Sadhana / Vidya Upasana practice), neither (in the direction) visit the holy place, nor (in the direction) study Vedas nor (in the direction) Yajnas. The food (i.e. the object). The food-eating act (i.e. the interaction of subject and object) and the food-enjoyer (i.e. the subject) I am neither. I am Shiva, the essence of Consciousness and Beatitude.
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
सरल अर्थ : ना मुझे मृत्यु का भय है (मृत्यु का भी अज्ञान का सूचक है), ना मुझमें जाति का कोई भेद है (अद्वैत की भावना नहीं है), ना मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है (मेरा अस्तित्व और उत्पत्ति भी निश्चित नहीं है जिसे आकार रूप में पहचाना जा सके ), ना मेरा जन्म हुआ है, ना मेरा कोई भाई है (जन्म मरण से मैं मुक्त हूँ और मेरा कोई सबंधी नहीं है ) ना कोई मेरा मित्र है और ना ही मेरा कोई गुरु है। मेरा कोई शिष्य भी नहीं है। मैं चैतन्य रूप हूँ,
आनंद हूँ और मैं शिव हूँ।
I'm not afraid of death. I have no separation or discrimination on the basis of birth from my true self, no doubt about my life. I've got no father and mother, I've not got a child. I'm not the relative, the guru, the disciple, the friend. In reality, I'm the auspicious one, the everlasting wisdom and joy, love and pure consciousness, Shiva.
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥
सरल अर्थ : आत्मा क्या नहीं है यह समझाने के उपरांत आदि शंकराचार्य जी अब बता रहे हैं की आत्मा वास्तव मैं है क्या। मुझमे कोई संदेह नहीं है और मैं सभी संदेहों से ऊपर हूँ। मेरा कोई आकार भी नहीं है। मैं हर अवस्था में सम रहने वाला हूँ। मैं तो सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ। मैं किसी बंधन में नहीं हूँ और नांहि किसी मुक्ति में ही हूँ। मैं आनंद हूँ, शिव हूँ।
Without a second I am the Changeless, without a shape, Omnipresent, All-powerful, inhabiting all the senses. I don't learn about everything (i.e. all about it like your Atman / Inner Self), nor have I freedom or constraint. I am Shiva of the nature of Beatitude and Beatitude. Yes, I am the auspicious (Shivam), the everlasting knowledge and the happiness, devotion and true consciousness.
After having explained what Atman is not, Adi Shankaracharya now explains what Atman' real state .Atman is one, without a second, without parts at the Paramartika Dasha. It has no time, space or shape constraints. It is one Unchanged, eternal, endless and unborn. Aatma is "Shiva"
Sounds Of Isha - Nirvana Shatakam | Chant
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निर्वाण षट्कम में आदि शंकराचार्य ने छह श्लोकों में मोक्ष प्राप्ति के लिए वैराग्य के महत्व को बताया है। इन श्लोकों का अर्थ इस प्रकार है:
ईशा योग केंद्र आने वाले कई लोग निर्वाण षट्कम सुनकर आंसुओं से भर गए। उन्होंने बताया कि इस मंत्र को सुनने से उनके मन में बहुत शांति और सुकून महसूस हुआ। उन्होंने कहा कि यह मंत्र उन्हें सांसारिक मोह से मुक्त होने और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
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निर्वाण षट्कम में आदि शंकराचार्य ने छह श्लोकों में मोक्ष प्राप्ति के लिए वैराग्य के महत्व को बताया है। इन श्लोकों का अर्थ इस प्रकार है:
निर्वाण षट्कम का महत्व
निर्वाण षट्कम एक ऐसा मंत्र है जो हमें सांसारिक मोह से मुक्त होने और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। इस मंत्र में आदि शंकराचार्य ने हमें बताया है कि संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है और इसलिए हमें सांसारिक सुखों से मोहित नहीं होना चाहिए। हमें अपने मन, वचन और कर्म से निष्काम होकर कर्म करने चाहिए। जब हम इस तरह से कर्म करेंगे तो हम नैष्कर्म्य की प्राप्ति कर सकते हैं और ज्ञान के द्वारा ब्रह्म के साक्षात्कार को प्राप्त कर सकते हैं। ब्रह्म के साक्षात्कार को प्राप्त करने वाला मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर जाता है।निर्वाण षट्कम का प्रभाव
निर्वाण षट्कम का प्रभाव बहुत ही गहरा होता है। इस मंत्र को सुनने से हमारे मन में वैराग्य की भावना जागृत होती है और हम सांसारिक मोह से मुक्त होने लगते हैं। इस मंत्र का प्रभाव इतना अधिक होता है कि कई लोग इसे सुनकर आंसू बहा देते हैं।ईशा योग केंद्र आने वाले कई लोग निर्वाण षट्कम सुनकर आंसुओं से भर गए। उन्होंने बताया कि इस मंत्र को सुनने से उनके मन में बहुत शांति और सुकून महसूस हुआ। उन्होंने कहा कि यह मंत्र उन्हें सांसारिक मोह से मुक्त होने और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
निर्वाण का अर्थ है "निराकार"। निर्वाण षट्कम में, आदि शंकराचार्य हमें बता रहे हैं कि हमें सांसारिक मोह से मुक्त हो जाना चाहिए और आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझना चाहिए। आत्मा निराकार है, इसका कोई आकार या रूप नहीं है। यह न तो यह है और न ही वह है। इस श्लोक में, आदि शंकराचार्य कह रहे हैं कि हमें निष्काम होकर ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए। जब हम निष्काम होकर ब्रह्म का ध्यान करते हैं, तो हम मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
निर्वाण षट्कम एक ऐसा मंत्र है जो हमें सांसारिक मोह से मुक्त होने और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। यह एक बहुत ही शक्तिशाली मंत्र है और इसका नियमित अभ्यास हमारे जीवन को बदल सकता है।
निर्वाण षट्कम एक ऐसा मंत्र है जो हमें सांसारिक मोह से मुक्त होने और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। यह एक बहुत ही शक्तिशाली मंत्र है और इसका नियमित अभ्यास हमारे जीवन को बदल सकता है।
यह छंद शिव पंचकं नामक एक प्रसिद्ध शिव मंत्र है। इस मंत्र में शिव के पांच रूपों का वर्णन किया गया है:
सच्चिदानंद रूप: यह रूप शुद्ध चेतना और आनंद का है।
निर्विकल्प रूप: यह रूप निर्विकल्प और निराकार है।
विभु रूप: यह रूप सर्वव्यापी है।
आनंद रूप: यह रूप आनंद का सार है।
अनादि रूप: यह रूप अनादि और अनंत है।
छंद का अर्थ:
पहला श्लोक: मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं। मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं। मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
दूसरा श्लोक: मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं। मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं। मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्सर्जन की इन्द्रियां हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
तीसरा श्लोक: न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह। न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या। मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
चौथा श्लोक: मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं। मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ। न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
पांचवां श्लोक: न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव। मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था। मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
छठा श्लोक: मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं। मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं। न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
सच्चिदानंद रूप: यह रूप शुद्ध चेतना और आनंद का है।
निर्विकल्प रूप: यह रूप निर्विकल्प और निराकार है।
विभु रूप: यह रूप सर्वव्यापी है।
आनंद रूप: यह रूप आनंद का सार है।
अनादि रूप: यह रूप अनादि और अनंत है।
छंद का अर्थ:
पहला श्लोक: मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं। मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं। मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
दूसरा श्लोक: मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं। मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं। मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्सर्जन की इन्द्रियां हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
तीसरा श्लोक: न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह। न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या। मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
चौथा श्लोक: मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं। मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ। न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
पांचवां श्लोक: न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव। मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था। मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
छठा श्लोक: मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं। मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं। न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
मंत्र का महत्व:
यह मंत्र शिव के वास्तविक रूप को समझने में मदद करता है। यह हमें याद दिलाता है कि हम सभी में शुद्ध चेतना है, जो अनादि और अनंत है। यह मंत्र हमें अपने अहंकार और भ्रम से मुक्त होने में भी मदद कर सकता है। निर्वाण षट्कम एक संस्कृत श्लोक है जिसे आदि शंकराचार्य ने लिखा था। यह श्लोक आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए एक मार्गदर्शन प्रदान करता है।
निर्वाण षट्कम में, आदि शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा न तो मन, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त है। यह न तो कान, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र है। यह न तो आकाश, न धरती, न अग्नि, न ही वायु है। आत्मा तो शुद्ध चेतना है, अनादि, अनंत शिव है।
निर्वाण षट्कम के पहले छंद में, आदि शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा न तो मन है, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त। मन वह है जो हमारे विचारों को नियंत्रित करता है। बुद्धि वह है जो हमारे निर्णय लेती है। अहंकार वह है जो हमें दूसरों से अलग महसूस कराता है। चित्त वह है जो हमारे भावनाओं को नियंत्रित करता है। आत्मा इनमें से किसी भी चीज से परे है।
निर्वाण षट्कम के दूसरे छंद में, आदि शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा न तो प्राण है, न ही पंच वायु है। प्राण वह है जो हमारे शरीर को जीवित रखता है। पंच वायु हमारे शरीर में पांच महत्वपूर्ण गतिविधियों को नियंत्रित करती हैं। आत्मा इनमें से किसी भी चीज से परे है।
निर्वाण षट्कम के तीसरे छंद में, आदि शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा में न द्वेष है, न राग, न लोभ, न मोह, न अभिमान, न ईर्ष्या है। ये सभी मनुष्य के दोष हैं। आत्मा इनमें से किसी भी दोष से परे है।
निर्वाण षट्कम के चौथे छंद में, आदि शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा पुण्य, पाप, सुख, दुख, मंत्र, तीर्थ, वेद, यज्ञ से परे है। ये सभी सांसारिक चीजें हैं। आत्मा इनमें से किसी भी चीज से परे है।
निर्वाण षट्कम के पांचवें छंद में, आदि शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा में न मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव है। आत्मा का न कोई पिता है, न माता, न कोई जन्म है। आत्मा का न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य है। आत्मा इनमें से किसी भी चीज से परे है।
निर्वाण षट्कम के छठे छंद में, आदि शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा निर्विकल्प है, निराकार है। यह चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त है, सभी इंद्रियों में है। आत्मा में न किसी चीज में आसक्ति है, न ही वह उससे मुक्त है। आत्मा तो शुद्ध चेतना है, अनादि, अनंत शिव है।
निर्वाण षट्कम एक गहन और दार्शनिक श्लोक है। इसका अर्थ समझने के लिए गहन ध्यान और साधना की आवश्यकता होती है।
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