मूरिष संग न कीजिए लोहा जलि न तिराइ मीनिंग कबीर के दोहे

मूरिष संग न कीजिए लोहा जलि न तिराइ मीनिंग Murikh Sang Na Kijiye Meaning, Kabir Ke Dohe (Saakhi) Hindi Arth/Hindi Meaning Sahit (कबीर दास जी के दोहे सरल हिंदी मीनिंग/अर्थ में )

मूरिष संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ
कदली सीप भवंग मुषी, एक बूँद तिहुँ भाइ॥

Murikh Sang Na Kijiye, Loha Jali Na Tirayi,
Kadali Seep Bhavang Mukhi, Ek Bund Tihu Bhai.

मूरिष संग न कीजिए लोहा जलि न तिराइ मीनिंग

मूरिष संग न कीजिए : मूर्ख व्यक्ति की संगती नहीं करनी चाहिए.
लोहा जलि न तिराइ : लोहा जल में तैर नहीं सकता है.
कदली सीप भवंग मुषी : केला, सीप और सर्प के मुख में.
एक बूँद तिहुँ भाइ : एक ही बूँद अलग अलग रूप धारण कर लेती है.
मूरिष : मूर्ख व्यक्ति, जिसने इस जीवन के उद्देश्य को पहचाना नहीं है.
संग : संगती, साथ में रहना.
न कीजिए : नहीं करनी चाहिए.
लोहा : लोह धातु.
जलि: जल/पानी.
न तिराइ : तैर नहीं सकता है (जल में तैर नहीं सकता है)
कदली : केला (केला का पौधा)
सीप : समुद्री सीपी (कौड़ी)
भवंग : सर्प/सांप.
मुषी : मुख/मुंह.
एक बूँद : एक ही बूँद (स्वाति नक्षत्र की पानी की बूँद )
तिहुँ : तीन प्रकार से.
भाइ : फलीभूत होती है / आकर लेती है, बन जाती है.

प्रस्तुत कबीर साहेब की इस साखी में साहेब मनुष्य को सन्देश देते हैं की इस जीवन में संगती का बहुत अधिक महत्त्व है. हमें साधू जन की संगती करनी चाहिए. ऐसे लोग जो मूर्ख हैं, जो माया जनित व्यवहार में लगे रहते हैं और जिनको भक्ति मार्ग से कुछ भी लेना देना नहीं है, जिन्होंने मानव जीवन के उद्देश्य को पहचाना नहीं हैं, ऐसे लोग लोहे के समान हैं. जैसे लोहा पानी में तैर नहीं सकता है, अपने स्वभाव के अनुसार पानी में निचे ही बैठता चला जाता है, इसी के समान ही मूर्ख व्यक्ति भी भव सागर में तैर कर पार नहीं लग सकता है. वह अपने स्वभाव के मुताबिक़ माया की तरफ अधिक से अधिक आकर्षित होता ही चला जाता है और अमूल्य मानवीय जीवन को व्यर्थ में गँवा देता है.

साहेब उदाहरण के माध्यम से समझाते हैं की एक ही वस्तु का स्वभाव के अनुसार प्रथक प्रथक परिणाम प्राप्त होता है जैसे की स्वाति नक्षत्र के जल की एक बूँद केले के पादप में गिरकर कर्पुर बन जाती है, सीपी में गिरकर मोती बन जाती है और वही जल की एक बूँद सांप के मुंह में गिरकर जहर बन जाती है. अतः ऐसे ही संगती का मानव के जीवन पर बहुत ही अधिक प्रभाव पड़ता है. व्यक्ति को संतजन/ साधुजन की संगती में रहना चाहिए. मूर्ख व्यक्ति जो माया के जाल में फंसे हुए हैं वे लोहे के समान है जिन्हें अवश्य ही डूब जाना है. साखी में साहेब ने संगती के महत्त्व को स्थापित किया है. साखी में द्रष्टान्त अलंकार की सफल व्यंजना हुई है.
 

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