अनगढ़िया देवा कौन करै तेरी सेवा मीनिंग Angadhiya Deva Koun Kare Teri Seva Meaning
अनगढ़िया देवा कौन करै तेरी सेवा मीनिंग Angadhiya Deva Koun Kare Teri Seva Meaning : Kabir Ke Pad Hindi Arth/Bhavarth
अनगढ़िया देवा कौन करै तेरी सेवा
अनगढ़िया देवा, कौन करै तेरी सेवा।
गढ़े देव को सब कोइ पूजै, नित ही लावै सेवा।
पूरन ब्रह्म अखंडित स्वामी, ताको न जानै भेवा।
दस औतार निरंजन कहिए, सो अपना ना होई।
यह तो अपनी करनी भोगैं, कर्ता और हि कोई।
जोगी जती तपी संन्यासी, आप आप में लड़ियाँ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, राग लखै सो तरियाँ॥
अनगढ़िया देवा, कौन करै तेरी सेवा।
गढ़े देव को सब कोइ पूजै, नित ही लावै सेवा।
पूरन ब्रह्म अखंडित स्वामी, ताको न जानै भेवा।
दस औतार निरंजन कहिए, सो अपना ना होई।
यह तो अपनी करनी भोगैं, कर्ता और हि कोई।
जोगी जती तपी संन्यासी, आप आप में लड़ियाँ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, राग लखै सो तरियाँ॥
अमूर्त/अनगढ़ देवा के सम्बन्ध कबीर साहेब का कथन है की अनगढ़ देवता को किसी मूर्ति में नहीं ढाला जा सकता है। लोग मूर्ति को गढ़ कर उसे देवता रूप में नित्य ही पूजते हैं। लेकिन मूर्ति पूजा के अतिरिक्त जो पूर्ण ब्रह्म है (निराकार ईश्वर) उसकी कोई पूजा नहीं करता है। पूर्ण ब्रह्म अखंडित रूप में है लेकिन समाज के लोग मूर्तियों की पूजा अर्चना में ही लगे रहते हैं जिस पर कबीर साहेब ने व्यग्य किया है। समाज ईश्वर के दसवे अवतार की पूजा करते हैं लेकिन कबीर साहेब इसे मनगढंत मानते हैं। वे कहते हैं की कोई भी अवतार निरंजन/ईश्वर नहीं है। सभी लोग अपनी करनी का फल भोग रहे हैं। करता /कर्त्ता तो कोई दूसरा ही है। इसी क्रम में सभी लोग यथा योगी, तपस्वी और सन्यासी व्यक्ति आपस में ही लड़ रहे हैं। कबीर साहेब कहते हैं की इसने भी प्रेम/ईश्वर से राग/स्नेह रखा है वह स्वतः ही तर गया है, मोक्ष को प्राप्त हो गया है।
कबीर इस दोहे में मूर्तिपूजा की आलोचना करते हैं। कबीर कहते हैं कि जो ईश्वर अनगढ़ है, यानी जिसका कोई रूप नहीं है, उसकी सेवा कैसे की जा सकती है? लोग अपने हाथों से बनाई हुई मूर्तियों की पूजा करते हैं, लेकिन वह मूर्तियाँ ईश्वर का सच्चा रूप नहीं हैं। कबीर कहते हैं कि जो ईश्वर पूर्ण है, जो ब्रह्म है, जो अखंडित है, उसकी कोई मूर्ति नहीं बनाई जा सकती। वह तो सर्वव्यापी है और हर जगह मौजूद है। कबीर कहते हैं कि लोग दस अवतारों की भी पूजा करते हैं, लेकिन ये अवतार भी मन से गढ़े गए हैं। कोई अवतार निरंजन नहीं है, यानी कोई अवतार पूर्ण नहीं है। कबीर कहते हैं कि लोग अपनी-अपनी करनी का भोग भोगते हैं। कोई भी दूसरों को भटका सकता है, लेकिन कोई भी दूसरों को नहीं बचा सकता।
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